भगवान् भाव के भूखे हैं

God is hungry for devotion

SPRITUALITY

(ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज) गीताप्रेस गोरखपुर की प्रसिद्ध मासिक पत्रिका कल्याण के फरवरी अंक से

10/1/20241 min read

भगवान् भाव के भूखे हैं

(ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज)

गीताप्रेस गोरखपुर की प्रसिद्ध मासिक पत्रिका कल्याण के फरवरी अंक से

गृहस्थमें रहनेवाले एक बड़े अच्छे त्यागी पण्डित थे। त्याग साधुओंका ठेका नहीं है। गृहस्थमें, साधुमें, सभीमें त्याग हो सकता है। त्याग साधुवेषमें ही हो; ऐसी बात नहीं है। पण्डितजी बड़े विचारवान् थे। भागवतकी कथा कहा करते थे। एक धनी आदमीने उनसे दीक्षा ली और कहा- 'महाराज! कोई सेवा बताओ।' धनी आदमी बहुत पीछे पड़ गया तो कहा-'तुम्हें रामजीने धन दिया है तो सदाव्रत खोल दो।' 'अन्नदानं महादानम्।' 'भूखोंको भोजन कराओ, भूखोंको अन्न दो।' ऐसा महाराजने कह दिया। वह श्रद्धालु था। उसने शुरू कर दिया। दान देते हुए कई दिन बीत गये। मनुष्य सावधान नहीं रहता है तो हरेक जगह अभिमान आकर पकड़ लेता है। उसे देनेका ही अभिमान हो गया कि 'मैं इतने लोगोंको अन्न देता हूँ।' अभिमान होनेसे नियत समयपर तो अन्न देता और दूसरे समयमें कोई माँगने आता तो उसकी बड़ी ताड़ना करता; तिरस्कार, अपमान करता, क्रोधमें आकर अतिथियोंकी ताड़ना करते हुए कह देता कि सभी भूखे हो गये, सभी आ जाते हैं। सबकी नीयत खराब हो गयी। इस प्रकार न जाने क्या क्या गाली देता।

पण्डितजी महाराजने वहाँके लोगोंसे पूछा कि सदाव्रतका काम कैसा हो रहा है? लोगोंने जवाब दिया- 'महाराजजी ! अन्न तो देता है, पर अपमान तिरस्कार बहुत करता है। एक दिन पण्डितजी महाराज स्वयं ग्यारह बजे रात्रिमें उस सेठके घरपर पहुँचे। दरवाजा खटखटाया और आवाज लगाने लगे, 'सेठ ! कुछ खानेको मिल जाय।' भीतरसे सेठका उत्तर मिला- 'जाओ, जाओ, अभी वक्त नहीं है।' तो फिर बोले- 'कुछ भी मिल जाय, ठण्डी-बासी मिल जाय। कलकी कुछ भी मिल जाय।' तो सेठ बोला- 'अभी नहीं है।' पण्डितजी जानकर तंग करनेके लिये गये थे। बार-बार देनेके लिये कहा तो सेठ उत्तेजित हो गया। इसलिये जोरसे बोला- 'रातमें भी पिण्ड छोड़ते नहीं, दुःख दे रहे हो। कह दिया ठीक तरहसे, अभी नहीं मिलेगा, जाओ।' पण्डितजी फिर बोले- 'सेठजी! थोड़ा ही मिल जाय, कुछ खानेको मिल जाय।' अब धनी आदमी बहुत पीछे पड़ गया तो कहा- 'तुम्हें रामजीने धन दिया है तो सदाव्रत खोल दो।' 'अन्नदानं महादानम्।' 'भूखोंको भोजन कराओ, भूखोंको अन्न दो।' ऐसा महाराजने कह दिया। वह श्रद्धालु था। उसने शुरू कर दिया। दान देते हुए कई दिन बीत गये। मनुष्य सावधान नहीं रहता है तो हरेक जगह अभिमान आकर पकड़ लेता है। उसे देनेका ही अभिमान हो गया कि 'मैं इतने लोगोंको अन्न देता हूँ।' अभिमान होनेसे नियत बची हुई रोटी मिल जाय। भूख मिटानेके लिये थोड़ा सेठजीको क्रोध आ गया। जोरसे बोले- 'कैसे आदमी हैं?' दरवाजा खोलकर देखा तो पण्डितजी महाराज स्वयं खड़े हैं। उनको देखकर कहता है- 'महाराजजी ! आप थे?' पण्डितजीने कहा- 'मेरेको ही देता है क्या?', 'मैं माँगूँ तो ही तू देगा क्या?', 'महाराज ! आपको मैंने पहचाना नहीं।' 'सीधी बात है, मेरेको पहचान लेता तो अन्न देता। दूसरोंको ऐसे ही देता है क्या? यह कोई देना थोड़े ही हुआ। तूने कितनोंका अपमान तिरस्कार कर दिया? इससे कितना नुकसान होता है?'

सेठने कहा कि 'महाराज ! अब नहीं करूँगा।' अब कोई माँगने आ जाय तो सेठजीको पण्डितजी याद आ जाते। इसलिये सब समय, सब वेषमें भगवान्‌को देखो। गरीबका वेष धारणकर, अभावग्रस्तका वेष धारणकर भगवान् आये हैं। क्या पता किस वेषमें साक्षात् नारायण आ जायें। इस प्रकार आदरसे देगा तो भगवान् वहाँ आ जाते हैं। भगवान् तो भावके भूखे हैं। भाव आपके क्रोधका है तो वहाँ भगवान् कैसे आवेंगे। आपके देनेका भाव होता है तो भगवान् लेनेको लालायित रहते हैं। भगवान् तो प्रेम चाहते हैं। प्रेमसे, आदरसे दिया हुआ भगवान्‌को बहुत प्रिय लगता है। 'दुरजोधनके मेवा त्यागे, साग बिदुर घर खाई।'