यह शरीर माता पिता से मिला है, यह कहना कितना उचित है ?

How appropriate is it to say that this body has been inherited from the parents?

SPRITUALITY

Geeta Press book ''गृहस्थमें कैसे रहें ?'' से यह लेख पेश

4/6/20241 min read

प्रश्न- कहा गया है कि यह शरीर हमारे कर्मोंसे, भाग्य से मिला है- 'बड़े भाग मानुष तनु पावा'; और भगवान्‌ने विशेष कृपा करके मनुष्य-शरीर दिया है- 'कबहुँक देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही ।।' तो फिर यह शरीर माता-पिता से मिला है-यह कहना कहाँतक उचित है?

उत्तर- इस शरीरके मिलनेमें प्रारब्ध (कर्म) और भगवत्कृष तो निमित्त कारण है और माता-पिता उपादान कारण हैं। जैसे, घड़ा मिट्टीसे बनता है तो मिट्टी घड़ेका उपादान कारण है और कुम्हार घड़ा बनानेमें निमित्त बनता है तो कुम्हार निमित्त कारण है। उपादान कारण (खास कारण) वह कहलाता है, जो कार्यरूपमें परिणत होनेमें कारण बनता है। निमित्त कारण कई होते हैं; जैसे- घड़ेके बनने कुम्हार, चक्का, डण्डा आदि कई निमित्त कारण हैं, पर कुम्हार मुख्य निमित्त कारण है। ऐसे ही शरीरके पैदा होनेमें माता-पिता ही खास उपादान कारण हैं; क्योंकि उनके रज-वीर्यसे ही शरीर बनता है।

जन्म और आयुके होनेमें तथा अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिके बननेमें कर्म निमित्त कारण हैं और 'किस कर्मका कब, कहाँ क्या फल होगा; कैसी परिस्थिति बनेगी' - इस तरह कर्मफलकी व्यवस्था करनेमें, कर्मफल देनेमें भगवत्कृपा निमित्त कारण है अर्थात् यह है। सब भगवदिच्छासे, भगवान्के विधानसे ही होता है; क्योंकि कर्म जड होनेसे स्वयं कर्मफल नहीं दे सकते। अगर कर्मफलका विधान जीवोंके हाथमें होता तो वे शुभ कर्मका ही फल लेते, अशुभ कर्मका फल लेते ही क्यों ? जैसे संसारमें यह देखा जाता है कि मनुष्य शुभ कर्मका फल स्वयं स्वीकार करता है और अशुभ कर्म (चोरी, डकैती आदि) का फल (दण्ड) स्वयं स्वीकार नहीं करता तो उसको राजकीय व्यवस्थासे दण्ड दिया जाता है।

माँ बच्चे के लिये कितना कष्ट उठाती है, उसको गर्भमें धारण करती है, जन्म देते समय असह्य पीड़ा सहती है, अपना दूध पिलाती है, बड़े लाड़-प्यारसे पालन-पोषण करती है, खाना पीना, उठना-बैठना, चलना-फिरना आदि सिखाती है, ऐसी माँका नर ऋण पुत्र नहीं चुका सकता। अतः पुत्रको माँके प्रति कृतज्ञ होना नतासे ही चाहिये। ऐसे ही पिता बिना कहे ही पुत्रके भरण-पोषणका पूरा प्रबन्ध करता है, विद्या पढ़ाकर योग्य बनाता है, जीविका कृपा चलानेकी विद्या सिखाता है, विवाह कराता है, ऐसे पिताका ऋण बड़ा थोड़े ही चुकाया जा सकता है! अतः माता-पिताका कृतज्ञ होकर बड़ा जीते-जी उनकी आज्ञाका पालन करना, उनकी सेवा करना, दान उनको प्रसन्न रखना और मरनेके बाद उनको पिण्ड-पानी देना, श्राद्ध-तर्पण करना आदि पुत्रका खास कर्तव्य है।

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक "गृहस्थ कैसे रहे ?" से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुख जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.