विधर्मी लोग किसी स्त्रीका अपहरण करके ले जायें तो उस स्त्री को क्या करना चाहिये ?

If heretical people kidnap a woman, what should that woman do?

SPRITUALITY

गीता प्रेस से प्रकाशित पुस्तक ''गृहस्थ में कैसे रहें ?'' से यह लेख पेश. पुस्तक के लेखक स्वामी रामसुखदास जी हैं.

5/8/20241 min read

प्रश्न- विधर्मी लोग किसी स्त्रीका अपहरण करके ले जायें तो उस स्त्री को क्या करना चाहिये ?

उत्तर-उसको जहाँ तक बने, वहाँ से छूटनेका प्रयास करना चाहिये और मौका लगनेपर वहाँसे भाग जाना चाहिये। कोई भी उपाय न चले तो भगवान् को पुकारना चाहिये। भगवान किसी-न-किसी प्रकारसे छुड़ा देंगे।

एक स्त्री को मुख में कपड़ा ठूंसकर, दोनों हाथ पीठ के पीछे बाँधकर और ऊपरसे बुरका पहनाकर विधर्मी लोग रेल में ले जा से थे। लखनऊ स्टेशन पर जब टीटी टिकट देखनेके लिये उस स्त्री के पास आकर खड़ा हुआ, तब उस स्त्रीने अपने पैर से टीटी का पैर दबाया। टीटी ने विचार किया कि इसने मेरा पैर क्यों दबाया ! इसमें कुछ-न-कुछ रहस्य है! उसने रेलवे पुलिसको बुलाया। पुलिस जाँच करके उस स्त्रीको छुड़ा लिया और उसका अपहरण करनेवालों को पकड़ लिया। ऐसे ही नोआखाली में विधर्मी ने एक स्त्री को पकड़ लिया। उस स्त्रीने भगवान्‌ को पुकारा। इतने में दूसर विधर्मी आया और कहने लगा कि इसको मैं अपनी स्त्री बनाऊँगा इसी बातको लेकर दोनों आदमियों में लड़ाई हो गयी। वे दोनों आपस में लड़कर मर गये और उस स्त्री की रक्षा हो गयी।

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक "गृहस्थ कैसे रहे ?" से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।