आजकल मँहगाई के जमाने में स्त्री भी नौकरी करे तो क्या हर्ज है?

In today's era of inflation, what is the harm if a woman also works?

स्त्री सम्बन्धी बातें FEMININE THINGS

गीता प्रेस से प्रकाशित पुस्तक ''गृहस्थ में कैसे रहें ?'' से यह लेख पेश. पुस्तक के लेखक स्वामी रामसुखदास जी हैं.

6/30/20241 min read

प्रश्न- आजकल मँहगाई के जमाने में स्त्री भी नौकरी करे तो क्या हर्ज है?

उत्तर - स्त्रीका हृदय कोमल होता है, अतः वह नौकरी का कष्ट, ताड़ना, तिरस्कार आदि नहीं सह सकती। थोड़ी भी विपरीत बात आते ही उसके आँसू आ जाते हैं। नौकरी को चाहे गुलामी कहो, चाहे दासता कहो, चाहे तुच्छता कहो, एक ही बात है। गुलामी को पुरुष तो सह सकता है, पर स्त्री नहीं सह सकती। अतः नौकरी, खेती, व्यापार आदिका काम पुरुषों के जिम्मे है और घरका काम स्त्रियों के जिम्मे है। अतः स्त्रियों की प्रतिष्ठा, आदर घर का काम करने में ही है। बाहरका काम करनेमें स्त्रियों का तिरस्कार है। यदि स्त्री प्रतिष्ठासहित उपार्जन करे तो कोई हर्ज नहीं है अर्थात् वह अपने घर में ही रहकर जीविका- उपार्जन कर सकती है; जैसे- स्वेटर आदि बनाना, कपड़े सीना, पिरोना, बेलपत्ती आदि निकालना, भगवान्के चित्र सजाना आदि। ऐसा काम करनेसे वह किसीकी गुलाम, पराधीन नहीं रहेगी।

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक "गृहस्थ कैसे रहे ?" से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।