महाराज जी ने बताया, मन को वश में कैसे करें. Maharaj ji told, how to control the mind.
Pujya Maharaj ji from Vrindavan
SPRITUALITY
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श्री हरिवंश महाराज जी गुरुदेव हम अपने मन को वश में कैसे करें? जिससे हमारी आध्यात्मिक शिक्षा एवं क्षेत्रों में वृद्धि हो.
पूज्य महाराज जी का उत्तर
कई बार चर्चा में कहा है. जैसे कोई धारा जा रही है तो सीधे उसको रोका नहीं जा सकता. उससे अगर छोटी-छोटी नहरे निकाल लें. एक, दो, तीन तो उसकी धारा कमजोर हो जाएगी. फिर उसको बंद कर सकते हैं. ऐसे मन का प्रबल वेग पांच ज्ञान इंद्रियों के साथ प्रकृत (विषय भोग) की तरफ ही जाना है.
मनाखष्टा निंद्रयाण प्रकृति स्थान करशती.
तो जैसे धारा में नहरेें निकलती हैं. ऐसे अभ्यास योग से अलग-अलग कर के मन को फंसाने की चेष्टा करते हैं.
अभ्यास योग युक्त चे नाम निगामना
अभ्यास योग के द्वारा हम ऐसी स्थिति बना सकते हैं कि हमारा चित हमारा मन संसार में ना जाए. प्रभु का नाम प्रभु की लीला, गुण- श्रवण, कथन, प्रभु का रूप चिंतन, प्रभु का धाम, प्रभु के प्रेमी संतों का सानिध्य जो शरीर और शरीर संबंधियों में आसक्ति है वही हमारे बंधन का कारण है.
वही आसक्ति यदि भगवान की प्रेमी महात्माओं से हो जाए तो मोक्ष का खुला हुआ द्वार है.
संत संघ का बहुत बड़ा महत्व शास्त्रों में भी है और अपने जीवन में भी देखा गया है. यदि गुरुजन और संत जनों की कृपा ना होती तो हम मार्ग में चलना की बात जाने दो तो सोच भी नहीं सकते थे.
मन का स्वभाव है चंचल। जैसे बंदर डाल पर डाल छलांग मारता रहता है ऐसा इसका स्वभाव है, एक जगह टिकता नहीं है अब इसे हमें रोकना है.
अभ्यास के द्वारा तो पहले गुरुदेव चरण प्रारंभ होता है. जितना भी आप साधन भजन करते हैं उसका फल होगा सद्गुरुदेव की प्राप्ति. सद्गुरुदेव जो नाम देते हैं, मंत्र देते हैं उसकी बार-बार आवृत्ति करें.
राधा राधा राधा राधा करे और ध्यान में भी हम राधा लिखें. राधा राधा.
अब मन अगर भागेगा तो आप लिख नहीं पाएंगे. उच्चारण कर लेंगे पर लिख नहीं पाएंगे. अगर इससे कुछ ही नाम आप लिखवाना शुरू कर दें तो फंसना शुरू हो जाएगा.
जब एकदाकारवृत्तिु होती है तो मन लीन हो जाता है. ऐसा करने से मन पंगु हो जाता है.
जैसे चीटा गुड में फँस जाए तो भले टांग टूट जाएं पर निकल नहीं सकता. ऐसे मन जिस समय प्रभु के अनुराग में फंस जाता है फिर निकल नहीं सकता। नाम और फिर कुछ स्वाध्याय का.नियम ले. नाम को सुमिरन कहते हैं और अपने गुरु प्रदत्त स्वाध्याय का नियम ले, अन्य नहीं क्योंकि शास्त्र एक बहुत बड़ा जंगल है, हम फँस जाएंगे हमारी बुद्धि नहीं जान पाएगी सत्य क्या है? क्योंकि सत्य को बहुत प्रकार से वर्णन किया गया है. तो जैसे हम बीमार है मेडिकल स्टोर में जाए. हम अपनी मनपसंद दवा उससे बोले तो वे दवा हो सकता है, हमारे शरीर का नाश करने का कारण बने. लेकिन डॉक्टर से लिखवा के जाये तो हमारी औषधि रोग निवारण की होगी।.
शास्त्र समझ लो भव रोग का मेडिकल स्टोर है।. बड़े मार्ग हैं बड़े वाक्य हैं जिनको समझना बड़ा कठिन है. तो पहले हम गुरुदेव की आज्ञा प्राप्त करें कि हमको कौन से ग्रंथ का अध्याय करना चाहिए तो स्वाध्याय नियम पूर्वक किया जाय।.
इसे सांगो पांग उपासना कहते हैं. एक ग्रन्थ एक पंथ एक संत एक मन्त्र एक कंत . कंत आराध्य देव होते हैं. संत माने सद्गुरुदेव होते हैं. पथ माने सद्गुरुदेव का बताया हुआ रास्ता होता है और मंत्र श्री मुख से निकलता है.
तो जब हम स्वाध्याय नियम से करें त्रुटि नहीं होने पाए और स्वाध्याय के साथ मनन करे तो बहुत लाभदायक होता है.
शास्त्र ज्ञान के लिए आसान किताबें
मान लो जैसे आपको पुराणों वेदों में पहुँच नहीं है तो गीता प्रेस से महापुरुषों ने बहुत छोटी-छोटी पुस्तिकाएं निकाली है. आस्तिकता की आधारशिलाएं, साधन पथ और सत्संग के बिखरे मोती। बहुत सी ऐसी पुस्तक है जिसमें बड़े-बड़े महापुरुषों के अनुभव लिखे हुए है. तीसरा है मन को रोकने की सेवा. इससे बहुत जोर का मन पर प्रभाव पड़ता है।
सेवा से सद्गुरु की सेवा. सेवा से अपने परिवार को भागवत स्वरूप मानना। माता-पता, पति पुत्र , रिश्ते नाते अतिथि कोई भी हो, पहले उसमें भाव करे कि इनके शरीर के हृदय में प्रभु विराजमान है. सामने जो शरीर आया है, इसमें चैतन्य परमात्मा विराजमान है, आप जो भी सेवा करोगे, भगवान की सेवा होगी और भगवान का श्री विग्रह तो घर में विराजमान किया ही जाता है.
कोई भी आस्तिक, धार्मिक घर होगा तो उसमें भगवान विराजमान होंगे तो उनकी सेवा, उनके संबंध से पूरे परिवार की सेवा, आए हुए अतिथियों के सेवा या गुरुदेव से मिलते हुए वचनों वाले संत उनका संग करें. उसे सत्संग कहते हैं.
ईस्ट मिले और मन मिले, मिले भजन रसरीती, कहा निशंक मिलिए तासों की जय प्रीति
जो हमारे इस्ट के भाव को पुष्ट कर दें. गुरु ने जो मार्ग दिया है, उसे रसरीति कहते हैं हमें निशंक होकर ऐसे संतो का संग करना चाहिए।
पर जिनके संग से से हमारे गुरु वाक्य का खंडन हो रहा हो. हमारे गुरु आराधना में बाधा पड़ रही हो और चाहे वो ब्रह्मा क्यों ना हो. हम प्रणाम करके चल देंगे उनकी बात नहीं सुनेंगे.
इसके बाद आता है समाधि.
समाधि का तात्पर्य संकल्प शून्य होकर चित का एक केंद्र ओर आकर हो जाना. चाहे अपने आराध्य देव में आप आत्म स्वरूप में हो जाए. पर आत्मा स्वरूप का चिंतन बड़ा कठिन है. क्योंकि स्थूल देह सूक्ष्म तीनों का, शरीरों का इसमें विस्मरण होता है. इनके कार्यों का विस्मरण होता है. जो बचता है, वह आत्मस्वरूप का स्मरण कहलाता है, तो जितना ''मैं'' से विरोधी भाव है, उसका त्याग हो गया.
स्थूल देह का , सूक्ष्म का, करण का, सब का त्याग हो गया..चिंतन शून्य हृदय. तब उपासक अपने स्वरूप का अनुभव कर पाता है।
वही भक्ति में यह सहज में हो जाता है. भगवान की कृपा से सहज में मन अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है.
तो मन के रोकने के लिए यह पांच बाँध हैं. भगवान ने इसी को कहा है अभ्यास और वैराग्य।
आप करेंगे तो मन अपने आप नष्ट होने लगेगा. जितना हृदय मालिन होता है, उतना भोग अच्छे लगते हैं. व्यवहार अच्छा लगता है. प्रपंची की बातें, टेलीिविजन ये सब अच्छा लगता है. और जब आपका मन निर्मल होने लगेगा. विषय, भोग, निद्रा, हंसी, जगतप्रीति , बहुबात ये सब अच्छा नहीं लगेगा. अगर इन पांच में से एक भी कोई है तो बाकी अपने आप आ जाएंगे. बहु वार्ता।
ग्राम कथा, राजनीति कथा, भोग कथा, व्यवहार की कथा ये सब बहुवार्ता के अंतर्गत आता है और हंसी मजाक साधु और उपासक को अच्छा नहीं लगता. जब तक प्रीतम से दृष्टि नहीं मिल गई तो क्या हंसना? उदासीन रहा जाएं. उसके स्वभाव में खिन्नता और उदासीनता आ जाती है.
खान-पान आदि कुछ अच्छा नहीं लगता. क्योंकि जैसे स्वप्न से जगा हुआ पुरुष स्वप्न की वस्तु व्यक्ति स्थान में आस्था नहीं रखता क्योंकि सब झूठा था. ऐसे ही मोह निषाद से जगा हुआ इस जगत के किसी भी वस्तु व्यक्ति स्थान पर आस्था नहीं रखता।.
उमां कहू मैं अनुभव अपना सत हरी भजन जगत सब सपना। ये सुमिरन सेवा स्वाध्याय, सत्संग और समाज। समाधि का तात्पर्य एकांत शांत बैठकर अपने मन को अपने लक्ष्य में लीन कर अभ्यास करें. अभ्यास से धीरे-धी हो जाएगा. इस अभ्यास से हम ऐसी स्थिति बना सकते हैं.
अब इस अभ्यास के साथ-.साथ कुसंग का त्याग भी है. आप अभ्यास कर रहे है, कुसंगी लोग का संग कर रहे है. कुसंगी चेष्टाएं कर रहे है. गंदा भोजन करते हैं, अपवित्र दृश्य देखते हैं. फिर तो मतलब असंभव है. मन मलिन हो जाएगा. फिर लगेगा ही नहीं. सब बातें आपको गप लगेंगी. अश्वद्धा के पात्र बनने लगेंगे क्योंकि हृदय पापा आत्मा हो रहा है आप अपने मन को प्रभु में लीन करना चाहते हैं तो आचरण पवित्र, भोजन पवित्र और संघ पवित्र तो चिंतन-पवित्र होने लगेगा. बार-बार अभ्यास से ऐसा करोगे तो आपका मन भवदाकार हो जाएगा।. भगवदाकार क्या भगवान ही है.
मन विषयों में लगा है तो हमें कुछ का कुछ नजरआ रहा है. अभी तन्मय हो जाए तो उसी में भगवान प्रकाशित हो जाते हैं. मन में भगवान प्रकाशित हो जाते हैं.