प्रश्न- अधिक सन्तान चाहते नहीं और संयम हो पाता नहीं, ऐसी अवस्थामें क्या करें ?
Question: I do not want more children but am unable to control myself. What should I do in such a situation?
महापाप से बचो AVOD THE BIGOTRY
प्रश्न- अधिक सन्तान चाहते नहीं और संयम हो पाता नहीं, ऐसी अवस्थामें क्या करें ?
उत्तर-ऐसी बात नहीं है। अगर आप संयम करना चाहते हैं तो संयम अवश्य हो सकता है। मैंने बहुत समय पहले 'ब्रह्मचर्य ही जीवन है' नामक एक पुस्तक पढ़ी थी। उसके लेखक शिवानन्द नामके व्यक्ति थे। उन्होंने उस पुस्तकमें लिखा था कि 'मैं विवाहित हूँ; परंतु दोनोंने (मैंने और स्त्रीने) सलाह करके ब्रह्मचर्यका पालन किया, जिससे मुझे बहुत लाभ हुआ। वह लाभ सबको हो जाय, इसलिये मैंने यह पुस्तक लिखी है।' एक माताजीने हमें सुनाया कि हमारे पड़ोसमें एक जैन परिवार था। रोज रातमें उनके बोलनेकी आवाज आती थी। एक दिन मैंने उनसे पूछा कि आपलोग रातमें बातें करते हैं, सोते नहीं हैं क्या ? उन्होंने अपनी बात सुनायी कि विवाहके पहले ही हम दोनोंमेंसे एकने कृष्णपक्षमें और एकने शुक्लपक्षमें ब्रह्मचर्यका पालन करनेकी सौगन्ध ले ली थी। अब तीसरा पक्ष कहाँसे लायें ? अतः एक कमरेमें रहनेपर भी हम आपसमें धर्मकी चर्चा किया करते हैं। तात्पर्य है कि आप गृहस्थमें रहते हुए संयम कर सकते हैं। आप उत्साह रखें, हिम्मत मत हारें कि हमारेसे संयम नहीं होता। आप संयम नहीं करेंगे तो कौन करेगा ? हिम्मत रखनेसे असम्भव भी सम्भव हो जाता है-
हिम्मत मत छाँड़ो नराँ, मुख ते कहताँ राम।
हरिया हिम्मत से किया, ध्रुव का अटल धाम ॥
अतः उत्साह रखें, भगवान्का भरोसा रखें और उनसे प्रार्थना करें कि 'हे नाथ! हम संयम रखनेका नियम लेते हैं, आप शक्ति दो।' इस प्रकार आप जितने तत्पर रहेंगे, भगवान्का भरोसा रखेंगे, उतना ही आपको अलौकिक चमत्कार देखनेको मिलेगा, करके देख लें।
पहले जमानेमें नसबन्दी, आपरेशन आदि नहीं होते थे। उस जमानेमें लोग संयम रखते थे तो अब भी संयम रखना चाहिये। वर्तमानमें जो संयम आदि गुणोंको, दैवी-सम्पत्तिको अपने में लानेमें कठिनताका अनुभव होता है, उसका कारण यह है कि पहले असंयम आदिका, आसुरी-सम्पत्तिका स्वभाव बना लिया है।
विचार करें कि सत्य बोलनेवाला व्यक्ति है, उससे कहा जाय कि हम आपको एक हजार रुपये देते हैं, आप झूठ बोल दें तो वह झूठ नहीं बोलेगा। परंतु जो झूठ-सचका खयाल नहीं रखते, उनसे कहा जाय कि हम आपको पाँच रुपये देंगे, आप सच्ची बात बोल दें तो वे सच्ची बात बोल देंगे। जो मांस नहीं खाते, उनसे कहा जाय कि हम आपको एक हजार रुपये देंगे, आप मांस खाओ तो वे मर जायँगे, पर मांस नहीं खायेंगे। परंतु जो मांस खाते हैं, उनसे कहा जाय कि आप मांस-मछली मत खाओ, और जगह भोजन न करके केवल हमारे यहाँ ही शाकाहार भोजन करो तो हम आपको रोज एक रुपया देंगे तो वे महीनेभर आपके यहाँ भोजन कर लेंगे। किसीको मदिरा आदिका व्यसन नहीं है, उनको भय, लोभ आदि दिखाकर मदिरा पीनेके लिये कहा जाय तो वे मदिरा नहीं पी सकते। परंतु जिनको मदिरा पीनेका व्यसन है, वे भी सन्त-महात्माओंके संगमें आकर, नीरोगता आदिके लोभमें आकर व्यसन छोड़ देते हैं। तात्पर्य है कि सच बोलना, मांस-मदिराका त्याग करना तो सुगम है, पर झूठ बोलना, मांस-मदिराका सेवन करना कठिन है। उसी प्रकार संयमका त्याग करना कठिन है, संयम करना कठिन नहीं है। यह अनुभवसिद्ध बात है।
एक बात और है कि संयम स्वतः सिद्ध है और असंयम कृत्रिम है, बनावटी है। स्वतः सिद्ध बात कठिन क्यों लगती है- इस पर थोड़ा ध्यान दें। जो लोग संयमका त्याग करके अपना जीवन असंयमी बना लेते हैं, उनके लिये फिर संयम करना कठिन हो जाता है। अगर पहलेसे ही संयमित जीवन रखा जाय तो दुर्व्यसनोंका, दुर्गुणोंका त्याग होनेसे मनुष्यमें शूरवीरता, उत्साह रहता है, शान्ति रहती है। संयम करनेसे जितनी प्रसन्नता, नीरोगता, बल, धैर्य, उत्साह रहता है, उतना असंयम करनेसे नहीं रहता। आप कुछ दिनोंके लिये अच्छे संगमें रहें और संयम करें तो आपको इसका अनुभव हो जायगा कि संयमसे कितना लाभ होता है! संसारमें जितने रोग हैं, वे सब प्रायः असंयमसे ही होते हैं। प्रारब्धजन्य रोग बहुत कम होते हैं। संयमी पुरुषोंको रोग बहुत कम होते हैं। संयमी पुरुष बेफिक्र रहता है, जबकि असंयमी पुरुषमें चिन्ता, भय आदि बहुत ज्यादा होते हैं। जैसे, असंयमी रावण जब सीताको लानेके लिये जाता है, तब वह डरके मारे इधर-उधर देखता है- 'सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाईं ॥' (मानस, अरण्य० २८।५)। परंतु संयमी सीता राक्षसोंकी नगरीमें और राक्षसोंके बीच बैठकर भी निर्भय है! अकेली और स्त्री जाति होनेपर भी उसको किसीसे भय नहीं है। यहाँतक कि वह रावणको भी अधम, निर्लज्ज आदि कहकर फटकार देती है- 'सठ सूनें हरि आनेहि मोही। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही ॥' (मानस, सुन्दर० ९।५)।
हमारे शास्त्रोंमें ब्रह्मचर्यका बड़ा माहात्म्य है और विदेशी सज्जनोंने भी इसका आदर किया है। उन्होंने कहा है कि जीवनभरमें पुरुष एक ही बार अपनी स्त्रीका संग करे। एक बारमें न रह सके तो वर्षमें एक बार करे। वर्षमें एक बार भी न रह सके तो महीनेमें एक बार संग करे अर्थात् केवल ऋतुगामी बने। इसमें भी न रह सके तो अपने कफनका कपड़ा खरीदकर रख ले ! कारण कि बार-बार संग करनेसे आयु जल्दी नष्ट होती है और मनुष्य जल्दी (अल्पायुमें) मरता है। ऐसे तो अल्पायुमें मरनेके अनेक कारण हैं, पर उनमें वीर्य नाश करना खास कारण है। अतः दीर्घायु होनेके लिये, स्वास्थ्यके लिये, नीरोग रहनेके लिये ब्रह्मचर्यका पालन करना बहुत आवश्यक है। सिंह जीवनभरमें केवल एक ही बार सिंहनीका संग करता है। अतः उसमें वीर्यकी रक्षा अधिक होनेसे विशेष ओजबल रहता है, जिससे वह अपनेसे अत्यन्त बड़े हाथीको भी मार देता है। परंतु जो मनुष्य बार-बार स्त्रीका संग करता है, उसमें वह ओजबल नहीं आता, प्रत्युत निर्बलता आती है। ओजबल ब्रह्मचर्यका पालन करनेसे ही उत्पन्न होता है।
ब्रह्मचर्यका पालन करनेसे बड़े-बड़े रोग आक्रमण नहीं करते। ब्रह्मचर्यका पालन करनेवालोंकी सन्तान तेजस्वी और नीरोग होती है। परंतु ब्रह्मचर्य-पालन न करनेवालोंकी सन्तान तेजस्वी और नीरोग नहीं होती; क्योंकि बार-बार संग करनेसे रज- वीर्यमें वह शक्ति नहीं रहती। भोगासक्तिसे जो सन्तान पैदा होती है, वह भोगी और रोगी ही होती है। अतः धर्मको प्रधानता देकर ही सन्तान उत्पन्न करनी चाहिये, जिससे सन्तान धर्मात्मा, नीरोग पैदा हो। भगवान्ने भी धर्मपूर्वक कामको अपना स्वरूप बताया है- 'धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।॥' (गीता ७।११)। जो केवल शास्त्रमर्यादाके अनुसार सन्तानोत्पत्तिके लिये ऋतुकालमें अपनी स्त्रीका संग करता है, वह गृहस्थमें रहता हुआ भी ब्रह्मचारी माना जाता है। परंतु जो केवल भोगेच्छा, सुखेच्छासे अपनी स्त्रीका संग करता है, वह पाप करता है। गीताने विषय- भोगोंके चिन्तनमात्रसे पतन होना बताया है (२।६२-६३) और कामको सम्पूर्ण पापोंका मूल तथा नरकोंका दरवाजा बताया है (३।३६, १६।२१)। तात्पर्य है कि भोगेच्छासे अपनी स्त्रीका संग करना नरकोंका दरवाजा है; पापोंका, अनर्थोंका कारण है। पक्का विचार होनेपर ब्रह्मचर्यका पालन करना कठिन नहीं है। ब्रह्मचर्यका पालन मनुष्यके लिये खास बात है। अगर मनुष्य संयम नहीं करता तो वह पशुओंसे भी गया-बीता है। पशुओंमें गधा, कुत्ता नीच माना जाता है। परंतु वर्षमें एक महीना ही उनकी ऋतु होती है। उस महीनेमें उनकी रक्षा की जाय तो उनका संयम हो जाता है। जैसे, श्रावण मासमें गधेकी, कार्तिक मासमें कुत्तेकी और माघ मासमें बिल्लीकी रक्षा की जाय, उनसे ब्रह्मचर्यका पालन कराया जाय तो उनका संयम हो जाता है। परंतु मनुष्यके लिये बारह महीने खुले हैं, अतः दूसरा कोई उनकी रक्षा नहीं कर सकता, वह खुद ही चाहे तो अपनी रक्षा कर सकता है। इसीलिये शास्त्रोंमें मनुष्यको ब्रह्मचर्य-पालनकी आज्ञा दी गयी है। ब्रह्मचर्यका पालन करनेसे ब्रह्मविद्याकी प्राप्ति हो जाती है, महान् आनन्दकी प्राप्ति हो जाती है।
* सिंह गमन, सज्जन बचन, कदलि फलै इक बार।
तिरिया तेल, हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार ॥
यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक "गृहस्थ कैसे रहे ?" से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.
स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।