प्रश्न -लोगों को पता लगेगा तो उस कन्या की बदनामी होगी तथा उसके साथ कोई विवाह भी नहीं करेगा, तो फिर वह क्या करे? प्रश्न-यदि कोई विवाहिता स्त्री से बलात्कार करे और गर्भ रह जाए तो क्या करना चाहिए ?

Question- If people come to know about it, the girl will be defamed and no one will marry her, then what should she do? Question- If a married woman is raped and she becomes pregnant, then what should be done?

महापाप से बचो AVOD THE BIGOTRY

गीता प्रेस से प्रकाशित पुस्तक ''गृहस्थ में कैसे रहें ?'' से यह लेख पेश. पुस्तक के लेखक स्वामी रामसुखदास जी हैं.

8/25/20241 min read

प्रश्न -लोगों को पता लगेगा तो उस कन्या की बदनामी होगी तथा उसके साथ कोई विवाह भी नहीं करेगा, तो फिर वह क्या करे? प्रश्न-यदि कोई विवाहिता स्त्री से बलात्कार करे और गर्भ रह जाए तो क्या करना चाहिए ?

उत्तर-पाप किया है तो बदनामी सहनी ही पड़ेगी। गर्भ गिरा देना, आत्महत्या कर लेना और घर से भाग जाना-इन तीन हत्याओं (पापों) से बचाने के लिए बदनामी सह लेना अच्छा है। उस कन्या के साथ कोई विवाह करना स्वीकार न करे तो वह घर बैठे ही भजन-स्मरण करे। इससे उसके पाप का प्रायश्चित भी हो जाएगा।

प्रश्न-यदि कोई विवाहिता स्त्री से बलात्कार करे और गर्भ रह जाए तो क्या करना चाहिए ?

उत्तर-जहां तक बने स्त्री के लिए चुप रहना ही बढ़िया है। पति को पता लग जाए तो उसको भी चुप रहना चाहिए। दोनों के चुप रहने में ही फायदा है। वास्तव में पहले से ही सावधान रहना चाहिए, जिससे ऐसी घटना हो ही नहीं। गर्भ गिराने में हमारी सम्मति नहीं है, क्योंकि गर्भ की हत्या महापाप है।

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक "गृहस्थ कैसे रहे ?" से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।