प्रश्न- भगवान् राम और भरत आदिने भी परिवार- नियोजन किया था- 'दुइ सुत सुंदर सीताँ जाए' और 'दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे' (मानस, उत्तर० २५।३-४)। अतः अब भी दो ही संतान रखें तो क्या हानि है?

Question- Lord Rama and Bharat etc. also did family planning- 'two sons are for beautiful Sita' and 'two sons are for all brothers' (Manas, Uttar 25.3-4). So even now if we keep only two children, what is the harm?

महापाप से बचो AVOD THE BIGOTRY

गीता प्रेस से प्रकाशित पुस्तक ''गृहस्थ में कैसे रहें ?'' से यह लेख पेश. पुस्तक के लेखक स्वामी रामसुखदास जी हैं.

9/2/20241 min read

प्रश्न- भगवान् राम और भरत आदिने भी परिवार- नियोजन किया था- 'दुइ सुत सुंदर सीताँ जाए' और 'दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे' (मानस, उत्तर० २५।३-४)। अतः अब भी दो ही संतान रखें तो क्या हानि है?

उत्तर- किसी भी रामायणमें यह नहीं आया है कि श्रीराम ने नसबन्दी करायी थी, सीताजीने आपरेशन कराया था। यह नसबन्दी, आपरेशन आदि तो हमारे देखते-देखते अभी शुरू हुआ है। यह विदेशी काम है, हमारे देशका काम नहीं है। राम, भरत आदि खुद भी चार भाई थे। भगवान् कृष्णकी सोलह हजार एक सौ आठ रानियोंमें प्रत्येकके दस-दस पुत्र और एक-एक कन्या हुई थी। किसी-किसीकी स्वाभाविक ही सन्तान कम होती है और किसी-किसीकी स्वाभाविक ही सन्तान ज्यादा होती है।

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक "गृहस्थ कैसे रहे ?" से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।