पति का आधा पुण्य पत्नी को और पत्नी का आधा पाप पति को मिलता है-ऐसा क्यों?

The wife gets half of the husband's virtues and the husband gets half of the wife's sins - why is this so?

स्त्री सम्बन्धी बातें FEMININE THINGS

गीता प्रेस से प्रकाशित पुस्तक ''गृहस्थ में कैसे रहें ?'' से यह लेख पेश. पुस्तक के लेखक स्वामी रामसुखदास जी हैं.

5/8/20241 min read

प्रश्न-पति का आधा पुण्य पत्नी को और पत्नी का आधा पाप पति को मिलता है-ऐसा क्यों?

उत्तर - पत्नी ने अपने माता-पिता, भाई-भौजाई आदि सबका, घरभरका त्याग किया है और पुण्य त्याग से होता है। उसने अपने गोत्र तक का त्याग करके पति के मनमें अपना मन मिला दिया है! अतः वह पुण्य की भागी होती है। पति सन्ध्या-गायत्री आदि करता है तो उसका भी आधा फल (पुण्य) पत्नीको मिलता है। इसीलिये पतिके दो जनेऊ होते हैं- एक अपना और एक पत्नी का।

स्त्री को बचपन में शिक्षा देना माता-पिता, भाई आदि के अधीन होता है और विवाह होने पर शिक्षा देना पति के अधीन होता है। अगर पति से अच्छी शिक्षा न मिलनेके कारण पत्नी पाप करती है तो उसका आधा पाप पति को लगता है।

अगर पति अच्छी शिक्षा देता है, पर पत्नी पति का कहना नहीं मानती, पाप करती है तो उसका आधा पाप पति को नहीं लगता; क्योंकि उसने अपनी जिम्मेवारी खुद पर ही ली है। ऐसे ही जो स्त्री पति के कहने में चलती है, पतिके अधीन रहती है, वही पतिके आधे पुण्यकी भागीदार होती है। जो पतिके कहने में नहीं चलती, वह पतिके आधे पुण्यकी भागीदार नहीं होती।

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक "गृहस्थ कैसे रहे ?" से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।