पति दुश्चरित्र हो तो पत्नी को क्या करना चाहिये ?

What should a wife do if her husband is of bad character?

स्त्री सम्बन्धी बातें FEMININE THINGS

गीता प्रेस से प्रकाशित पुस्तक ''गृहस्थ में कैसे रहें ?'' से यह लेख पेश. पुस्तक के लेखक स्वामी रामसुखदास जी हैं.

5/31/20241 min read

प्रश्न- पति दुश्चरित्र हो तो पत्नी को क्या करना चाहिये ?

उत्तर-पत्नी को दुश्चरित्र पति का त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत अपने पातिव्रतधर्मका पालन करते हुए उसको समझाना चाहिये। जैसे, मन्दोदरी ने रावण को समझाया, पर उसका त्याग नहीं किया।

विवाह के समय स्त्री-पुरुष दोनों ही परस्पर वचनबद्ध होते हैं। उसके अनुसार पतिको सलाह देने का, पति से अपने मन की बात कहने का पत्नी को अधिकार है। गान्धारी कितने ऊँचे दर्जेकी पतिव्रता थी कि जब उसने सुना कि जिससे मेरा विवाह होनेवाला है, उसके नेत्र नहीं हैं, तो उसने भी अपने नेत्रों पर पट्टी बाँध ली; क्योंकि नेत्रों का जो सुख पतिको नहीं है, वह सुख मुझे भी नहीं लेना है! परन्तु समय आने पर उसने भी पति (धृतराष्ट्र) को समझाया कि आपको दुर्योधन की बात नहीं माननी चाहिये, नहीं तो कुलका नाश हो जायगा। ऐसी सलाह उसने कई बार दी, पर धृतराष्ट्र ने उसकी सलाह नहीं मानी, जिससे कुल का नाश हो गया। तात्पर्य है कि पति को अच्छी सलाह देने का पत्नीको पूरा अधिकार है।

शास्त्रों में आया है कि जो पतिव्रता स्त्री तन-मन से पति की सेवा करती है, अपने धर्म का पालन करती है, वह मृत्यु के बाद पतिलोक में (पतिके पास) जाती है। अगर पति दुश्चरित्र है तो पति का लोक नरक होगा; अतः पतिव्रता स्त्री का लोक भी नरक ही होना चाहिये ! परन्तु पतिव्रता स्त्री नरकों में नहीं जा सकती; क्योंकि उसने शास्त्र की, भगवान्‌ की, सन्त-महात्माओं की आज्ञाका पालन किया है, पातिव्रत धर्म का पालन किया है। अतः वह अपने मर पतिव्रत धर्म के प्रभाव से पति का उद्धार कर देगी अर्थात् जो लोक पति का हो जाएगा. तात्पर्य है कि अपने कर्तव्य का पालन करने वाला मनुष्य दूसरों का उद्धार करनेवाला का बन जाता है।

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक "गृहस्थ कैसे रहे ?" से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।