जब माता-पिताकी सेवा का इतना माहात्म्य है तो उनकी सेवाको छोड़कर मनुष्य साधु-संन्यासी क्यों हो जाते हैं।

When service to parents is of such great importance then why do people leave their service and become monks and nuns.

SPRITUALITY

Geeta Press book ''गृहस्थमें कैसे रहें ?'' से यह लेख पेश

4/15/20241 min read

प्रश्न- जब माता-पिताकी सेवा का इतना माहात्म्य है तो उनकी सेवाको छोड़कर मनुष्य साधु-संन्यासी क्यों हो जाते हैं।

उत्तर- जैसे कोई मर जाता है तो वह माता-पिताकी सेवकह छोड़कर ही मरता है, पर वह दोषका भागी नहीं होता, ऐसे ही जिसक संसारसे असली वैराग्य हो जाता है, वह दोषका भागी नहीं होर इसी तरह जो सर्वथा भगवान्‌के शरण हो जाता है, उसको भी ने दोष नहीं लगता; क्योंकि उसपर किसीका भी ऋण नहीं रहता -

देवर्षिभूताप्तनृणां पितॄणां न किंकरो नायमृणी च राजन।

सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम।

(श्रीमद्भा० ११।५।४)

'राजन् ! जो सब कामोंको छोड़कर सम्पूर्णरूपसे शरणागत वत्सल भगवान्‌की शरणमें आ जाता है, वह देव, ऋषि, प्राण कुटुम्बीजन और पितृगण- इनमेंसे किसीका भी ऋणी सेवक नहीं रहता।'

तात्पर्य है कि जो मनुष्यजन्मके वास्तविक ध्येय भगवान लगा है, उसके द्वारा यदि माता-पिताकी सेवाका, परिवारका त हो जाय तो उसको दोष नहीं लगता।

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक "गृहस्थ कैसे रहे ?" से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुख जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.