स्त्री पुनर्विवाह क्यों नहीं कर सकती ?

Why can't a woman remarry?

स्त्री सम्बन्धी बातें FEMININE THINGS

Geeta Press book ''गृहस्थ में कैसे रहें ?'' से यह लेख पेश

6/17/20241 min read

प्रश्न- स्त्री पुनर्विवाह क्यों नहीं कर सकती ?

उत्तर-माता-पिता ने कन्यादान कर दिया तो अब उसक कन्या संज्ञा ही नहीं रही; अतः उसका पुनः दान कैसे हो सकता अत: अब उसका पुनर्विवाह करना तो पशुधर्म ही है।

सकृदंशो निपतति सकृत्कन्या प्रदीयते।

सकृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सतां सकृत् ॥ ७१

(मनुस्मृति ९।४७; महाभारत वन० २९४।२६)

'कुटुम्बमें धन आदि का बँटवारा एक ही बार होता है, कन्या एक ही बार दी जाती है और 'मैं दूंगा'- यह वचन भी एक ही बार दिया जाता है। सत्पुरुषोंके ये तीनों कार्य एक ही बार होते हैं।'

शास्त्रीय, धार्मिक, शारीरिक और व्यावहारिक - चारों ही दृष्तोटियों से देखा जाय तो शास्त्र में स्त्री को पुनर्विवाह करना अनुचित है. शास्त्रीय दृष्टि से देखा जाय तो शास्त्र में स्त्री को पुनर्विवाह की आज्ञा नहीं दी गई है. धार्मिक दृष्टि से देखा जाए तो पितृऋण पुरुष पर ही रहता है। स्त्री पर पितृऋण आदि कोई ऋण नहीं है। शारीरिक दृष्टि से देखा जाय तो स्त्री में कामशक्ति को रोकनेकी ताकत है, एक मनोबल है। व्यावहारिक दृष्टिसे देखा जाय तो पुनर्विवाह करने पर उस स्त्रीकी पूर्व सन्तान कहाँ जायगी? उसका पालन-पोषण कौन करेगा? क्योंकि वह स्त्री जिससे विवाह करेगी, वह उस सन्तान को स्वीकार नहीं करेगा। अतः स्त्री जातिको चाहिये कि वह पुनर्विवाह न करके ब्रह्मचर्यका पालन करे, संयमपूर्वक रहे।

शास्त्र में तो यहाँ तक कहा गया है कि जिस स्त्री की पाँच-सात सन्तानें हैं, वह भी यदि पति की मृत्युके बाद ब्रह्मचर्य का पालन करती है तो वह नैष्ठिक ब्रह्मचारी की गति में जाती है। फिर जिसकी सन्तान नहीं है, वह यदि पति के मरने पर ब्रह्मचर्य का पालन करती है तो उसकी नैष्ठिक ब्रह्मचारी की गति होने में कहना ही क्या है ?

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक "गृहस्थ कैसे रहे ?" से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।