जन्म-मृत्यु के चक्र से निकल पाना मनुष्य-जन्म में ही सम्भव क्यों बताया जाता है ?
Why is it said that getting out of the cycle of birth and death is possible only in human birth?
SPRITUALITY


प्र.७) जन्म-मृत्यु के चक्र से निकल पाना मनुष्य-जन्म में ही सम्भव क्यों बताया जाता है ?
उ.) सब प्राणियों में एक मनुष्य-योनि में ही यह स्वतंत्रता है कि बुद्धि का उपयोग करके यह निश्चय करे कि नवीन कर्म किस भाव से प्रेरित हों। कर्मफल के सुख-भोग से प्रेरित होकर विभिन्न कर्मों को करने से जीव अपने आपको उन कर्मों के फल भोगने की विवशता से बाँध लेता है। सत्कर्मों का फल भोगने के लिये जीव को देवयोनि प्राप्त होती है, जिसमें उसे निरंतर सुखी होने का अनुभव होता रहता है। यह सुनने में तो अत्यन्त लुभावना लगता है, परन्तु इस योनि में भोग-सुख के आधिक्य के कारण बुद्धि से भगवान् की स्मृति लुप्त हो जाती है। अतः भगवान् की कल्याणमयी स्मृति और कल्याण-प्राप्ति के साधन करने की स्वतंत्रता के लिये देवता भी तरसते रहते हैं (भागवत ५/१९/२२, २३) । दुष्कर्मों का फल दुःख है और उसे भोगने के लिये जीव को पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों इत्यादि अधम योनियों की प्राप्ति होती है। चाहे देवयोनि हो या कोई अधम योनि, वह सदैव बनी नहीं रह सकती। उनका अन्त होने पर पुनः मनुष्य-शरीर की प्राप्ति होती है (९/२१)। भोग भोगने की विवशता होने के कारण चित्त में आनन्द नहीं होता। आनन्द की प्राप्ति तो तभी होती है जब जीवात्मा अपने आत्म-स्वरूप में ही स्थित हो जाय। यह स्थिति तभी प्राप्त होती है, जब स्वेच्छा से और प्रयत्नपूर्वक कर्मों को करके, उनके फलों को स्वयं भोगने की इच्छा का सर्वथा त्याग करके, परमात्मा को समर्पित कर दिया जाय। इस प्रकार के कर्म न तो देवयोनि में हो सकते हैं और न निम्न योनियों में। कर्मफल का त्यागकर, पूर्णरूप से स्वतंत्र होना मनुष्य-योनि में ही सम्भव है।
इस प्रकार विचार करने से यह ज्ञात होगा कि मनुष्य-योनि कितनी द योनि है। जीव के प्रति परमात्मा की आत्यन्तिक, अनुग्रहपूर्ण प्रेम दृष्टि मे इसकी प्राप्ति होती है। इसीलिये तुलसीदास जी ने कहा है -
बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा ॥
दो० - सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ। कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ ॥
अर्थात "बडे भाग्य से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही का है कि यह शरीर देवताओं को भी दर्लभ है (कठिनता से मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिय वह परलोक में दुःख पाता है. सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा (अपना दोष समझकर) काल पर, कर्म पर और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है।"
(उत्तरकाण्ड दो० ४३ चौ०४१
प्र.८) मनुष्य-योनि में जन्म कब प्राप्त होता है?
जब मनुष्य-योनि के अतिरिक्त अन्य योनियों में कर्मफल भोग करते. करते जीव कर्म-बन्धन के कारण अत्यन्त दुःखी हो जाता है, तब उसे बोध होत है कि कर्मफल भोग की विवशता कितनी कष्टकर और यातनामयी है। जा यह दुःख पराकाष्ठा" को प्राप्त होता है, तब वह कातर होकर परमात्मा से प्रार्थन करता है - "हे भगवान् ! अब तो कृपा करके मुझे इस कर्म-बन्धन से मुक्त होते का अवसर किसी न किसी प्रकार दे ही दीजिये, जिससे मैं आपके चरणों का स्मरण करके इस संसार बन्धन से मुक्त हो जाऊँ।" जीव की कातर पुकार सुनकर परम करुणामय भगवान् कृपा करके उसे मनुष्य-शरीर दे देते हैं। इसी के लिये तुलसीदास जी कहते हैं -
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही ॥ नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ॥ करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ॥
6. merciful
7. torturous
8. extreme
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ॥
अर्थात् "बिना ही कारण स्नेह करने वाले ईश्वर कभी विरले ही दया करके इसे मनुष्य का शरीर देते हैं। यह मनुष्य का शरीर भवसागर (से तारने) के लिये बेड़ा (जहाज) है। मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है। सद्गुरु इस मज़बूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं। इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभहोकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गये हैं।
जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मन्द-बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है।"
(उत्तरकाण्ड दो० ४४ चौ० ३,४)
इस प्रकार देखा जाय तो मनुष्य-जीवन का उत्कृष्टतम् उपयोग यही है कि जितना शीघ्र हो सके, उसे योग-साधन में लगा कर जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त कर लें। बन्धन से मुक्त होकर ही पूर्णरूप से स्वाधीन हुआ जा सकता है
(६/२१-२३) ।
प्र.९) जन्म-मृत्यु के चक्र से छूटकर अपने स्वरूप में स्थित होने के लिये सामान्य जीवन जीते हुए मनुष्य द्वारा कौन सा साधन अपनाया जा सकता है?
उ.) स्वरूप में स्थित होने के लिये सर्वप्रथम तो आत्मा और शरीर की पृथक् सत्ता का बोध निश्चित् रूप से होना चाहिये। किन्तु केवल बोध हो जाने से ही ध्येय की प्राप्ति निश्चित् नहीं हो जाती। इसकी प्राप्ति के लिये जो साधन किया जाता है उसे ही 'योग' कहा जाता है। वह योग मुख्य रूप से तीन प्रकार का होता है - ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग। इनमें से भक्तिमिश्रित-कर्मयोग सामान्य सांसारिक गृहस्थ जीवनयापन करते हुए भी अत्यन्त सुगम है। इसमें किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं है। यदि पूर्वकर्मानुसार कोई शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट प्राप्त हो भी जाय, तो योग की सहायता से वह भी उपयोग की साधन-सामग्री बन जाता है। किन्तु इसके लिये आवश्यक यह है कि मनुष्य-जीवन में यौवन में पदार्पण करते ही शीघ्रातिशीघ्र मनुष्य अपना कष्ट निवारण करने की इच्छा को दृढ़तापूर्वक धारण करने की अपने ऊपर कृपा करे। अपने ऊपर कृपा करते ही भगवत्कृपा अवतरित होती है। भगवत्कृपा होते ही भगवान अपने आपको गुरु-रूप में ऐसे मनुष्य के सामने प्रस्तुत कर देते हैं और इस प्रकार मनुष्य को गुरु-कृपा प्राप्त हो जाती है। गुरु की कृपा से मनुष्य का संबंध किसी न किसी शास्त्र से हो जाता है और इस प्रकार मनुष्य को गुरु और शास्त्र से जो निर्देश प्राप्त होते हैं, वे उसे स्वरूप साक्षात्कार के मार्ग पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ कर देते हैं। यदि हमें किसी भी प्रकार गीता, रामायण, श्रीमद्भागवत, उपनिषद् इत्यादि कोई भी शास्त्र प्राप्त हो गया है, तो हमें निश्चिन्त हो जाना चाहिये कि हमें गुरु-कृपा और भगवत्कृपा पूर्णरूपेण प्राप्त हो गयी और अब अत्यन्त सुखपूर्वक कल्याण-प्राप्ति में हमारा मार्ग स्पष्ट हो गया है। इस प्रकार निश्चिंत होकर तुरन्त साधन में तत्परता से लग जाना चाहिये.