क्यों रोजाना सुबह पवित्र गंगाजल का चरणामृत लेना चाहिये ?
Why should one take Charanamrit of Holy Ganga water every morning?
SPRITUALITY


क्यों रोजाना सुबह गंगाजलका चरणामृत लेना चाहिये
परमात्माके सिवाय दूसरी कोई चीज हमारी थी नहीं, है नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं । वह परमात्मा सब जगह है‒यह बात दिनमें बार-बार याद करनी चाहिये ।
गंगाजल दिव्य जल है । यह महान् पवित्र है । सब लोगोंको रोजाना सुबह गंगाजलका चरणामृत लेना चाहिये । उसका असर दिनभर रहता है । मेरे विद्यागुरुने कानपुरकी एक बात बतायी कि एक मुसलमानने गलेमें एक छोटी-सी शीशी बाँध रखी थी । उससे पूछा कि इसमें क्या है ? तो उसने कहा कि इसमें गंगाजल है । सुनकर आश्चर्य हुआ कि मुसलमानका गंगाजलसे क्या सम्बन्ध ! इसको तो हिन्दू मानते हैं । उस मुसलमानसे इसका कारण पूछा तो उसने कहा कि एक दिनकी बात है, मैंने देखा कि कोई हिन्दू लोटा-धोती लेकर गंगामें स्नानके लिये जा रहा था । वहाँ मुझे दो यमदूत दिखायी दिये । वे यमदूत पहले मेरे दोस्त थे और उनकी बहुत पहले मौत हो चुकी थी । उनको देखकर मैं डर गया तो वे बोले कि हम मरनेके बाद यमराजके दूतोंमें भरती हो गये हैं, तुम हमसे डरो मत । यह जो आदमी लोटा-धोती लेकर जा रहा है, यह अब मरनेवाला है । इसीको लेनेके लिये हम आये हैं । मैंने कहा कि यह तो बिलकुल ठीक है, यह कैसे मरेगा ? उन यमदूतोंने कहा कि तुम खुद देख लेना । गंगाके किनारेकी रेतपर एक साँड़ खेल रहा था, रेत उछाल रहा था । उन दोनों यमदूतोंर्मेसे एक यमदूत छोटा-सा बनकर उस साँड़के सींगपर बैठ गया । साँड़ भागते हुए आया और उसने अपने सींगोंसे उस आदमीकी छातीपर वार करके उसको मार दिया । उसके मरनेके बाद वे यमदूत मेरेसे बोले कि हम तो उसको लेनेको आये थे, पर ले नहीं जा सके ! अब यह यमराजके पास नहीं जायगा । कारण यह हुआ कि साँड़के सींगमें गंगाकी रेत लगी थी, जो उसके पेटमें चली गयी । इसलिये यह नरकोंमें नहीं जा सकता । इस घटनाका मेरेपर इतना असर पड़ा कि मैंने एक शीशीमें गंगाजल भरकर गलेमें बाँध लिया कि न जाने कब मौत आ जाय । मरते समय गंगाजल भीतर चला जायगा तो यमराजके पास नहीं जाना पड़ेगा ।
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे
यह ब्लॉग https://satcharcha.blogspot.com से है. यह विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. स्वामीजीका जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।