क्यों रोजाना सुबह पवित्र गंगाजल का चरणामृत लेना चाहिये ?

Why should one take Charanamrit of Holy Ganga water every morning?

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यह ब्लॉग https://satcharcha.blogspot.com से है. यह विचार स्वामी रामसुखदास जी के है.

4/26/20241 min read

क्यों रोजाना सुबह गंगाजलका चरणामृत लेना चाहिये

परमात्माके सिवाय दूसरी कोई चीज हमारी थी नहीं, है नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं । वह परमात्मा सब जगह है‒यह बात दिनमें बार-बार याद करनी चाहिये ।

गंगाजल दिव्य जल है । यह महान् पवित्र है । सब लोगोंको रोजाना सुबह गंगाजलका चरणामृत लेना चाहिये । उसका असर दिनभर रहता है । मेरे विद्यागुरुने कानपुरकी एक बात बतायी कि एक मुसलमानने गलेमें एक छोटी-सी शीशी बाँध रखी थी । उससे पूछा कि इसमें क्या है ? तो उसने कहा कि इसमें गंगाजल है । सुनकर आश्चर्य हुआ कि मुसलमानका गंगाजलसे क्या सम्बन्ध ! इसको तो हिन्दू मानते हैं । उस मुसलमानसे इसका कारण पूछा तो उसने कहा कि एक दिनकी बात है, मैंने देखा कि कोई हिन्दू लोटा-धोती लेकर गंगामें स्नानके लिये जा रहा था । वहाँ मुझे दो यमदूत दिखायी दिये । वे यमदूत पहले मेरे दोस्त थे और उनकी बहुत पहले मौत हो चुकी थी । उनको देखकर मैं डर गया तो वे बोले कि हम मरनेके बाद यमराजके दूतोंमें भरती हो गये हैं, तुम हमसे डरो मत । यह जो आदमी लोटा-धोती लेकर जा रहा है, यह अब मरनेवाला है । इसीको लेनेके लिये हम आये हैं । मैंने कहा कि यह तो बिलकुल ठीक है, यह कैसे मरेगा ? उन यमदूतोंने कहा कि तुम खुद देख लेना । गंगाके किनारेकी रेतपर एक साँड़ खेल रहा था, रेत उछाल रहा था । उन दोनों यमदूतोंर्मेसे एक यमदूत छोटा-सा बनकर उस साँड़के सींगपर बैठ गया । साँड़ भागते हुए आया और उसने अपने सींगोंसे उस आदमीकी छातीपर वार करके उसको मार दिया । उसके मरनेके बाद वे यमदूत मेरेसे बोले कि हम तो उसको लेनेको आये थे, पर ले नहीं जा सके ! अब यह यमराजके पास नहीं जायगा । कारण यह हुआ कि साँड़के सींगमें गंगाकी रेत लगी थी, जो उसके पेटमें चली गयी । इसलिये यह नरकोंमें नहीं जा सकता । इस घटनाका मेरेपर इतना असर पड़ा कि मैंने एक शीशीमें गंगाजल भरकर गलेमें बाँध लिया कि न जाने कब मौत आ जाय । मरते समय गंगाजल भीतर चला जायगा तो यमराजके पास नहीं जाना पड़ेगा ।

‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे

यह ब्लॉग https://satcharcha.blogspot.com से है. यह विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. स्वामीजीका जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।