क्या भगवान के और वेद के यह दो वचन एक दूसरे के विपरीत हैं? – प्रेमानंद जी महाराज का जवाब

क्या भगवान के वचन और वेदों के वचन एक-दूसरे के विपरीत हो सकते हैं? जानिए श्री प्रेमानंद जी महाराज का संतुलित और गूढ़ उत्तर। वेद और भगवान के वचनों की एकता, गुरु का महत्व, और जीवन में इनकी प्रासंगिकता पर विस्तार से पढ़ें। यह लेख आपको आध्यात्मिक दृष्टि से समृद्ध करेगा और आपके सभी संदेह दूर करेगा।

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6/3/20251 min read

प्रश्न : भगवद्गीता में भगवान् श्री कृष्ण द्वारा कहा गया "ममेवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः" (गीता 15.7) और वेदांत/ब्रह्मसूत्र का "ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या" – क्या ये दोनों वचन एक-दूसरे के विरोधी हैं? क्या संसार मिथ्या है या भगवान की लीला भूमि का विकृत प्रतिबिंब?

Shri Hit Premanand Govind Sharan Ji Maharaj का उत्तर:

1. ज्ञान की पद्धति – अन्वय और व्यतिरेक

Premanand Ji Maharaj स्पष्ट करते हैं कि ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए 'अन्वय' (जो है) और 'व्यतिरेक' (जो नहीं है) की पद्धति अपनाई जाती है। जैसे गणित में किसी प्रश्न को हल करने के लिए पद्धति होती है, वैसे ही तत्वज्ञान में भी। वेदांत कहता है – "ब्रह्म सत्यम्, जगन्मिथ्या"। इसका अर्थ यह नहीं कि संसार का अस्तित्व ही नहीं है, बल्कि यह है कि जो हम देख रहे हैं, वह मायिक (माया से बना) है, अस्थायी है, त्रिकाल सत्य नहीं है.

2. संसार की अस्थिरता और ब्रह्म की सत्यता

महाराज जी उदाहरण देते हैं – जैसे स्वप्न में देखी गई वस्तुएं असली नहीं होतीं, वैसे ही यह जगत भी अस्थायी है। "ना सतो विद्यते भावो, ना भावो विद्यते सतः" (गीता 2.16) – असत्य का कभी अस्तित्व नहीं होता, और सत्य का कभी अभाव नहीं होता। जो त्रिकाल (तीनों कालों) में सत्य है, वही ब्रह्म है। बाकी सब, जो बदल रहा है, वह मिथ्या है – यानी अस्थायी, परंतु इसका अर्थ 'शून्य' या 'अस्तित्वहीन' नहीं है।

3. सब कुछ ब्रह्म ही है – अद्वैत का सिद्धांत

जब साधक तत्वज्ञान में स्थित हो जाता है, तब उसे अनुभव होता है – "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" (सब कुछ ब्रह्म है, ब्रह्म के सिवा किंचित भी नहीं)। प्रारंभ में भेद (द्वैत) दिखता है, परंतु ज्ञान के चरम पर सब एक ही ब्रह्मरूप दिखता है। माया के कारण ही भेद-बुद्धि है। जब तत्वज्ञान हो जाता है, तब विकार, द्वैत, काम, क्रोध, लोभ आदि स्वतः समाप्त हो जाते हैं.

4. वेदों में भी साकार और निराकार दोनों की स्वीकृति

वेदों में ब्रह्म को निराकार (निरगुण) और साकार (सगुण) दोनों रूपों में स्वीकार किया गया है। वेदांत (उपनिषद) में 'नेति-नेति' (यह नहीं, यह नहीं) कहकर ब्रह्म की अपरिभाषितता बताई गई है, परंतु वेदों में साकार देवताओं (जैसे वरुण, विष्णु, अग्नि) की भी स्तुति है – अर्थात् ब्रह्म के दोनों स्वरूप स्वीकार हैं।

5. भक्ति मार्ग में भगवान की लीला भूमि

Premanand Ji Maharaj के अनुसार, भक्ति मार्ग में संसार को भगवान की लीला भूमि के रूप में देखा जाता है। भक्त की दृष्टि में यह जगत मिथ्या नहीं, बल्कि भगवान की लीला का मंच है। जब तक माया का पर्दा है, तब तक भेद है; जब पर्दा हटता है, तो सब ब्रह्म ही ब्रह्म है। इसलिए वेद और भगवान के वचन विरोधी नहीं, बल्कि एक ही सत्य के दो दृष्टिकोण हैं – ज्ञान मार्ग और भक्ति मार्ग।

निष्कर्ष:
वेदों का 'ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या' और भगवान का 'ममेवांशो जीव लोके' – दोनों ही सत्य हैं, बस दृष्टिकोण का अंतर है। ज्ञान मार्ग में जगत को अस्थायी मानकर ब्रह्म की खोज होती है, जबकि भक्ति मार्ग में जगत को भगवान की लीला भूमि मानकर प्रेम किया जाता है। दोनों में विरोध नहीं, बल्कि परिपूर्णता है1356

Premanand Ji Maharaj का संदेश

  • "सच्चा तत्वज्ञान प्राप्त करने के बाद, सब कुछ ब्रह्म ही दिखता है। माया के पर्दे में भेद है, ज्ञान के प्रकाश में अद्वैत है। भक्ति में भगवान की लीला भूमि का आनंद है, ज्ञान में ब्रह्म की अखंडता का अनुभव। दोनों मार्ग एक ही सत्य की ओर ले जाते हैं।"

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