जैसे जिसके भाव होते हैं उसके वैसे ही परमाणु नित्य-निरन्तर निकल-निकलकर जगत्में फैलते रहते हैं।
As per the feelings of a person, similar atoms keep on continuously coming out and spreading in the world.
SPRITUALITY


६५-जैसे जिसके भाव होते हैं उसके वैसे ही परमाणु नित्य-निरन्तर निकल-निकलकर जगत्में फैलते रहते हैं। जहाँ-जहाँ अनुकूल भाव मिलते हैं, वहाँ-वहाँ (उनको पुष्ट करते हैं तथा स्वयं) पुष्ट होते हैं और प्रतिकूल भावोंको नष्ट करते हैं। (तथा उनसे दुर्बल होनेपर स्वयं नष्ट होते हैं) अच्छे संगमें रहनेका यही तो रहस्य है कि वहाँ अच्छे परमाणु प्राप्त होंगे।
६६-प्रत्येक व्यक्तिमें जो चीज होती है, वह उसके बाहर आती है।
मजातीय परमाणु उसको बड़ी तीव्रतासे खींचते हैं। विचारोंकी लहरियाँ बाहर जाती हैं और सजातीय लहरियोंको प्रबल करती हैं।
६७-परमाणुओंका बड़ा असर होता है। कुर्सी, मेज, दीवाल
आदिपर भी परमाणुओंका प्रभाव होता है। आप किसी ऐसे मकानमें रहें, जहाँ अधिक दिन मांसाहारी रहे हों तो वहाँ रहनेसे आपके मनमें भी मांस आदिके संस्कार उठने सम्भव हैं।
६८-जानना वही सार्थक है, जो करके जान लिया जाय।
६९-अपनी इच्छाको प्रधानता देना- भजन-मार्गका बड़ा भारी विघ्न है। इससे भगवान्की आत्मीयतामें, भगवान्की सौहार्दतामें विश्वास नहीं रहता।
७०-शुद्ध होनेका बड़ा बखेड़ा है। भगवान्के स्वीकार किये बिना हम शुद्ध नहीं होंगे और शुद्ध हुए बिना भगवान् हमें अपनायेंगे नहीं-
तब तो हमारा अपनाना कभी होगा ही नहीं। पर बात ऐसी नहीं है। माँकी गोद बच्चेकी शुद्धि नहीं चाहती, वह तो बच्चेका आकर्षण चाहती है। बच्चेके आकर्षणसे माँ दौड़कर आयेगी और उसे उठा लेगी तथा फिर अपने-आप उसे धो-पोंछकर निर्मल भी बना देगी। अतः बच्चा बनना चाहिये। शुद्धिके फेरमें पड़े रहना बड़े लम्बे रास्तेको पकड़ना है।
७१-इस प्रकृतिस्थ शरीरका क्या स्वस्थ होना है; यह तो सर्वदा अस्वस्थ ही है। जन्म-मरण, जरा-व्याधि इसके लगी ही रहती हैं। नित्य एक रस तो आत्मा है, वह सदा स्वस्थ है, उसमें कोई विकार नहीं। यह शरीर जब मर सकता है और मरता है तब इसमें व्याधि, जरा आदि भी हो सकती है।
७२-जो परिस्थिति हो, उसीका सदुपयोग कीजिये और कुछ करनेकी आवश्यकता नहीं। बस, निश्चय रखिये - भगवान् जो करा रहे हैं, वही करा रहे हैं, अपनेपनका अभिमान क्यों लाते हैं? सांसारिक दृष्टिमें जब एक छोटे बालकको बुद्धिमान् पुरुष एक सेर, दो सेर, पाँच सेर ही उठानेको कहेगा मन-दो-मन नहीं, तब बुद्धिके परम कारण भगवान् तो सब जानते हैं। वे कब कहेंगे, यह करो, वह करो, जो तुम्हारी सामर्थ्यके बाहर है वे तो कहते हैं- जितना तुम कर सको आसानीसे करो। पर करो ईमानदारीसे। उसमें कुछ बचाकर-छिपाकर मत रखो।
७३-भगवन्नामकी वास्तविक महिमा क्या है, कोई कह नहीं सकता। वह अचिन्त्य है, अनिर्वचनीय है। नामकी महिमा लोगोंने जो गायी है, वह तो कृतज्ञ-हृदयके उद्गारमात्र हैं। अर्थात् जिन महापुरुषोंको नामसे अशेष लाभ हुए हैं, उन्होंने उन अशेष लाभोंको लक्ष्यमें रखकर भगवन्नामकी महिमा गायी है।
७४-नामके विषयमें इसके आगे क्या कहूँ, तुलसीदासजीने कलम तोड़ दी-
राम न सकहिं नाम गुन गाई।
७५-जो लोग सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिमें ही भगवत्कृपा मानते हैं, वे दीन हैं।
७६-हमारे देहका बीज है हमारे कर्म और यह बना हुआ है उन पदार्थोंसे जो प्रकृतिके विकार हैं। इसमें देह और देहीका भेद है। एक देहका कर्मफल पूरा होनेसे जीवात्मा उस देहसे अलग हो जाता है आक अपने अन्य कर्मोंके अनुसार दूसरे देहको प्राप्त होता है। पर भगवद्देह कर्मजन्य नहीं है; किन्तु साथ ही वह देखनेमात्रका ही नहीं, वह नित्य है, सत् है, वह जन्मने-मरनेवाला नहीं; वह अधिकारी है। उसमें देह-देहीका भाव नहीं। वह सच्चिदानन्दस्वरूप है। जिसके जन्मका मर्म जान लेनेपर जाननेवालेका जन्म होना बन्द हो जाता है, वह बड़ा अनोखा जन्म है और जिसके कर्मोंका मर्म जाननेसे अनन्त कर्म-बन्धन कट जाते हैं, वे कर्म भी अनोखे ही हैं। भगवान्का स्वरूप प्रकट होता है बनता नहीं।
७७-जहाँ हम भगवान्के स्वरूपको मानते हैं; वहाँ धामको मानना ही होगा। जब स्वरूप नित्य है तब धाम भी नित्य है, अनिर्वचनीय है। उसका रहस्य भी उतना ही गुप्त है, जितना कि नामका और स्वरूपका।
७८-भगवान्के विषयमें जो कुछ वर्णन है, वह हमारे लाभके लिये, हमारे उद्धारके लिये, तो ठीक है, पर यह कोई नहीं कह सकता कि वह बस, उतना ही है। भगवान्की कृपा होनेपर उनका उतना रहस्य, जितना वे चाहते हैं, भक्तके सामने प्रकट होता है।
७९-भगवान्को जिसने जब जान लिया, उसके बाद वह भगवान्में प्रवेश कर गया। भगवान्के साथ उसका ऐसा ऐक्य हो गया कि वह फिर बताता नहीं कि भगवान् ऐसे हैं, भगवान्का प्रभाव ऐसा है।
८०-लौकिक जेलखानोंकी भाँति नरकमें पाप नहीं बनते। वहाँ पाप-फलभोग होता है, नवीन पाप नहीं होता। नरकके प्राणी अपने कियेपर पछताते हैं और आगे वैसा न करनेकी प्रतिज्ञा करते हैं।
८१-शुद्ध भावोंका, शुद्ध विचारोंका, शुद्ध कर्मोंका आधार है भगवद्भाव। भगवद्भाव मूल है और वे सारे उसके शाखास्वरूप हैं, पल्लवस्थानीय हैं। बिना भगवद्भावके शुद्ध विचार मनमें कभी टिक नहीं सकते।
८२-असली जप, असली पाठ वही है, जिसमें चित्त तदाकार हो जाय।
८३-मनमें यदि भोग है तो मन्दिरमें जाकर भी हम भोगोंको ही पूजेंगे। वहाँ जाकर हम केवल देखेंगे - भगवान्के क्या गहना है, कैसी पोशाक है?
८४-क्यों, क्या, कब छूटे बिना निर्भरता होती ही नहीं, पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि हम आलसी बन जायें। आलस्य तो तमोगुण है और निर्भरता सत्त्वगुणका विशिष्ट स्वरूप।
८५-निर्भर भक्तिमें कुछ करना नहीं पड़ता। बस, केवल निर्भरताको अपने जीवनमें उतारना पड़ता है। इस भक्तिमें हमारे सामने आदर्श है शिशु। xxxx छोटा बच्चा माँकी मारसे बचनेके लिये भी माँकी ही गोदमें घुसता है। जो इस प्रकार निर्भर है भगवान्पर, वही वास्तविक निर्भर है।
८६-शरणागति बिना निर्भरताके नहीं हो सकती। कोई साधन, कोई विवेक, कोई कार्य शरणागतिमें अपने पास न रह जाय । शरणागत सब बातोंसे मुक्त है, पर है वह परतन्त्र - अपने स्वामीका सदा सेवक। उसने अपने-आपको अपने स्वामीके हाथों बेच दिया है और इस भगवत्परतन्त्रताको वह किसी वस्तुके एवजमें-किसी भी मूल्यपर बेचना नहीं चाहता। यह अपने इस पारतन्त्र्यको बहुत ही उत्तम वस्तु मानता है, वह उसे निरन्तर चाहता रहता है।
८७-भगवान्की आवश्यकता बढ़नेसे भगवान्का प्रेम प्राप्त होता है। जितनी आवश्यकता बढ़ेगी, उतनी ही साधना होगी- यह सिद्धान्त है, इसको कोई काट नहीं सकता। जब धनके लिये लोग आवश्यकता समझते हैं, तब घर छोड़ते हैं। और आजकल तो धर्म भी छोड़ते हैं, यहाँतक कि ईश्वरको भी छोड़ देते हैं। इसी प्रकार ईश्वरकी आवश्यकता होनेपर कोई भी चीज बाधा नहीं दे सकती। सभीका त्याग अनायास हो जायगा। आवश्यकता होनेपर अपनी ओरसे यथासामर्थ्य साधन होगा ही। यथासामर्थ्य साधन करनेपर भी भगवान् न मिलेंगे तो भयानक तड़पन होगी और वह तड़पन ही भगवान्को मिला देगी-बस, यही कहना है।