विपत्तिमें हार तभीतक होती है, जबतक मनुष्य उससे डरता है

Defeat in adversity occurs only as long as a man is afraid of it

SPRITUALITY

आदरणीय परम पूज्य श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी की लाभदायक पुस्तक 'सत्संग के बिखरे मोती '

2/5/20251 min read

७८-विपत्तिका पार पाना क्या है? उसका असर हमपर न हो, विपत्तिमें हम हार न मानें, भय न मानें फिर चाहे स्वरूपतः वह बनी रहे।

७९-विपत्तिमें हार तभीतक होती है, जबतक मनुष्य उससे डरता है।

८०-सुखके समय चाहे माँ बच्चेको अलग रख दे, पर दुःखके समय तो वह उसे अपनी गोदसे अलग नहीं रख सकती। उस समय तो उसका स्नेह उसपर और भी अधिक रहता है। इसी प्रकार विपत्तिके समय भगवान् हमारे साथ रहते हैं। उनके सान्निध्यका अनुभव करना चाहिये।

८१-जगत् जब किसी साधकको जागतिक सम्मानसे वंचित करता है, तभी उसके यथार्थ सौभाग्यका उदय होता है और जब जगत् उसका उच्च आसनपर वरण करता है, तब उसका दुर्भाग्य प्रकट होता है।

८२-साधकके लिये जागतिक सुख पतनका साधन है और जागतिक दुःख उत्थानका। सिद्धके लिये दोनों एक-से हैं; वह सुख-दुःख दोनोंमें भगवान्के समान दर्शन करता है।

८३-विपत्तिमें जहाँ हमें डर होता है, वहाँ हम भगवान्पर संशय करते हैं, भगवान्का अपमान करते हैं, क्योंकि वहाँ हम भगवान्‌के सान्निध्यको ठुकरा देते हैं।

८४-जीवनका चरम लक्ष्य होना चाहिये- भगवान्‌के श्रीचरणोंकी प्राप्ति और इसीको मानना चाहिये परम पुरुषार्थ। जितने भी पुरुषार्थ हैं- प्राप्त करनेयोग्य पदार्थ हैं, वे सभी गिरानेवाले हैं। जबतक यह निश्चय नहीं होता कि भगवान्‌को प्राप्त करना ही परम पुरुषार्थ है तथा यही जीवनका चरम लक्ष्य है, तबतक मनुष्य कहीं भी शान्ति प्राप्त नहीं करता।

८५-भगवान्के चरणोंको पानेकी अनन्य लालसा ही जीवनका चरम और परम ध्येय है। भगवान्‌की प्राप्ति सहज है, पर उनके चरणाश्रयको प्राप्त करनेकी लालसा बड़ी दुर्लभ है।

८६-भगवान्‌को जाननेकी इच्छा न होकर इच्छा होनी चाहिये भजन करनेकी, चरणोंका आश्रय ग्रहण करनेकी। हमारा काम भगवान्‌को जानना नहीं, पाना है और पाना होता है भजनसे, भगवान्‌के चरणोंकी कृपासे । ×××× राजाको जान लेनेसे कुछ हाथ नहीं लगता; पर यदि उनसे प्रेम हो जाय तो काम बन जाता है। इस प्रकार जो केवल तर्क-युक्तके द्वारा भगवान्‌को जाननेकी इच्छा करनेवाले हैं, उनके कुछ हाथ नहीं लगता। अतएव भगवान्‌को जाननेकी, रहस्यमें प्रवेश करनेकी इच्छाको छोड़कर भजनमें लगना चाहिये। भजन करनेसे हमारे लिये जो जानना आवश्यक होगा, वह भगवान् अपने-आप जना देंगे और वही जानना यथार्थ जानना होगा। 'सोइ जानइ जेहि देहु जनाई।'

८७-दुःख क्या है?- भगवान्‌के परमानन्दस्वरूपमें विश्वास न होना और जगत्‌के क्षुद्र पदार्थोंमें सुखके लोभसे आसक्त होना।

८८-जो भगवान्‌के हैं, जो भगवान्‌के हो गये हैं, जिनको भगवान्‌का एकमात्र आश्रय है; ऐसे जो भी हैं- चाहे पक्षी हों, पशु हों, बालक हों, वृद्ध हों- उन सबका भार भगवान्पर रहता है। उनको कब किस वस्तुकी आवश्यकता है, इसकी जाँच करेंगे भगवान् और पूर्ति करेंगे भगवान् ।

८९-जिन लोगोंने श्रीकृष्णके चरणोंका स्पर्श पा लिया है, उनकी तो बात ही क्या है; जिन्हें यह निश्चय हो गया है कि बहुत लम्बे कालके बाद उनको श्रीकृष्णके चरणोंका स्पर्श प्राप्त होगा, उनपर भी विषय-विषका प्रभाव नहीं हो सकता। जिसको भगवान्‌के चरणोंका नखाग्र भी प्राप्त हो गया या प्राप्त होगा, उनको जगत्का विष नहीं व्याप सकता।

९०-जितने और अवतार हैं, उनमें भगवान् परवश नहीं, स्ववश हैं, पर इस श्रीकृष्णावतारमें वे भृत्यपरवश हैं, अर्थात् अपने प्रेमियोंके प्रेमके वशमें रहते हैं और वे कहें सो करते हैं।

९१-जो सबका आकर्षण कर ले, यहाँतक कि जीवन्मुक्त पुरुषोंके चित्तको भी हर ले उसका नाम है 'कृष्ण'। भगवान् श्रीकृष्ण ऐसे ही हैं। इसीसे उनका एक नाम है 'आत्मारामगुणाकर्षी'। उनके गुण ही

ऐसे हैं, जो आत्माराम महापुरुषोंको भी अहेतुक प्रेमके लिये बाध्य कर देते हैं।

आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे । कुर्वन्त्यहैतुकी भक्तिमित्थंभूतगुणो हरिः ॥

९२-आकाशमें पक्षी उड़ता है, उसको पिंजड़ेमें बन्द करना बड़ा सुन्दर लगता है, पर उसे पकड़ा कैसे जाय ? जो उसे पकड़नेका कौशल जानते हैं, उनके पास जाकर प्रार्थना की जाय तो उसे पकड़नेमें सफलता मिल सकती है। इस प्रकार भगवान्के नित्य पार्षद प्रेमी भक्तोंकी सहायताके बिना श्रीकृष्ण चरणोंकी सेवाका अधिकार प्राप्त करना बड़ा कठिन है।

९३-दुर्भाग्य क्या है? दुर्घटना क्या है? दुर्दैव क्या है? किसीके पास धन नहीं रहा, किसीके चोट लग गयी यह दुर्घटना नहीं, किसीकी सम्पत्तिका नाश हो गया, यह दुर्भाग्य है- दुर्दैव नहीं, श्रीकृष्णको छोड़कर किसी भी जागतिक वस्तुके प्रति मनका अभिनिवेश होना, प्रेम होना-यही दुर्भाग्य, दुर्दैव एवं दुर्घटना है। दूसरे दुर्भाग्य-दुर्दैव, दुर्घटना आदि तो होते रहते हैं, आते-जाते हैं, पर मनुष्य होकर भी जो श्रीकृष्णको छोड़कर विषयोंसे प्रेम करता है, यह उसके लिये सबसे बड़ी दुर्घटना, दुर्दैव या दुर्भाग्य है।

९४-सबके प्रेमका पात्र आत्मा है। आत्माको जो वस्तु अनुकूल हो, जिस वस्तुसे आत्माको सुख मिलता दीखता हो, उसीमें प्रेम होता है। पुत्र आदिमें जो प्रेम है, आत्मीयता है, वह आत्माको लेकर ही। पुत्र आदि सब सुखके पात्र होनेपर भी उनके लिये कोई प्रेम नहीं करता; प्रेम किया जाता है अपने सुखके लिये, अपनी तृप्तिके लिये। आत्माका अनादर करके, आत्माके सुखकी परवा न करके आत्मीयोंसे कोई प्रेम नहीं करता। आत्मज्ञान होनेपर ही कोई आत्मासे प्रेम करे, यह बात नहीं है, आत्मासे प्रेम स्वाभाविक होता ही है, अत्यन्त मूढ़ एवं अज्ञानी भी आत्मासे प्रेम करता है।

अलग-अलग भावोंसे और अलग-अलग प्रयोजनोंसे हम बहुतोंको प्रेम करते हैं; किन्तु अपनेमें जो प्रेम होता है, उसमें प्रयोजनका अन्तर नहीं, भावका अन्तर नहीं। श्रीकृष्ण आत्माके आत्मा हैं, अतः उनमें जो प्रेम होता है, उसमें न तो स्वतन्त्र भाव है, न तो स्वतन्त्र प्रयोजन।

जो श्रीकृष्णसे प्रेम करते हैं, उनका जो जगत्से प्रेम होता है, वह श्रीकृष्णको लेकर ही। यह नियम है, आत्मसम्बन्धशून्य प्रेम कहीं नहीं होता। श्रीकृष्ण आत्माके आत्मा हैं। अतएव जो श्रीकृष्णके प्रेमी हैं, वे यदि दूसरोंसे प्रेम करते हैं, तो श्रीकृष्णको लेकर ही।

जगत्में जितना प्रेम है, वह न चिरस्थायी है, न एक समान है और न एकमें है, पर आत्माका रूप चिरस्थायी, एक समान तथा एकमें है। श्रीकृष्णमें जिसका एक बार प्रेम हो गया है, वह एकमें हो गया, स्थायी हो गया तथा एक-सा हो गया। फिर वह श्रीकृष्णको छोड़कर अथवा अलग किसी प्रयोजनसे किसीको प्रेम नहीं करता।

९५-जो असत् उपायोंसे असत् वस्तुको पाना चाहते हैं-जैसे चोरी-डकैती आदि करके क्षणभंगुर धनादिकी इच्छा करते हैं, वे जघन्य जीव हैं, उनकी बात छोड़ दी जाय। पर जो स्त्री, धन, पुत्र आदि असत् वस्तुओंको शास्त्रानुसार सकाम कर्मके द्वारा प्राप्त करना चाहते हैं, वे भी बहिर्मुख हैं और दुर्लभ मानव-जन्म खो रहे हैं। वे चिद्वस्तुको छोड़कर जडमें ही मस्त रहते हैं, जडमें ही प्रवृत्त रहते हैं, अतः वे सारत्यागी तथा असारग्राही हैं। इसके बाद वे पुरुष हैं, जो चिद्वस्तुके अनुसन्धानमें लगते हैं, विवेकके द्वारा जडका त्याग करके चित्‌के साथ तादात्म्य प्राप्त कर लेते हैं; वे असारके त्यागी हैं, पर सारग्रही वे भी नहीं हैं। ऐसे पुरुषोंको सारभूत अथवा सारभावी कहा जा सकता है, पर सारग्राही नहीं। किन्तु जो लोग तमाम इन्द्रियोंको भगवान्की भक्तिमें लगाना चाहते हैं और उसके द्वारा सारातिसार सच्चिदानन्दघन परात्पर श्रीकृष्णचन्द्रको सेव्यरूप या प्रियतमरूपसे ग्रहण करना चाहते हैं, वे ही यथार्थ सारग्राही हैं। उनके लिये सच्चिदानन्दधन सारवस्तु ही एकमात्र प्रयोजन है; भुक्ति-मुक्ति, सिद्धि आदि प्राप्त करना उनका प्रयोजन नहीं है। अतः उनका परम पुरुषार्थ मोक्ष नहीं, सच्चिदानन्दघनकी सेवा है- 'दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ।' ऐसे सेवाधिकारी भक्त सेवा छोड़कर अन्य कुछ भी-मोक्षतक भी स्वीकार नहीं करते, देनेपर भी नहीं लेते। ऐसे सारग्राहियोंकी वाणी लगी रहती है सच्चिदानन्दघन सारवस्तुके गुणोंके कथनमें, कान लगे रहते हैं उनके गुणोंके श्रवणमें तथा उनका चित्त लगा रहता है उस परात्परकी लीलाओंके अवलोकनमें।

जिनका सच्चिदानन्दघन वस्तुके साथ तादात्म्य हो गया है, जो उसमें मिल गये हैं, एकरूप हो गये हैं, उनमें सच्चिदानन्दघन चेतन-तत्त्वके सिवा कोई कामना या आकांक्षा नहीं होती, अतः वे सारभूत हैं। पर जो सारग्राही हैं- जिनका शरीर, मन, वाणी-तीनों चीजें लगी रहती हैं सच्चिदानन्दरूपकी सेवामें, वह नित्य आकांक्षी है, नित्य अतृप्ति है-सेवाकांक्षा है। ऐसे प्रेमियोंको सर्वदा सेवामें लगे रहनेपर भी सेवासे तृप्ति नहीं होती। उसकी सेवाकांक्षा कभी पूरी होती ही नहीं, उनकी चाह कभी मिटती ही नहीं। प्रेममें तृप्ति कहाँ है, अलम् कहाँ है, वह तो 'प्रतिक्षणवर्धमान' है। अतएव उनके स्वभावमें नित्य अतृप्ति रहती है। इसलिये सच्चिदानन्दघनकी लीला-कथा आदिमें डूबे रहनेपर भी उनके लिये वह लीला कथा कभी पुरानी नहीं होती। बच्चा नित्य वैसे ही खेलता है, नाचता है, पर माँके प्रेममें कभी तृप्ति होती है क्या? इसी प्रकार भगवान्‌की कथासुधा नित्य कानोंमें पड़ते रहनेपर भी आकांक्षा बनी ही रहती है और यह आकांक्षा और अतृप्ति लीला-कथाको कभी पुरानी तो होने देती ही नहीं, वरं लीला-कथाके श्रवणसे आकांक्षा एवं तृप्ति बढ़ती ही रहती है।

९६-जहाँ श्रोताके मनमें तर्क नहीं, विवाद नहीं, केवल रस पीनेकी इच्छा है और केवल उस रसको बढ़ानेके लिये ही प्रश्न है-वहीं वास्तवमें लीला-कथामें रस आता है।

९७- कथा - अन्तरंग रहस्य कथा वहींपर प्रकट होती है, जहाँ बक्ताके मनमें स्वतः श्रोताकी रुचि एवं इच्छा देखकर वस्तु जाग्रत हो आजाते है। कहनेवाले के पास बहुत चीजें हैं, पर श्रोताको साथ जाधव हो वे छिप जाती हैं, किन्तु एक समुदाय वह होता है, जहाँ बैठनेसे वक्ताके मनमें नयी-नयी बातें उदय होती हैं। जहाँ श्रवणका आग्रह है तथा निरन्तर कथा-श्रवण करनेपर भी जहाँ तृप्ति नहीं-खाये जायें और भूखे, खाये जायँ और भूखे-ऐसे समुदायमें वक्ताके मनमें अन्तरंग नवीन-नवीन कथाओंकी स्फूर्ति होती रहती है।

९८-भगवान्की लीला-कथा ही ऐसी है कि वह कैसे भी कानोंमें जाय, पाप-तापको नष्ट कर देती है, पर जो श्रीकृष्णके भक्त हैं, प्रेमी हैं, उनके मुखसे यदि कथा सुननेका सौभाग्य मिल जाय, वहाँ तो पाप-ताप रह ही नहीं सकते; क्योंकि उनका मन श्रीकृष्णके साथ जुड़ा रहता है। अतएव वे जो भी शब्द उच्चारण करते हैं, वह श्रीकृष्णकी प्रेरणासे ही।

९९-प्रेमी भक्त तन्मयतामें आनन्द उपलब्ध नहीं करते - तन्मयता योगियोंकी चीज है; वे तो लीला-कथाके श्रवण-कीर्तन आदिमें ही आनन्द लेते हैं।

१००-जो भगवान्के साथ सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं- भगवान् उनके पिता हैं, माता हैं, पुत्र हैं, भाई हैं- जो भगवान्‌को अपना परम आत्मीय मानते हैं तथा जो त्रिलोकीका राज्य तो क्या, मोक्षतकके लिये लीला-कथा सुनना छोड़ना नहीं चाहते, वे ही भागवतोत्तम हैं।

१०१-सत्संग दो प्रकारका है- (१) वह जिसके प्रभावसे अन्तः-करणके मलका नाश होता है, मन शुद्ध होता है, भगवद्भक्तिका -ज्ञानका उदय होता है तथा अन्तमें भगवान्‌की प्राप्ति होती है। यह परम्परासे मुक्ति देनेवाला सत्संग है। (२) दूसरा सत्संग वह है, जिसके एक लवमात्रके साथ मोक्षतककी तुलना नहीं की जा सकती।

पहली श्रेणीका सत्संग सम्मान्य सत्पुरुषोंका संग है, उनके प्रेमियोंका नहीं। दूसरे प्रकारका सत्संग भगवान्के संगीका संग है-

ऐसे संगीका जो नित्य भगवान्में आसक्तचित्त है; जिसका मन भगवान्‌के साथ नित्य सम्बद्ध है, जो भगवान्‌का वास्तविक प्रेमी है और जो अन्तरंग लीला-प्रसंगको जानता है। प्रेमके बिना अन्तरंगकी बात नहीं जानी जाती, अन्तरंगकी बात प्रेमीको केवल प्रेमसे ही ज्ञात होती है। अतएव भगवान्‌के अन्तरंग प्रेमी पुरुषोंसे भगवान्‌की जो बातें सुननेको मिलती हैं, उनके सामने मोक्ष कुछ नहीं।

१०२-देवमाया और असुरमाया वहीं चलती हैं, जहाँ भगवदाश्रय नहीं है। जो भगवान्‌के चिर आश्रित हैं, भगवान्‌के सखा हैं, उनपर देव-असुर कोई-सी माया नहीं चल सकती।

१०३-जो भक्त नहीं हैं, उनसे भगवान् अपनी लीला छिपाते हैं, भक्तोंके ही सामने भगवान्‌की लीला प्रकट होती है।

१०४-विपत्तिका ज्ञान बुद्धिको हर लेता है। बड़े-बड़े बुद्धिमानोंकी बुद्धि भी विपत्तिमें विलुप्त हो जाती है। भगवान् परम ज्ञानस्वरूप हैं; पर भक्तके विपत्तिलेशकी कल्पनामात्रसे वे भी बुद्धिरहित-से हो जाते हैं। उनमें अचिन्त्य अनन्त महाशक्तियाँ हैं, पर ऐसे अवसरपर वे अपनेको शक्तिहीन मानने लगते हैं और परम व्याकुल तथा परम चिन्तित हो जाते हैं। इसलिये वे बछड़ों तथा गोपबालकोंके ब्रह्माजीके द्वारा छिपा दिये जानेपर चिन्तामें डूबे हुए हैं। उस समय कोई उन्हें देखे तो ऐसा ज्ञात हो कि जैसे कोई छोटा-सा अज्ञ बालक खड़ा-खड़ा रो रहा है, शोक कर रहा है, वह व्यग्र बेसुध एवं व्याकुल है। जिन भगवान्की चरण-ज्योतिके लेश-भासके अंशमात्रसे सारी चिन्ताएँ सदाके लिये दूर हो जाती हैं, वे भगवान् स्वयं चिन्तित हो जाते हैं, अप्राकृतके परम सिंहासनसे उतरकर प्राकृतकी कोटिमें आ जाते हैं। भगवान्की प्रेमाधीनताका यही स्वभाव है।

१०५-प्रयोजन और वस्तुसंयोगके बिना अग्निकी शक्तिका प्राकट्य नहीं होता। व्रजवासी गोप-गोपियोंके प्रेमरूपी आवरणमें ज्योतिर्मय भगवान् छिपे हुए हैं; वहाँ बैठे हुए हैं, छोटे-से हैं, बाल-विग्रह हैं, प्रेम और आनन्दकी मूर्ति हैं। सर्वशक्तिमत्ता, अनन्त भागवती शक्तियाँ सच्चिदानन्दघनके इस मधुर मनोहर बालविग्रहमें विद्यमान हैं, परंतु प्रयोजन न होनेसे, आवश्यकता न होनेसे प्रकट नहीं होती।

१०६-मनुष्यमें जितनी शक्तियाँ हैं- देखने या सुनने आदिकी- सब मनके अधीन हैं। मनका संयोग न हो तो कोई भी शक्ति काम नहीं करती। आँखोंसे देखते रहनेपर भी यदि मन साथ नहीं है तो ज्ञान नहीं रहता, क्या देखा है। इसी प्रकार भगवान्‌की समस्त सर्वज्ञता, सर्वनियन्तृता आदि शक्तियाँ लीलाशक्तिके अधीन हैं। लीलाशक्ति एवं कृपाशक्तिके प्राकट्यके लिये, उनके सहयोगके लिये ही अन्य सब शक्तियाँ प्रकट होती हैं।

१०७-भगवान्के सभी कार्योंमें रहता है 'अमृत'। भगवान् किसीको मारते भी हैं तो तारनेके लिये। भगवान् कल्याणमय हैं। अतएव उनसे कोई ऐसा कार्य होता ही नहीं, जिसमें बुराई हो।

१०८-भगवान्‌के अस्तित्वका वास्तवमें हमें विश्वास हो जाय, हमें यह विश्वास हो जाय कि भगवान् यहाँ हैं, हमें देख रहे हैं-तो सच्ची बात है कि हम निष्पाप हो जायँ, निश्चिन्त हो जायँ और निर्भय हो जायें।