लगन

Diligently

SPRITUALITY

आध्यात्मिक कहानियाँ, geeta press गोरखपुर

4/19/20251 min read

लगन

वह बेकार था। दिनभर इधरसे उधर घूमना, कोई मिल जाय तो उससे गप्पें लड़ाना और नहीं तो कोई पुस्तक लेकर पढ़ते ही रहना। घरमें ऐसा भी कोई न था जो कहे 'सुदेव! तुम कुछ काम क्यों नहीं करते ?' वृद्धा माता इसीमें प्रसन्न थी कि बेटा घर रहे। पत्नी बेचारी पतिकी आज्ञाकी पुतली ठहरी। दूसरा कोई घर था ही नहीं।

सुदेव काम क्यों करे ? उसके यहाँ अभाव क्या है? पिता इतनी सम्पत्ति छोड़ गये हैं कि सुदेवके बच्चोंके बच्चे भी उसे समाप्त नहीं कर सकते। आसपासके स्थानोंमें सुदेवकी विद्वत्ता एवं मिलनसार स्वभावका आदर है। उसके पिता लब्धप्रतिष्ठ व्यक्ति थे और वह स्वयं भी कम सम्मानित नहीं है।

सुदेव वैसे सदाचारी, दयालु एवं न्यायप्रिय था। धनके जो स्वाभाविक दुर्गुण ऐसी अवस्थामें प्रकट होते हैं वे दुराचार, क्रूरता, अनीति, उत्पीडन, घमण्ड आदि उसमें एक भी न थे। वह नम्र और विनयी था। उसमें यदि कोई दुर्गुणता थी तो एक यही कि वह किसी भी कार्यको एकाग्र होकर कुछ समयतक नहीं कर पाता था। उसमें लगन नहीं थी। बड़े उत्साह एवं दृढ़ निश्चयसे वह कार्यारम्भ करता, पर थोड़े ही समयमें उसका उत्साह ढीला पड़ जाता। कार्य बीचमें ही पड़ा रह जाता।

कई पुस्तकें उसने लिखनी आरम्भ कीं, कई संस्कृत पुस्तकोंकी टीका करना प्रारम्भ किया। ऐसी पुस्तकोंके उसके यहाँ ढेर थे। किसीके पचास पृष्ठ लिखे गये तो किसीके पाँच ही। किसीमें एक सौ श्लोकोंकी टीका हुई तो किसीमें बीसकी ही। जो एक बार छूट गया फिर उसमें मन नहीं लगता था। फिर दूसरी पुस्तक नये सिरेसे ही प्रारम्भ होती। यही दशा पठन-पाठनकी भी थी। किसी पुस्तकको बड़े उत्साहसे खरीद लाये, दो-चार दिन पढ़ा और फिर आलमारीके हवाले किया। किसी विद्यार्थीको पढ़ाने लगे तो दो-चार दिन बाद अस्वीकार कर दिया। इन्हीं सब गड़बड़ोंसे कोई सुदेवके साथ कार्यमें सहयोग नहीं करता था। वैसे सब लोग आदर करते थे।

(२)

सुदेवकी धार्मिक रुचि बड़ी प्रबल थी। जहाँ कहीं भी महात्माओंके आनेका समाचार मिलता, वह अवश्य जाता। चाहे जितनी दूर जाना पड़े। रुपये व्यय करके वह भारतके दूर-दूर महात्माओंके दर्शनको भी प्रायः जाता ही रहता था। आसपासके तो सभी महात्मा परिचित थे।

वह चंचलता यहाँ भी रहती। किसी भी महात्माके पास जाते ही सुदेव उनपर अत्यन्त श्रद्धा करने लगता। ऐसा दीखता कि बस वह इनसे बड़ा महात्मा किसीको मानता ही नहीं। उनकी छोटी-मोटी सभी सेवाएँ करता। उनके उच्छिष्ट पाता। सच्चे हृदयसे उनके बताये मार्गपर चलता, साधन करता। बार-बार उनके यहाँ जाता, दिन-रात्रि परिश्रम करके उनकी सेवामें तल्लीन रहता। ऐसा प्रतीत होता कि वह सौम्यता एवं श्रद्धाकी मूर्ति है।

थोड़े दिन बाद ही वह उन महात्माजीके पास जाना बन्द कर देता। जाता भी तो यों ही टहल आनेके लिये। सब साधन-भजन छोड़ देता। महात्माजीपर अश्रद्धा हो जाती। वह उनके दोष ढूँढ़ने लगता। उनकी निन्दा करता। अपने संयत जीवनको पुनः उच्छृंखल बना लेता। पर महात्माओंकी खोज बन्द नहीं होती। फिर दूसरे महात्माकी खोज होने लगती।

एक दो नहीं, दसों गुरु सुदेवने बनाये। वह जिस महात्मापर श्रद्धा करने लगता उसीसे दीक्षा लेनेका प्रयत्न करता। वैसे दीक्षा न मिले तो भी उन्हें अपना गुरु तो मान ही लेता। पर श्रद्धा हटनेपर फिर दीक्षाका भी कोई मूल्य नहीं रह जाता था।

समीप ही गंगा किनारे एक विरक्त अवधूत आये हुए थे। नियमानुसार सुदेव उनके पास पहुँचा। वे निःस्पृह एवं तितिक्षु थे। शरीरपर एक कौपीनके अतिरिक्त कुछ भी न था। सुदेवकी उनपर बड़ी श्रद्धा हो गयी। वह पहले दिन-दिनभर उनके पास बैठा रहा। उनके बैठनेके स्थानपर उसने पत्तियाँ बिछायर्थी, जल लाकर रखा तथा और भी जो सेवा सम्भव थी, करता रहा।

महात्मा पहुँचे हए थे। उन्होंने कल्याणका उपाय पूछनेपर सुदेवसे कहा 'कल सन्ध्याको पाँच सहस्त्र द्वादशाक्षरमन्त्र लिखकर लाना तब कुछ बता सकूँगा।' दूसरे दिन प्रातः से ही सुदेव घरपर लिखने बैठ गया, बड़े परिश्रमसे सन्ध्यातक कहीं साढ़े चार सहस्र मन्त्र हो पाये। वह उन्हें लेकर महात्माजीके पास पहुँचा। पहुँचते ही महात्माजीने कहा 'पूरा नहीं ला सके, अच्छा इन कागजोंको रख जाओ। कल पूरे पाँच सहस्र लाना।' महात्माजीने उसे वहाँ बैठने नहीं दिया। वैसे ही लौटा दिया। श्रद्धा जागृत थी, श्रम करके सुदेवने दूसरे दिन संख्या पूरी कर ली।

महात्माजीने मन्त्रोंको देखा। अक्षर टेढ़े-मेढ़े थे, जल्दीमें कहीं अक्षर छूट भी गये थे। उन्होंने कहा 'भैया! कहीं ऐसे भी मन्त्र लिखे जाते हैं? तुम पाना तो चाहते हो भगवान्‌को, पर तुमसे इतना परिश्रम भी नहीं हो पाता। सुन्दर अक्षरोंमें शुद्ध शुद्ध लिखकर ले आओ।'

आज सुदेवने बड़ा श्रम किया था। उसे इससे अधिक आशा नहीं थी। धीरेसे बोला 'मैंने बहुत श्रम करके तब कहीं इतना भी किया है। इससे अधिक तो सम्भव ही नहीं।' महात्माजी तनिक कड़े शब्दोंमें बोले 'सम्भव कैसे हो ? रास्तेमें कौन जा रहा है, घर क्या हुआ, वे लोग क्या बातें कर रहे हैं, तनिक उनसे मिल आऊँ, तनिक उससे

घरका हाल पूछ लूँ आदि जबतक बखेड़े लगे हैं, तबतक कैसे सम्भव हो सकता है? साधनके लिये लगन चाहिये। एकाग्र होकर लगनसे कार्य करोगे तो सब कुछ हो जायगा। नहीं तो रहने दो, जब तुम कुछ करना ही नहीं चाहते तो मेरे पीछे क्यों पड़े हो? करना तो तुम्हींको होगा। मैं तो केवल पथप्रदर्शन कर सकता हूँ।'

सुदेवने यह झिड़की पाकर सोचा 'महात्माजीको सन्तुष्ट तो करना ही है। कल तीन-चार साथियोंको बुलाकर मन्त्र लिखा लेंगे। महात्माजी अक्षर थोड़े ही पहचानने बैठेंगे। वे तो मन्त्रोंको उलटते भी नहीं।' तुरंत ही महात्माजीने कहा 'मेरे साथ आओ।' सुदेव उनके पीछे चला।

गंगाजीके किनारे एक बगुला बड़े ध्यानसे मछलियोंकी ताकमें बैठा था। महात्माजीने कहा 'दबे पैर पीछेसे बगुलेके पास जाकर खड़े हो जाओ।' सुदेव उस पक्षीके पासतक पहुँच गया, पर पक्षीको कुछ पता न था। थोड़ी देर खड़े रहनेपर महात्माजीके संकेतपर सुदेवने ताली बजायी। दो-तीन तालियाँ बजानेपर पक्षी चौंककर उड़ गया।

पास आकर महात्माजीने कहा 'सुदेव! देखा तुमने इस पक्षीकी लगन। उसे यह भी पता नहीं कि मेरे पीछे कौन खड़ा है। इतनी तल्लीनता होती है तो कहीं लक्ष्य मिलता है। तुम दूसरोंसे मन्त्र लिखवाकर मुझे धोखा देना चाहते हो, पर सोचो कि यह तुम किसे धोखा दे रहे हो। तुम मन्त्र न भी लिखो तो मेरी क्या हानि ? यह तो तुम्हारे ही लाभके लिये मैं बताता हूँ। साधन ही सब महात्मा बतायेंगे। कोई हाथ पकड़कर तुम्हें लक्ष्यतक पहुँचानेसे रहा। तुममें लगन और दृढ़ता होनी चाहिये। देखो, मैं यहाँ चतुर्मासा करूँगा। चार महीने नित्य लगनसे सुन्दर अक्षरोंमें पाँच सहस्र मन्त्र लिखो। ठीक चार महीने बाद मेरे पास आना।' सुदेव बहुत लज्जित था, उसने स्वीकार किया।

मनुष्यका हृदय ही तो है, बात ठीक लक्ष्यपर लग गयी। सुदेव ठीक दूसरे दिनसे मन्त्र लिखनेमें तन्मय हो गया। पता नहीं कहाँ क्या हो रहा है। माताने कई बार स्नान करनेको कहा, पर उसने सुना ही नहीं। ठीक भोजनके समय जब उसके पास आकर माताजीने कहा तो कहीं वह स्नान करने गया।

सन्ध्यातक उसने पाँच सहस्रसे पाँच सौ मन्त्र अधिक ही लिख लिये थे। अक्षरोंके सौन्दर्यपर उसे स्वयं ही बड़ा आश्चर्य हो रहा था। कई बार उलटकर उन मन्त्रोंको देखा, फिर सन्दूकमें रख दिया। महात्माजीने तो अपने पास आनेको मना कर दिया था, उनके पास चार महीने बाद जाना था। दूसरे दिन प्रातःकाल वह फिर उसी कार्यमें जुट गया।

दो-चार दिनतक मन लगा, फिर जी ऊबने लगा। दिनके एक-एक घण्टे युगोंसे प्रतीत होते थे। बार-बार सुदेव कागज गिनता कि अभी कितना लिखना है। वह दृढ़ था, मनसे युद्ध होने लगा। कई दिनतक यह अवस्था भी चली। जीवनमें प्रथम बार सुदेवने मनसे युद्ध किया और विजयी हुआ। उसने लेखन बन्द नहीं किया।

अब दशा दूसरी ही हो गयी। मन्त्र लिखनेमें आनन्द मिलने लगा।

मन स्वभावतः उधर ही लगा रहता था। कुछ दिनोंमें वहाँ मनको इतना आनन्द मिलने लगा कि फिर वह दूसरी ओर जाना ही नहीं चाहता था। भोजन करनेको उठना भारी लगता था। भोजन करते समय भी यह उकताहट रहती थी 'कब लिखने बैठूंगा।'

प्रातः चार बजे नींद टूटते ही नित्यकर्मसे निवृत्त होकर सुदेव लिखने बैठ जाता। माताजीके बार-बार कहनेपर भोजनको उठता और रात्रिमें लालटेनके सामने बैठा लिखता रहता। ग्यारह बजते तब कहीं वह लिखना बन्द करता। स्वप्नमें भी वह मन्त्र ही लिखता था।

पाँच सहस्र मन्त्र तो दोपहरसे पहले ही पूर्ण हो जाते थे। फिर वह गिनता नहीं था। पता नहीं कितने मन्त्र लिख लेता होगा। नित्य मन्त्र लिखकर वह उन्हें अपने सन्दूकमें बड़े सुन्दर ढंगसे रख देता।

(५)

पूरे चार महीने हो गये। महात्माजी स्वयं ही सन्ध्याके समय सुदेवके घरपर पहुँचे। वह मन्त्र लिखनेमें तल्लीन था। दो दिनसे न तो वह सोया था और न भोजनादिके लिये उठा था। माताने बहुत पुकारा, बहुत कहा, किन्तु वह मानो कुछ सुनता ही न हो। पहले उसका स्वभाव तनिक-सी बातमें ही रुष्ट हो जानेका था, इससे कोई उसे छूनेका साहस भी नहीं कर सकता था। दूसरे उसके चेहरेसे जो विचित्र प्रकाश निकल रहा था, वह भी लोगोंको पास आनेसे रोकता था।

माताने साधुके चरणोंमें प्रणाम किया। महात्माजी सुदेवके आगे जाकर खड़े हो गये। उसकी लेखनी चल रही थी, पर उसे शरीरका भी ज्ञान नहीं था। महात्माजीने पुकारा, कोई उत्तर नहीं मिला। सिरपर हाथ रखकर उन्होंने गम्भीर स्वरमें पुनः कहा 'हरिः ॐ'। सुदेवको बाह्यज्ञान हुआ। अपने सम्मुख गुरुदेवको देखकर उसने उनके चरणोंको अश्रुओंसे सींच दिया।

'रहने दो, अब मन्त्रोंकी मुझे आवश्यकता नहीं। उन्हें स्थापित करके पूजा किया करो। तुम्हें अब भी कोई साधन चाहिये तो मैं बताने आया हूँ।' मन्त्र लानेको उद्यत सुदेव पुनः चरणोंमें सिर रखकर बोला 'प्रभो! मेरे साधन और साध्य तो सब ये श्रीचरण ही हैं। मुझे दूसरा कोई भी साधन नहीं चाहिये।' महात्माजीने उसे उठाते हुए कहा 'साधनोंका मूल मन्त्र तो लगन है। लगन होनी चाहिये, साधन तो सब एक-से हैं।'

-------------------