पहले राजा लोग अनेक विवाह करते थे तो क्या ऐसा करना उचित था ?

Earlier, kings used to marry many times, was it right to do so?

स्त्री सम्बन्धी बातें FEMININE THINGS

Geeta Press book ''गृहस्थ में कैसे रहें ?'' से यह लेख पेश

6/17/20241 min read

प्रश्न - पहले राजालोग अनेक विवाह करते थे तो क्या ऐसा करना उचित था ?

उत्तर- जो राजालोग अपने सुखभोग के लिए अधिक विवाह करते थे, वे आदर्श नहीं माने गए हैं. केवल राजा होने मात्र से कोई आदर्श नहीं हो जाता। जो शास्त्र की आज्ञा के अनुसार चलते थे, धर्म का पालन करते थे, वे ही राजालोग आदर्श माने गये हैं।

वास्तव में विवाह करना कोई ऊँचे दर्जे की चीज नहीं है और आवश्यक भी नहीं है. आवश्पयक तो परमात्मप्राप्ति करना है। इसीके लिये मनुष्य-शरीर मिला है, विवाह करने के लिये नहीं। स्त्री-पुरुष का संग तो देवता से लेकर भूत-प्रेत आदि तक स्थावर- जंगम हरेक योनिम होता है, अतः यह कोई महत्ताकी बात नहीं है योनिमाप्तिका अवसर, अधिकार, योग्यता आदि तो मनुष्यजन्ममें ही है। मनुष्य परमात्म प्राप्तिका जन्मजात अधिकारी है। जो विचारके द्वारा अपनी विषयासक्तिको, भोगासक्तिको नहीं छोड़ पाते, ऐसे कमजोर मनुष्योंके लिये ही विवाह का विधान किया गया है। भोगोंको भोगकर उनसे विरक्त होनेके लिये, उनमें अरुचि करनेके लिये ही गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिये। जो विषयासक्तिको नहीं छोड़ पाते, उनपर ही पितृऋण रहता है अर्थात् उपकुर्वाण ब्रह्मचारीपर ही वंश-परम्परा चलानेका दायित्व रहता है, नैष्ठिक ब्रह्मचारी और भगवान्के भक्तपर नहीं। तात्पर्य है कि पितृऋण उसी पुरुषपर रहता है, जो भोगासक्ति नहीं मिटा सका। जिसमें भोगासक्ति नहीं है, उसपर कोई ऋण रहता ही नहीं, चाहे वह कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, भक्तियोगी आदि कोई भी क्यों न हो! कारण कि इन्कमपर ही टैक्स लगता है, मालपर ही जगात लगती है। जिसके पास इन्कम है ही नहीं, उसपर टैक्स है किस बातका ? माल है ही नहीं तो जगात किस बातकी ?

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक "गृहस्थ कैसे रहे ?" से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।