बड़भागी वे नहीं, जिनके पास प्रचुर मात्रा में धन है बड़भागी वे हैं जिनका भगवान में प्रेम है।
Fortunate are not those who have a lot of wealth or who love material things. Fortunate are those who love God.
SPRITUALITY


६२-बड़भागी वे नहीं, जिनके पास प्रचुर मात्रामें धन है या जिनका विषयोंमें बहुत प्रेम है। बडभागी वे हैं जिनका भगवानमें प्रेम है। बारह गुणोंसे युक्त ब्राह्मणसे, जो भगवानसे प्रेम नहीं करता, एक चाण्डाल, जो भगवानके चरणारविन्दका सेवक है, अधिक सौभाग्यशाली है। भगवानमें प्रीति सम्पादन कर लेना कोई छोटे-मोटे भाग्यकी बात नहीं है; यह तो परम सौभाग्य है।
६३-भोग मनुष्यको अंधा बना देता है और वह भगवान्को तथा धर्मको भूल जाता है। अंधा होनेपर सुरमा लगाया जाता है। भगवान भी ऐसे भोगीके दरिद्रतारूपी सुरमा लगाते हैं, जिससे उसे ज्ञान होता है।
६४-पूजा होती है सफलतामें। असफल महात्माको कोई भी नहीं पूजता, सफल राक्षसको भी सब पूजते हैं। वास्तवमें तो जगत् सफलताको नहीं पूजता, वह तो अपने स्वार्थको ही पूजता है।
६५-प्रेम होना चाहिये; जिस वस्तुमें प्रेम होता है, उसके सेवनमें नींद नहीं आती, जी नहीं ऊबता। ×××× भगवान्की सेवाका समय उपस्थित होनेपर प्रेमीके सामने जितने भी प्रतिबन्ध हों वे अपने-आप हट जाते हैं।
६६-मन्त्रकी शक्ति विज्ञानसे अधिक है। मन्त्रके द्वारा जो जैसा करना चाहें कर सकते हैं। प्राचीन कालमें मन्त्रविज्ञानको लोग जानते थे और मन्त्रोंपर उनका विश्वास था। मन्त्रके द्वारा ऐसे काम होते थे, जिनको आज असम्भव माना जाता है। इसी कारण भौतिक विज्ञानको उस समय इतनी आवश्यकता नहीं थी। मन्त्रोंके द्वारा बड़े-से-बड़े निर्माण और ध्वंसके काम होते थे। उस समय विज्ञान भी था। विज्ञान असुरोंके पास था और मन्त्र ब्राह्मणोंके पास; मय दानवने अर्जुनको अपनी मायावी विद्या (विज्ञान) सिखानेको कहा था; परन्तु अर्जुनने मना कर दिया कि इससे हमारी पवित्रता नष्ट हो जायगी, फिर हमारी वीरता कहाँ रहेगी।
६७-अविद्या बाहरसे मनोरम, पर भीतरसे दुःखदायी होती है।
देखनेमें बड़ी सुन्दर, पर अन्दर जहर भरा है। अविद्यासे विषयरूपी भौठा विष निरन्तर निकलता रहता है। जगत्के जीव उसे बार-बार पीकर मृत्युको वरण करते हैं।
६८-ज्ञानियों एवं कर्मयोगियोंका परम पुरुषार्थ मोक्ष है पर प्रेमी भक्तोंका परम पुरुषार्थ भगवान् नहीं, भगवान्की सेवा है। भगवान्की सेवाके लिये वे भगवान्का भी त्याग कर देते हैं। प्रेमी भक्त संयोग एवं वियोग दोनों अवस्थाओंमें भगवान्की सेवा स्वीकार करते हैं। ज्ञानी और योगी भगवत्साक्षात्कार करके अपने स्वरूपको खो देते हैं, पर प्रेमी भक्त अपने आत्माको खोकर भी आत्मस्मृतिको नहीं खोते। भगवान्की सेवाका समय आनेपर उनकी आत्मस्मृति फिर जाग्रत् हो जाती है और वे तुरन्त भगवान्की सेवामें लग जाते हैं। वे सेवाको भूलकर आत्माको नहीं खोते, सेवामें आत्माको खो देते हैं।
६९-कर्मयोग, ज्ञानयोग आदिके साधक साधनाकी सिद्धि चाहते हैं, सिद्धि मिलनेपर वे साधनाको छोड़ देते हैं, वहाँ साधना भार बन जाती है। जो लोग सिद्धिके लिये साधना करते हैं, उनको पहले भी उस साधनामें इसीलिये रस आता है कि शीघ्र सिद्धि मिल जायगी। पर भक्तमें तो प्रेमके लिये ही प्रेम है। वहाँ तो आदिसे लेकर सदा प्रेम ही है, अन्त तो है ही नहीं। प्रेमकी सिद्धावस्था नित्य अतृप्त रहती है, अतः वह नित्य बढ़ता है। ज्ञानयोग, योगाभ्यास आदिमें एक अवस्था आती है कि जहाँ अलम् है, तुष्टि है, समाप्ति है, पर प्रेमका यह स्वरूप है कि वह सदा नये-नये रसास्वादके लिये व्याकुल रहता है। प्रेमी भक्त सर्वदा सर्वभावसे पूर्ण होते हुए भी सर्वदा सर्वभावसे अपूर्णताका बोध करते हैं।
७०-ज्ञानयोगसे भगवान्को ब्रह्म समझकर भजनेवाले संसारसे मुक्त होना चाहते हैं, अष्टांगयोगवाले समाधियोग चाहते हैं, भक्तलोग सामीप्यादि मुक्ति चाहते हैं, ये सब आत्महित चाहते हैं; श्रीकृष्णहितकी चिन्ता किसीके मनमें नहीं है। वे तो श्रीकृष्णको नित्य सुखमय मानते
हैं: पर जो लोग श्रीकृष्णके साथ ममताके बन्धनसे बँधकर उनको पुत्र सखा, प्राणवल्लभ आदि मानते हैं, वे अपने सारे सुखोंको भूलकर श्रीकृष्णके हितकी चिन्ता करते हैं। उनका अपना सुख-दुःख कुछ नहीं करके दिव्य प्रेमरसका आस्वादन करते हैं। ऐसे प्रेमी रहता। श्रीकृष्ण भी ऐसे ममतावान् भक्तोंकी ममताके अनुरूप लीला
भक्त धन्य हैं। रके दियावान्की कृपाशक्ति इतनी बलवती है कि सारी महिल उसके अनुगत रहती हैं। भगवान् भी उसके वशमें होकर भक्तके साथ नाना प्रकारके बन्धन स्वीकार करते हैं।
७२- भगवान्की जितनी लीलाएँ हैं उनमें बाललीला परम उदार है। अन्य लीलाओंमें यदि भगवान् किसीको ज्ञान दे दें, राक्षसोंको मार हे अथवा राजाओंको राजा बना दें, इसमें कोई बड़प्पन नहीं है। बड़ा बड़ा बन जायः इसमें कोई बड़प्पन नहीं; बड़ा छोटा बन जाय इसमें बड़प्पन है। बाललीलामें भगवान्को अज्ञ बालक बनना पड़ता है, अज बालकोंके साथ स्वयं सम्मिलित होकर वैसे ही लीला करनी पड़ती है और इसीमें उदारता है।
७३-भगवान्के माता-पिता, आभूषण, धाम, लीला, वस्तु आदि सब भगवान्के ही स्वरूप हैं और सब नित्य हैं।
७४-शक्तिके प्रकाशमें तारतम्यताके हिसाबसे अवतारोंके नाममे तारतम्यता होती है। जो भगवान् कूर्म हैं, वे ही मत्स्य हैं। वे ही श्रीकृष्ण हैं। शक्ति-प्राकट्यके भेदानुसार अवतारोंकी संज्ञा होती है। भगवान् कूर्म मत्स्य आदि प्राकृत देह धारण करते हों, यह बात नहीं। उनका जो नित्यसिद्ध स्वरूप है, वही जगत्में आविर्भूत होता है। भगवान्के जितने चिन्मय स्वरूप हैं, सभी अनादिकालसे नित्यधामके दिव्य लोकोंमें नित्य विराजित हैं और वे श्रीविग्रह लीलाविलासके लिये प्रकट हो जाते हैं। एक ही भगवान् अनन्त स्वरूपोंमें बने हुए हैं। उनमें भेद होते हुए भी सर्वदा अभेद और अभेद होते हुए भी भेद है। वस्तुतः भेद उनमें कुछ भी नहीं, चाहे अंशरूपसे आवें चाहे अंशीरूपसे ! जब स्वयं भगवान् अवतार लेते हैं, तब सारे अवतार आकर उनमें मिल जाते हैं। भगवान् श्रीकृष्णमें मत्स्य, कूर्म आदि सभी अवतारोंके कार्य होते हैं। कहीं छोटे-बड़ेका भाव नहीं समझना चाहिये। यह तो भगवान्की लीला है।
७५-भगवान्की अचिन्त्य महाशक्तिमें विश्वास किये बिना लीलामें रत नहीं आयेगा। उसमें स्थान-स्थानपर संदेह उत्पन्न होगा या उन लौलाओंका आध्यात्मिक अर्थ लगाकर उनका माधुर्य नष्ट कर दिया जायगा। भगवान्की लीलावली भक्तोंके सामने नित्य सत्य है और वास्तवमें तो सत्य है ही।
७६-भगवान्में सारी शक्तियाँ हैं; पर वे भक्तके प्रेमसे रह नहीं सकते। अतः स्वयं अवतार लेते हैं। वे किसी अन्यके द्वारा भक्तका संकट नहीं मिटाना चाहते। वहाँ कर्तव्य पूरा नहीं होता, क्योंकि प्रेममें प्रतिनिधित्व नहीं चलता।
७७-प्रेममें नित्य कमीका बोध होता है। जो लोग अपनेमें अधिक तथा दूसरेमें कम प्रेमकी कल्पना करते हैं, वे सच्चे प्रेमी नहीं। प्रेममें अपनेमें ही कमी प्रतीत होती है।
७८-प्रेमी भक्तोंके प्रेमके कारण भगवान्के समस्त ऐश्वर्य पद-पदपर पराभव स्वीकार करते हैं। भगवान् आप्तकाम हैं, पर प्रेमी भक्तोंके प्रेमोपहार ग्रहण करनेके लिये वे लालायित हो जाते हैं। नित्य अकाममें भी तीव्र काम उत्पन्न हो जाता है। नित्यतृप्त अतृप्त हो जाते हैं।
७९-प्रेमी भक्तोंके प्रेमकार्योंको जाननेके लिये उन-जैसा प्रेमपूर्ण हृदय चाहिये।
८०-भगवान् द्वन्द्वधर्मोके परम आश्रय हैं। उनमें एक ही साथ परस्पर विरुद्ध धर्म रहते हैं और यह उनका स्वाभाविक गुण है। वे कोटि-कोटि लक्ष्मीपति होकर भी चोरी करते हैं; नित्य तृप्त होकर भी यशोदा मैयाके स्तनपानके लिये व्याकुल रहते हैं; अवर्ण होते हुए भी कृष्ण, पीत आदि वर्णयुक्त हैं। महान् भी हैं, अणु भी हैं; महान् भी नहीं, अणु भी नहीं; निर्गुण भी हैं, सगुण भी; निराकार भी हैं, साकार
भी: सब कुछ हैं. सबसे परे हैं। असल में यही भगवान्की भगवत्ता है। इसको बिना समझे उनकी लीलाओंका सामंजस्य नहीं हो सकता: परम मधुर लीलारसका आस्वादन नहीं हो सकता और न अचिन्त्य ऐश्वर्यका ज्ञान ही हो सकता है तथा इस प्रकार भगवानके स्वरूपज्ञानमें कमी रह जाती है। भगवान्का रोना, क्रोध करना, स्तन पीने आदिके लिये व्याकुल होना न तो प्राकृतिक है और न काल्पनिक ही। यह तो उनका नित्य स्वाभाविक गुण है।
व्य स्वबालस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णका क्रोध एवं अश्रुजल दर्शकोंको प्रसन्न करनेके लिये किया जानेवाला नाट्य-अभिनय नहीं है। यह तते श्रीकृष्णके आन्तरिक बाल्यभावकी मधुर अभिव्यक्ति है। भगवान् दया नहीं करते। 'भगवान्को वास्तवमें दुःख थोड़े ही हुआ था, उन्होंने तो छल किया था'- ऐसे भावोंसे रस नष्ट हो जाता है। ऐसे भावोंसे तो भगवान्की माधुरी एवं भक्तका वात्सल्य दोनों खो दिये जाते हैं।
८२-आन्तरिक भावकी बाह्य अभिव्यक्ति किसी दर्शक या अनुमोदनकी अपेक्षा नहीं करती। आन्तरिक भावका स्वाभाविक विकास वहीं होता है, जहाँ जनसमूह नहीं होता। जनसमूहमें कारण उपस्थित होनेपर भी आन्तरिक भाव प्रकट नहीं होता। अकेलेमें निःसंकोच भावसे आन्तरिक भाव प्रकट होते हैं। किसीके असली स्वभावको जानना हो तो 'वह अकेलेमें क्या करता है' इसे देखन चाहिये, इससे उसका असली रूप प्रकट होगा। श्रीकृष्णने यशोदा मैयाके चले जानेपर अकेलेमें क्रोध करके दहीके मटकेको फोड़ डाला था और भाग गये थे। यही असली भाव था।
८३-प्रेम देता है, लेता नहीं। प्रेमका यह स्वभाव है कि वह किसी स्वार्थको लेकर या किसी अपेक्षासे नहीं होता। वहाँ तो मनमें सहज खिंचाव, आसक्ति है। प्रेम इसलिये होता है कि वह हृदयकी चीज है और नित्य वर्द्धनशील है।
८४-मधुर लीला, प्रेमी पार्षदोंका अधिक जुटाव, रूप-माधुर्य और वेणु माधुर्य- ये चार प्रकारके माधुर्य श्रीव्रजराजनन्दनमें विशेषरूपमे विद्यमान हैं और ये व्रजमें ही रहते हैं; उनके साथ मथुरा और द्वारिका नहीं जाते।