भगवान् की स्तुति भगवान्की कृपासे, भगवान्‌ की प्रेरणा से ही की जा सकती है। नवम माला

God can be praised only by God's grace and God's inspiration.

SPRITUALITY

आदरणीय परम पूज्य श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी की लाभदायक पुस्तक 'सत्संग के बिखरे मोती '

2/3/20251 min read

१- भगवान् की स्तुति भगवान्की कृपासे, भगवान्‌ की प्रेरणासे ही की जा सकती है। नवम माला

२- भगवान्‌को प्राप्त कर लेनेपर किसीमें चंचलता नहीं रहती। बाद कोई अपने चंचल मनको, चंचलता मिटाने की आती रहती। यहाँ भगवान्‌के अर्पण कर दे तो वे उसे अचंचल करके अपने चरणोंमें स्थिर कर देते हैं।

३-भक्त भगवान्के चरणोंका सहारा लेकर भगवान्‌की कृपासे आगे बढ़ता है। भक्तिमें भगवत्-चरणाश्रय प्रारम्भसे ही है; और साधनोंमें अपनी शक्तिसे आगे बढ़ना है। भक्त शिशुकी भाँति भगवत्-चरणाश्रित होता है। उसमें न शुचिता है, न साधना है, है केवल मातृपरायणता ।

४-अवतार भगवान्के मंगल-विग्रह हैं। भगवान्के जितने मंगल-विग्रह हैं, वे सब के सब नित्य हैं, कोई नया बनता है, पहले नहीं था-ऐसी बात नहीं। इनके अलग-अलग दिव्य लोक हैं और समय-समयपर ये प्रापंचिक जगत्में प्रकट होते हैं। ये सब-के-सब सच्चिदानन्दघन हैं। जीवोंमें देह-देहीका भेद है, शरीरके अन्दर चेतन आत्मा दूसरा है। शरीर

५-भगवत्कृपा जहाँ साधनको संचालित करती है, वहाँ साधनमें अपार बल आ जाता है और अहंकाररहित सर्वोत्तम साधना होती है।

६-'स्वकर्मणा' भगवान्‌की पूजा तब होती है, जब निरन्तर मनमें यह भावना बनी रहे कि सब भगवान्से निकले हैं और सब भगवान्‌में हैं। पर जब यह भावना उड़ जाती है, तब केवल 'कर्म' रह जाता है (वह भगवत्पूजाका स्वरूप धारण नहीं कर पाता)।

७- प्रेमास्पदकी स्मृति प्रेमास्पदसे कम नहीं है। यदि भगवान्‌को प्राप्ति भगवान्‌की स्मृतिको भुलानेवाली हो, यदि भगवान्‌की प्राप्ति भगवत्सेवाको छुड़ानेवाली हो तो वह भगवत्सेवकको अभीष्ट नहीं होती।

भगवान्की सेवाके लिये भगवान्‌का त्याग कर दिया जाय तो भी कोई हानि नहीं!

८-यह बात तो माननी ही चाहिये कि भगवान् ग्रहण करके छोड़ते नहीं, पर यदि भजनमें, सेवामें शिथिलता रहती है तो भगवान्से यह प्रार्थना अवश्य करनी चाहिये कि प्रभो! आप बुला लेंगे सो तो ठीक; पर ऐसी कृपा तो और करनी चाहिये कि जबतक आप अपने पास नहीं बुलाते, तबतक आपका भजन निरन्तर होता रहे। प्रभो ! ये हमारे दिन जो कटते हैं, वे आपकी विस्मृतिमें कट जाते हैं; आपका निरन्तर स्मरण नहीं होता और न स्मरण न होनेका दुःख ही होता है। भगवन्! हमारी यह दैन्यपूर्ण स्थिति दूर हो जाय।

९-बिना विश्वास प्रार्थना नहीं होती; प्रार्थना वहीं होती है, जहाँ जिससे हम प्रार्थना करते हैं उसकी शक्तिमें- उसके सौहार्दमें विश्वास होता है। भगवान् हमारी प्रार्थना सुनते हैं और वे सुनते ही हमारी प्रार्थना पूर्ण कर देंगे-सच्ची प्रार्थना होनेमें ये ही दो हेतु हैं।

१०-हमारा प्यार बिखरा हुआ है- हम अलग-अलग सबको प्यार करते हैं; एकके नाते करें तो ठीक है। यह प्यार नहीं है, यह तो प्यारका व्यभिचार है। जगह-जगहका प्यार रहे भले ही, पर रहे भगवान्‌को लेकर, भगवान्के सम्बन्धसे ।

व्यभिचारीप्रेमसे भगवान् मिलते नहीं, वे चाहते हैं अनन्य प्रेम।

जगत्में ऐसा कोई भी दानी नहीं है, जो आपको दे दे। जगत्के हानी तो अपनेको बचाकर चीजें देते हैं; पर भगवान् तो 'आत्मदामो हैं वे अपने-आपको भी दानमें दे देते हैं।

१२-जगत्में भगवान्‌का गान निरन्तर हो रहा है; पर हमारा स्वर उसमें तान नहीं मिलाता-हम अपना अलग स्वर निकालते हैं। हमारे जीवनकी प्रत्येक चेष्टा भगवान्‌के स्वरमें एकतान हो जाय-बस, इतना ही करनेकी आवश्यकता है।

१३-जीव भगवान्‌का सनातन अंश है और परम पवित्र है। वह भगवद्-रूप ही है। जीवके अन्तःकरणमें स्वाभाविक ही दोष नहीं है; वह दोषशून्य है, पर बहुत लम्बे कालसे इन्द्रियोंद्वारा उसमें कूड़ा भरा जाता रहा है। अतः अन्तःकरणपर मैलेकी बहुत-सी तहें लग गयी हैं। इन्द्रियाँ बहिर्मुखी हैं। उनके द्वारा जो कुछ ग्रहण होता है, वह भीतर जाता है और इन्द्रियाँ ग्रहण करती हैं मैलेको ही। प्रायः समस्त संसारकी आज यही दशा है। कूड़ेकी तह इतनी घनी हो रही है कि उसके नीचे स्थित रत्नकी पिटारीतक हम पहुँच ही नहीं पाते। वृत्तियोंको अन्तर्मुखी भी करते हैं तो भी कूड़ेमें ही रह जाते हैं। इस कूड़ेसे बचनेके दो उपाय हैं- (१) या तो यह कूड़ेका स्तर ऐसा ही बना रहे और हम रास्ता निकाल लें भीतर करनेका या (२) इस कूड़ेको जला दें, जिससे वह रत्नपिटारी अपने-आप प्रकाशित हो जाय। पहले उपायमें कोई गन्दगी बने रहनेका भय करे तो यह ठीक नहीं; क्योंकि कूड़ेमेंसे होकर यदि हम प्रकाशके स्थानतक पहुँच जायँ तो गन्दगी अपने-आप मिट जायगी।

१४-भगवत्प्राप्तिके दो मार्ग हैं- (१) कृपाका मार्ग, (२) पुरुषार्थका मार्ग। वैसे कृपामें भी पुरुषार्थ है और पुरुषार्थमें भी भगवत्कृपाका आश्रय रहता है। पर पुरुषार्थके मार्गमें कठिनता अधिक है। कृपामार्गमें भगवान्‌की कृपा हमें आगे-से-आगे मार्ग दिखाती है, कूड़ेको जला देती है और भगवान्‌के पास पहुँचा देती है। किंतु इस कृपाके मार्गमें कठिन बात है-कृपामय सुहृद् भगवान्‌के सर्वथा अनुगत

हो जाना। हम भगवान्‌की कृपाका भरोसा करें और जान-बूझकर उनक प्रतिकूल कार्य करें तो यह प्रत्यक्ष है कि हमारा भगवान्पर और उनकी कृपापर विश्वास नहीं है। कृपामार्गमें सब कार्य होते हैं भगवान्‌को कृपाके भरोसे और भगवत्प्रेरणासे, अतएव इसमें यह सम्भव नहीं कि कोई कार्य भगवान्‌के प्रतिकूल हो। उसमें न हमें जल्दी करना है, न उकताना है और न अपने बलका विश्वास ही रखना है। साथ ही कर्म-विपाकके प्रत्येक भोगको प्रसन्नतासे सिरपर चढ़ाये रखें; हृदयसे, वाणीसे और शरीरसे भगवान्‌को नमस्कार करते रहें।

१५-नमस्कारमें बड़ा रहस्य है। पर जितना ही नमस्कार ऊपरसे होता है, वह सच्चा नहीं। नमस्कार वह है, जिसमें किसीके प्रति आदरभाव हृदयमें उमड़ पड़ता है। ऐसे नमस्कारमें सभ्यताकी पद्धतिकी आवश्यकता नहीं। सचमुच जिसके प्रति हम नमस्कार करते हैं, उसके प्रति हृदय श्रद्धासे भर जाना चाहिये। उसके प्रति ही हृदयसे नमस्कार होता है, जिसकी प्रत्येक बातको हम वास्तविक रूपमें अच्छी समझते हैं और उसका अनुकरण करना चाहते हैं, (चाहे अनुकरण हो नहीं पावे, पर उसके लिये हृदयमें विचार बना रहता है) हृदयका नमस्कार वहीं होता है। जिसके प्रति हम नमस्कार करते हैं, उसके प्रति हृदयमें वास्तविक पूज्यताका भाव रहता है, चाहे दिखानेमें वह भाव कभी न आवे।

फिर जब भगवान् सारे जगत्में ओत-प्रोत दीखते हैं, तब तो बायें-दायें, ऊपर-नीचे, आगे-पीछे सभी ओर नमस्कार होने लगता है। मन नमस्कारमय बन जाता है 'यत्किञ्च भूतं प्रणमेदनन्यः' या 'सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।'

१६-पुरुषार्थके मार्गमें बहुत सोचना-देखना पड़ता है; कहीं भूल हुई तो गिर जायँगे। पर कृपामार्गमें भूल हुई तो योगक्षेमका वहन करनेवाला सँभालेगा। चलनेवालेपर कोई जिम्मेदारी नहीं। पुरुषार्थमें चलना होता है अपने बलपर; कृपामार्गमें कृपालुकी कृपाके भरोसे।