भगवान् प्रकृतिसे अतीत हैं। अतः उनके गुण नाशवान् नहीं- दिव्य हैं, नित्य हैं
God is beyond nature. Therefore, their qualities are not perishable – they are divine, they are eternal.
SPRITUALITY


३६-भगवान् प्रकृतिसे अतीत हैं। अतः उनके गुण नाशवान् नहीं- दिव्य हैं, नित्य हैं। भगवान्में प्राकृत गुणोंका संस्पर्श-लेश भी नहीं है, इसीलिये भगवान् निर्गुण हैं। भगवान्के जो गुण हैं, वे गुणीसे अलग नहीं हैं; जीवोंमें गुण-गुणीका भेद होता है। भगवान् और उनके गुण दोनों सच्चिदानन्दस्वरूप हैं; दोनोंका एक रूप है। भगवान् प्राकृत गुणोंसे रहित होते हुए भी स्वरूपभूत, स्वाभाविक नित्य अनन्त कल्याण-गुणसमूहसे सम्पन्न हैं; अतः वे सगुण भी हैं।
३७-भगवान्में प्राकृत गुण नहीं, अतः वे निर्गुण हैं; उनमें प्राकृत आकार नहीं, अतः वे निराकार हैं। भक्त इनके दिव्यरूपमें उनका पूजन करते हैं, अतः वे साकार भी हैं।
३८-भगवान्के कर्म भगवान्के स्वरूपसे भिन्न नहीं हैं, इसलिये भगवान्के कर्मोंका नाम कर्म नहीं, लीला है। लीला सच्चिदानन्दस्वरूपका चित्स्वरूप-विलास है। जैसे समुद्रकी तरंगें समुद्रका ही विलास हैं, वैसे चित्-घन-सिंधु भगवान्की लीला चित्स्वरूपके अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
३९-भगवान्में जो ऐश्वर्य है, वह सम्पूर्ण नहीं है; क्योंकि सम्पूर्णता भी निर्देश करती है कि वह 'इतना' है, वह भी कोई सीमाका निर्देश करती है। पर भगवान्का ऐश्वर्य तो सम्पूर्ण होते हुए भी अपरिमित है, उसकी गणना भगवान् भी नहीं कर सकते। भगवान्के गुण अनन्त, अचिन्त्य, अगम्य हैं।
४०-भक्तोंका आनन्द बढ़ानेके लिये भगवान्का सच्चिदानन्दस्वरूप आनन्दसमुद्र उमड़ता है, इसी कारण भगवान् भक्तका आनन्द बढ़ानेके लिये अपनी हार भी स्वीकार करते हैं।
४१-भक्त और भगवान्में जब होड़ लग जाती है, तब भगवान् अपनी हार स्वीकार कर लेते हैं, यह भगवान्की प्रेमाधीनता है। भक्तकी प्रतिज्ञाकी रक्षा भगवान् अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर भी करते हैं। वे तो नित्य विजयी हैं, उन्हें कौन हराये! पर भगवान् और भक्तकी होड़में भगवान् हार जाते हैं।
४२- भगवान्की लीला-माधुरी और भक्तका प्रेम आपसमें होड लगाये रहते हैं। भगवान्की लीला भक्तके प्रेमको बढाती रहती है और भक्तका प्रेम भगवानकी लीलाको । जिस प्रकार दर्शक और अभिनेता दोनों मिलकर अभिनय माधुरीका उपभोग करते हैं, वैसे ही भक्त और भगवान् मिलकर लीला-माधुरीका उपभोग करते हैं।
४३- भगवान्की कृपाशक्ति ही समस्त शक्तियोंकी स्वामिनी है तथा सम्पूर्ण शक्तियोंको नियन्त्रित करनेवाली है। यह परम स्वतन्त्र है। यह भगवान्की अन्य शक्तियोंको स्थगित करके प्रकट होती है। इस कृपाशक्तिके कारण ही भगवान् अपनी सब शक्तियोंको छोड़कर भक्तके अधीन हो जाते हैं। भगवान्में कृपाशक्ति नित्य है, परिपूर्ण और असीम है। पर भक्तमें व्यग्रता तथा भजन-परिश्रम होना चाहिये। कृपाशक्तिके प्रकट न होनेतक कृपाशक्तिका संकेत समझकर अन्य शक्तियाँ प्रकट नहीं होतीं। जब भक्तकी व्यग्रता एवं भजन-परिश्रमसे प्रकट की हुई कृपाशक्तिके सामने आती है, तब भगवान् प्रकट हो जाते हैं और भक्तकी अधीनता स्वीकार कर लेते हैं।
४४-जिस प्रकार पेषण होनेपर ऊखसे रस निकल पड़ता है, उसी प्रकार व्यग्रतासे भगवान्की कृपाशक्ति प्रकट हो जाती है।
४५-भगवान्की लीला-कथा अत्यन्त रुचिकर, सबको समान सुख देनेवाली, किसी भी वस्तुकी अपेक्षा न रखनेवाली तथा अमोघ है।
४६-भगवान्से सम्बन्ध होते ही सारे दोष मिट जाते हैं। भगवान्ने अपनी यह शक्ति लीला-कथामें छिपा रखी है। भगवान् कृपा करके अपनी लीला-कथामाधुरी इसीलिये छोड़ रखी है कि जगत्के बहिर्मुख लोगोंका कल्याण हो। ऐसे लोगों (बहिर्मुखों) से कहा जाय कि यम- नियम आदि करो, तो कौन करेगा। पर कथामें कोई रोचक प्रसंग आ जाय तो मन लग ही जाता है।
४७-आगको देखे नहीं, आगको समझे नहीं, पर आगसे स्पर्श हो जाय तो आगका वस्तुगुण दाहकता जला ही देती है और जलनेपर ९५ उसपर श्रद्धा अपने-आप हो जाती है। इसी प्रकार लीलाकथासे अपने- आप श्रद्धा प्राप्त हो जाती है।
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४८-बिना पुण्यबलके, बिना भगवत्कृपाके भगवत्कथा सुननेको मिलती ही नहीं। जो तार्किक हैं, वे उसे व्यर्थ मानते हैं और जो गृहासक्त हैं, उन्हें मरनेका भी अवकाश नहीं।
४९-भगवान्की लीला-कथाके लिये एक ही उपाय है-उसकी जो धारा आती है उसके लिये अपने कानोंका मार्ग खोल दो। वह पीयूषधारा बिना बाधाके कानोंमें जाती रहे। वह धारा जो भीतर पहुँची कि जन्म-जन्मान्तरके कूड़ेकी राशिको धो-बहा दिया। फिर आगकी आवश्यकता नहीं रहेगी और आग तो जलकर भस्मका ढेर छोड़ देती है, पर यह इस प्रकारकी बाढ़ है कि सब चीजोंको दूर बहा देगी और साथ ही अन्तःकरणको बना देगी द्रवतामय। उसे श्रीकृष्ण-प्रेमका साम्राज्य बना देगी।
५०-भक्ति नहीं कर पाते इसका कारण है- हृदयमें मल भरा है। चाहे ज्ञानहीन हो, चाहे वैराग्यहीन हो, चाहे अशुद्धचित्त; पर यदि कथा सुनते हो तो क्रमशः भक्तिके मार्गपर आ सकोगे और प्रेमलाभ होगा अन्तमें। ज्ञान और वैराग्य भक्तिदेवीकी संतान हैं। भक्ति उन्हें अनायास तुम्हें दे देंगी। भक्ति तो साधन है। उसमें तो आवश्यकता है केवल श्रद्धाकी।
५१-जो शुद्ध भक्त हैं, भगवान्के अनन्य हैं, जिन्हें सायुज्य, सारूप्य आदि मुक्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं, वे भगवान्के नित्य पार्षदोंके अनुगत होकर सब प्रकारकी कामनाका परित्याग करके भगवान्की सेवा चाहते हैं और भगवान् उन्हें सेवाका अधिकार देते हैं। भगवान् अपने श्रीअंगकी सेवा उनसे ही करवाते हैं। यह श्रीअंगकी सेवा उनको प्राप्त होती है, जो ज्ञानियों, कर्मियों, भक्तों आदि सबसे आगे बढ़े हुए होते हैं, जो केवल भगवान्की सेवामें ही रहना चाहते हैं शुद्ध हृदयसे ! इस प्रकारकी भक्ति प्राप्त करनेके दो ही उपाय हैं-या तो परम शुद्ध भक्ति या भगवत्कृपा।
५२- यह धारणा भ्रान्त है। कि मनकी शुद्धिके बिना उद्धारकी नहीं। धनमें यह भाव नहीं कि यह अग्नि है पर स्पर्श करनेमे हम आयेंगे। अग्निके दाहकता गुणको न जाननेसे वह मिट थोड़े ही सुरजके प्रकाशके सामने कोई अनजानमें आ जाय तो क्या उसे प्रकाश नहीं मिलेगा ? वस्तुगुण होता ही है। ऐसे ही भगवान्के होनेसे उद्धार निश्चय ही हो जाता है।
५३-पापोंसे. तापसे बचनेका सीधा उपाय है श्रीकृष्णसे प्रेम कर इन्द्रियोंके जो दोष हैं, अवगुण हैं, वे सब मिट जायेंगे। जिस प्रकार राज साथ प्रेम करनेवालेके पास चोर नहीं आते. उसी प्रकार जिनका भगवान प्रेम है, उसके सामने पाप-ताप सब अपने-आप ही मिट जाते हैं।
₹४-ब्रह्माजी और चीजोंका दान दे सकते हैं, पर 'भक्तिका नहो क्योंकि यह उनके हाथकी बात नहीं।
५५-जिन लोगोंके शरीर, मन, वाणी श्रीकृष्णको लेकर एक हो गये हैं, उनके लिये श्रीकृष्ण सब समय सोये हुए हैं। पर कि लोगोंके शरीर, मन और वाणी प्रेमको लेकर श्रीकृष्णके सम्बन्धसे क हो जाते हैं, उनके लिये श्रीकृष्ण स्वयं आकर, पुकार-पुकारकर उन्हें पास जाते हैं।
५६-शरीर, मन और वाणी-तीनोंकी एकतानता हो जानी चाहिये
बस, श्रीकृष्णका स्पर्श हो जायगा। शरीर, मन, वाणीसे एकतान होनेष
भक्तको पुकारना नहीं पड़ता भगवान्को, भगवान् ही उसे पुकारते हैं।
५७-व्यवहारमें जो बाहरी अच्छापन है, उनका भी असर होता है।
चित्तशुद्धि और चित्तनिरोध करनेके समय बाहरका त्याग न हो तो काम नहीं चलता। पर अन्तःकरणकी अशुद्धिको छिपाकर बाहर शुद्ध व्यवहार करना भी बहुत दिनतक सम्भव नहीं हो सकता ! बाहरी शुद्धत अन्तःकरणकी शुद्धिमें सहायक है। बाह्य भाव बगीचेकी बाढ़ है दीपकका आवरण है। अतएव बाहरके त्यागकी भी बड़ी आवश्यकता है।
५८-खान-पान, आहारके साथ धर्मका बड़ा सम्बन्ध है। खाये हुए
अन्नके तीन भाग होते हैं- स्थूलांशका मल, मध्यमांशका मांस और सूक्ष्मांशका मन बनता है। सात्त्विक, राजसिक, तामसिक-जैसा अन्न होगा, वैसा ही मन बनेगा और मनके अनुसार ही सारे कार्य होते हैं।
५९-मन बड़ा संक्रामक है। जैसा मनोभावसे युक्त होकर अन्न दिया जाता है, खानेवालेपर वैसा ही उसका प्रभाव होता है। क्रोधीका अन्न खानेसे क्रोध, कामीका अन्न खानेसे काम उत्पन्न होगा। जहरभरे भावसे देनेपर अन्नमें जहरका-सा असर हो जाता है। एक आदमी अन्न खिला रहा है और सोचता है। 'यह आफत कहाँसे आ गयी!'- उसे बड़ा भार मालूम हो रहा है तो उसका खिलाया हुआ अन्न पचेगा नहीं। एक आदमी बीमार है और अनिच्छासे बाध्य होकर उसे भोजन बनाना पड़ता है तो इसका भी बुरा असर होगा, शोक-विषाद पैदा होगा। माँ बीमार होकर भी बनाये तो उसका अच्छा ही असर होगा; क्योंकि माँका भाव शुद्ध है, उसमें स्नेह है।
६०-सदन्नका अर्थ है जो परिश्रमपूर्वक ईमानदारीसे कमाये हुए धनसे-हिंसारहित, सात्त्विकतापूर्वक किसीका भी हक न मारकर न्यायपूर्वक अर्जन किये हुए धनसे लाया जाय। पहली बात तो यह हुई। दूसरे, अन्न जातिसे भी सात्त्विक हो तथा तीसरे जिसके द्वारा प्राप्त हो वह देनेवाला, बनानेवाला और परोसनेवाला भी सात्त्विक भावापन्न हो।
६१-जब बहिर्मुखता बढ़ जाती है, तब मनुष्य कहने लगता है कि अमुक जगह खायँ, अमुकके हाथका खायें- इसमें क्या तथ्य है। ये सब संकीर्णताकी बातें हैं, इनमें उदारता नहीं। इन्हें छोड़नेमें ही उदारता है। पर ऐसी उदारता जहाँ आती है, वहाँ दुःख-दैन्य आदि बढ़ते हैं। अमुकके हाथका न खाएँ, अमुकके हाथका खायें- इसमें किसीके प्रति घृणाका भाव नहीं है कि यह नीच है, हम पवित्र हैं। अरे, वह नीच क्यों-हम उससे भी नीच हो सकते हैं। किसीके प्रति घृणा करना तो पाप है। यह तो अपने बचावके लिये है। माँ रजस्वला होती है, तब हम उसके भी हाथका अन्न नहीं खाते। घृणा थोड़े ही है.