गुरु दीक्षा के लिए कब प्रयास करना चाहिए और क्या सावधानियाँ रखें?
गुरु दीक्षा कब लें? कौन सी सावधानियाँ रखें? जानें श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के विस्तृत उत्तर के साथ गुरु दीक्षा का महत्व और सही तरीका।
SPRITUALITY


परिचय
गुरु दीक्षा सनातन धर्म में आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत और आत्मिक उत्थान का सबसे महत्वपूर्ण चरण मानी जाती है। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि जीवन के हर पहलू में मार्गदर्शन और चेतना का संचार है। प्रस्तुत लेख में हम जानेंगे कि गुरु दीक्षा के लिए कब प्रयास करना चाहिए, किन सावधानियों का पालन करना चाहिए, और श्री महाराज जी ने इस विषय पर क्या विस्तार से उत्तर दिया है।
गुरु दीक्षा के लिए कब प्रयास करना चाहिए?
1. दीक्षा का उपयुक्त समय
श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के अनुसार, गुरु दीक्षा के लिए "आज और अभी" सबसे उत्तम समय है। उन्होंने स्पष्ट किया कि जीवन का कोई भरोसा नहीं है, मृत्यु कभी भी आ सकती है, इसलिए कल पर टालना बुद्धिमानी नहीं है। कबीर साहब की पंक्तियों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा:
"काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में प्रलय होएगी, बहु करोगे कब
अर्थात, जो कार्य कल करना है, उसे आज करो और जो आज करना है, उसे अभी करो। जीवन क्षणभंगुर है, इसलिए गुरु दीक्षा के लिए देर नहीं करनी चाहिए1।
पारंपरिक दृष्टिकोण से भी, ज्योतिषाचार्य और शास्त्रों के अनुसार, गुरु दीक्षा के लिए 5 से 12 वर्ष की आयु सबसे उपयुक्त मानी गई है, क्योंकि इस उम्र में बालक शिक्षा ग्रहण करना शुरू करता है और संस्कार गहरे बैठते हैं25। हालांकि, महाराज जी के अनुसार, उम्र से अधिक महत्वपूर्ण है—समर्पण भाव और अन्तर की तड़प।
2. योग्यता नहीं, समर्पण जरूरी
महाराज जी ने स्पष्ट किया कि गुरु दीक्षा के लिए कोई विशेष योग्यता या गुण आवश्यक नहीं है। समर्पण, विनम्रता और भगवान एवं गुरु के प्रति श्रद्धा ही पर्याप्त है। जैसे लोहा पारस के स्पर्श से सोना बन जाता है, वैसे ही शिष्य गुरु कृपा से सद्गुणी बन जाता है1।
गुरु दीक्षा के बाद क्या सावधानियाँ रखें?
1. गुरु का चयन सोच-समझकर करें
गुरु का चयन करते समय यह देखना चाहिए कि वे सच्चे भगवत भक्त हों, वेदों और सनातन धर्म के सिद्धांतों को मानने वाले हों, और शिष्य को भवसागर पार कराने में सक्षम हों36।
गुरु के चरित्र, आचरण और उनके बताए मार्ग की प्रामाणिकता की जाँच अवश्य करें। ढोंगी या स्वार्थी गुरु से बचें, क्योंकि ऐसे गुरु से दीक्षा लेना व्यर्थ है6।
2. गुरु के प्रति श्रद्धा और आज्ञा पालन
दीक्षा के बाद शिष्य को गुरु की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। गुरु के आदेशों का पालन करना, उनके प्रति श्रद्धा और सम्मान बनाए रखना, और उनके बताए मार्ग पर चलना अनिवार्य है36।
गुरु के नाम का अनावश्यक उच्चारण न करें, उनके आसन पर कभी न बैठें, और उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य न करें3।
3. भजन, साधना और नियमों का पालन
गुरु द्वारा दिए गए मंत्र का नियमित जप करें और भजन-साधना में मन लगाएँ। गुरु ने जो नियम बताए हैं, उनका पालन करें13।
जीवन में सदाचार, संयम और सेवा का भाव रखें। गुरु की कृपा से ही शिष्य के भीतर सद्गुण आते हैं और विकार दूर होते हैं1।
4. दीक्षा विधि की शुद्धता
दीक्षा लेते समय स्थान, वस्त्र, पूजन सामग्री और मानसिक शुद्धता का ध्यान रखें। पंचामृत, फल, नारियल, गंगाजल, साफ वस्त्र, और गुरु दक्षिणा की व्यवस्था करें4।
कुल देवी-देवता या मंदिर में विधिवत पूजन कर सकते हैं। मंगलाचरण से शुरुआत करें और गुरु को साक्षी मानकर संकल्प लें4।
गुरु दीक्षा का महत्व
शास्त्रों के अनुसार, गुरु दीक्षा के बिना किए गए जप, दान, यज्ञ, पूजा आदि सभी सत्कर्म निष्फल रहते हैं। गुरु दीक्षा से ही साधना सार्थक होती है और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है56।
गुरु शिष्य के लिए दिव्य ज्ञान, मार्गदर्शन और आत्मिक उन्नति का स्रोत हैं। गुरु दीक्षा के बाद ही शिष्य को जीवन के वास्तविक उद्देश्य की प्राप्ति होती है6।
महाराज जी के उत्तर का सार
दीक्षा के लिए किसी विशेष गुण या योग्यता की आवश्यकता नहीं, केवल समर्पण और श्रद्धा चाहिए।
कल पर न टालें, आज ही गुरु दीक्षा का प्रयास करें।
गुरु कृपा से ही शिष्य के दोष दूर होते हैं, इसलिए जैसे भी हैं, वैसे ही गुरु की शरण में चले जाएँ।
दीक्षा के बाद गुरु के आदेशों का पालन करें, भजन-साधना में मन लगाएँ, और जीवन को सार्थक बनाएँ1।
निष्कर्ष
गुरु दीक्षा जीवन का सबसे महत्वपूर्ण आध्यात्मिक संस्कार है। इसके लिए उम्र, योग्यता या परिस्थितियों की प्रतीक्षा न करें—समर्पण भाव से आज ही गुरु की शरण में जाएँ। गुरु का चयन सोच-समझकर करें, दीक्षा विधि की शुद्धता रखें, और दीक्षा के बाद गुरु के मार्गदर्शन में साधना और सेवा को जीवन का लक्ष्य बनाएँ। यही जीवन की सच्ची सफलता और मुक्ति का मार्ग है।