अमूल्य मनुष्य-जन्म की प्राप्ति कैसे और क्यों ?

How and why do we attain the precious human birth?

SPRITUALITY

पुस्तक 'आनंद यात्रा' , लेखक श्री धर्मेन्द्र मोहन सिन्हा

5/21/20251 min read

अमूल्य मनुष्य-जन्म की प्राप्ति कैसे और क्यों ?

प्र.१) "मनुष्य" किसे कहते हैं?

उ.) केवल मनुष्य-शरीर धारण करने से कोई प्राणी 'मनुष्य' नहीं बन जाता। वास्तव में जो अपने तथा दूसरों के अनुभवों पर भली प्रकार मनन करे, वही 'मनुष्य' है। ऐसा मनुष्य अपनी बुद्धि का उपयोग करके शरीर से अपना सम्बन्ध स्पष्ट रूप से समझकर, उसका सही उपयोग कर पाता है।

प्र.२) हम शरीर ही तो हैं, यही हमारी पहचान भी है। फिर बुद्धि से इस विषय में और क्या समझें ?

उ.) प्रत्येक मनुष्य का यह निश्चित अनुभव है कि जिस शरीर को वह अपना

समझता है, वह हर पल बदल रहा है। शैशव में यह शरीर छोटा रहता है और फिर बढ़कर युवा हो जाता है, उसके पश्चात् वृद्धावस्था में वह क्षीण हो जाता है। परन्तु इन सब परिवर्तनों को अनुभव करने वाला स्वरूप ("स्वयं”) हर काल में एक ही रहता है। इसी कारण मनुष्य कहता है "तब मैं बच्चा था, अब मैं जवान हूँ, आगे मैं वृद्ध हो जाऊँगा"। इसका अर्थ यही निकलता है कि प्रत्येक मनुष्य को यह स्पष्ट अनुभव है कि उसका शरीर तो बदलता जा रहा है, पर जिसे वह "मैं” अर्थात् अपना स्वरूप समझ रहा है, वह शरीर के इन सब परिवर्तनों को देखता हुआ भी, वैसा का वैसा ही बना रहता है। इस प्रकार यह निश्चित है कि यह नित्य परिवर्तनशील शरीर हमारा स्वरूप नहीं है।

अब शरीर और स्वरूप के सम्बन्ध को एक दूसरे सिद्धान्त के आधार पर बुद्धि से तोलकर देखें। यह एक निर्विवाद सिद्धान्त है कि जो वस्तु “मेरी” है, वह "मैं” नहीं हो सकता। अतः जैसे ही हम इसे "अपना" शरीर कहते हैं, वैसे ही हम उससे अपनी एक पृथक् सत्ता स्वीकार कर लेते हैं। इससे यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है कि मैं अपने शरीर से पृथक् एक सत्ता हूँ। यह सत्ता ज्ञान-स्वरूप है और चेतन है, क्योंकि इसमें अनुभव करने की शक्ति है। इसी शक्ति के द्वारा यह शरीर के प्रत्येक परिवर्तन को अनुभव करता है। अतः मानव का वास्तविक स्वरूप शरीर नहीं है, अपितु वह चेतन सत्ता है, जो शरीर में होने वाले परिवर्तन का साक्षीमात्र है।

प्र.३) हम अपने इस स्वरूप को और भी स्पष्ट रूप से कैसे समझें? क्या यही हमारी आत्मा है? इसके क्या-क्या लक्षण हैं?

उ.) उपरोक्त वर्णन से मनुष्य के स्वरूप के तीन लक्षण आसानी से समझ में आते हैं-

(१) नित्य और अविनाशी- शरीर में होने वाले परिवर्तनों का अनुभव उसी सत्ता को हो सकता है जो नित्य बना रहे, स्वयं बदले नहीं। इस प्रकार अपरिवर्तनशील1 होने के कारण वह सत्ता अविनाशी2 भी अवश्य है, क्योंकि नाश होना भी तो एक परिवर्तन ही है, जो इस नित्य सत्ता में सम्भव नहीं है।

(२) चेतन- हमारा स्वरूप जड़ नहीं है, अपित् उसमें अनुभव करने की शक्ति है, जिससे वह शरीर में होने वाले परिवर्तनों का समय-समय पर अनुभव करता रहता है। चेतन होने के कारण यह सत्ता ज्ञानरूप है।

(३) आनन्दरूप- अविनाशी होने के कारण हमारे स्वरूप का कभी नाश नहीं हो सकता, न इसमें किसी प्रकार का अभाव, किसी काल में अथवा किसी भी देश में हो सकता है। चेतन होने के कारण हमें अपने इस अविनाशी होने का ज्ञान 'भी है और इसी ज्ञान से हम निश्चिन्त, पूर्ण और आनन्दित रहते हैं। अतः हमारे स्वरूप का तीसरा लक्षण है आनन्दरूपता ।

इस नित्य, चेतन, आनन्दरूप सत्ता में स्थित होने पर ही मानव को अपने वास्तविक निज स्वरूप का अनुभव हो जाता है। इस स्वरूप से उसका अत्यन्त ही प्रिय और घनिष्ठ आत्मीयता का सम्बन्ध रहता है। इसीलिये इस सत्ता को वह अपनी "आत्मा” कहता है। आत्मा के इन्हीं तीन लक्षणों का व्यापक रूप "परमात्मा" कहलाता है और जब यह आत्मा किसी शरीर से सम्बन्ध जोड़कर अपने को सीमित कर लेता है, तब वह "जीवात्मा" कहलाता है।

प्र.४) इस जीवात्मा का शरीर से क्या सम्बन्ध रहता है ?

उ.) यह सर्वविदित है कि जीवात्मा स्वयं परमात्मा का ही अंश है (१५/७)। अंश होते हुए वह कभी भी परमात्मा से पृथक् नहीं है। केवल शरीर की सन्निधि में होने के कारण जीवात्मा भी अपने को उस शरीर के नाम, आयु, आकार और गुण का मान लेता है। यह वैसे ही है जैसे किसी समुद्र का अभिन्न अंग होते हुए भी, कोई खाड़ी3 अपने तटवर्ती क्षेत्र4 के नाम से जानी जाती है, जैसे बंगाल की खाड़ी आदि। सन्निधि होते हुए भी आत्मा उस शरीर से अलग ही रहता है, जैसे समुद्र का जल तट से सदैव पृथक् रहता है। तट के रूप में उसकी पहचान होना केवल एक सुविधाजनक मान्यता ही है, परन्तु जैसे-जैसे यह मान्यता दृढ़ होती जाती है, वैसे-वैसे जीवात्मा अपने वास्तविक आत्मस्वरूप को भुलाकर, शरीर को ही अपना वास्तविक स्वरूप समझने लगता है।

प्र.५) शरीर को ही अपना स्वरूप समझने से जीवात्मा पर क्या प्रभाव पड़ता है?

उ.) जीवात्मा और शरीर के लक्षण एक दूसरे के सर्वथा विपरीत हैं। जीवात्मा नित्य और अविनाशी है. शरीर हर पल बदलता रहता है और फिर उसका नाश हो जाता है। जीवात्मा चेतन है, परन्तु शरीर जड़ और अनुभव-रहित है - केवल चेतन जीवात्मा से जुडे रहने के कारण शरीर में अनुभव कर पाने का भ्रम होता है। प्राण त्यागने पर वही शरीर अपनी वास्तविक जड़ता में स्थित हो जाता है और कुछ भी अनुभव नहीं कर पाता। जीवात्मा का तीसरा लक्षण है उसकी आनन्दरूपता, परन्तु शरीर स्वाभाविक रूप से जड़ और दुर्गन्धयुक्त है, जीवनभर रोग-पीड़ा-हानि से संघर्ष करता हुआ फिर समय आने पर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है और इस प्रकार अत्यन्त ही दुःख-रूप है।

शरीर को ही अपना स्वरूप मानने के कारण नित्य, चेतन, आनन्दरूप जीवात्मा अपने को मृत्यु के दुःख से चिन्तित, शरीर की व्याधियों से रोगग्रस्त और सांसारिक विपदाओं का ग्रास होने से निरंतर दुःख, अभाव (अर्थात् दरिद्रता) और हीनता आदि से आक्रान्त अनुभव करता है। इस भ्रम का निवारण कर अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो जाना और शरीर को कर्म करने का केवल एक यंत्र जान लेना ही मानव-जीवन का ध्येय अथवा उद्देश्य है। यही इस आनन्द यात्रा का गन्तव्य है।

प्र.६) इस ध्येय की प्राप्ति के लिये मनुष्य-योनि विलक्षण क्यों मानी जाती है?

उ.) इस ध्येय की प्राप्ति के लिये मानव को एक सूक्ष्म पदार्थ "बुद्धि" उपलब्ध है, जिसमें आत्मा का प्रकाश पूर्ण रूप से प्रतिबिम्बित होता है। जिस प्रकार सूर्य की किरणें जब दर्पण पर पड़ती हैं, तो दर्पण से प्रतिबिम्बित होकर वे ऐसा आभास देती हैं जैसे दर्पण स्वयं प्रकाशमान सूर्य हो, इसी प्रकार आत्मा के प्रकाश से बुद्धि भी आत्मस्वरूप की भाँति प्रकाशित हो जाती है। आत्मा और शरीर का पृथक् पृथक् अनुभव कर, बुद्धि द्वारा इनकी पृथकता का निश्चय स्पष्ट हो जाता है। इस स्पष्ट निश्चय का आदर कर लेना ही "विवेक” है।

मनुष्य और अन्य सब प्राणियों के शरीरों में तो एक से गुण रहते हैं और इसीलिये उनमें खाने, सोने और सन्तानोत्पत्ति की क्रियाएँ भी एक सी होती हैं। अन्य प्राणियों में बुद्धि अल्पांश में उतनी ही होती है, जितनी उन्हें शरीर धारण करने के लिये आवश्यक है। किन्तु उनमें विवेक नहीं होता। अतः अपने स्वरूप में स्थित हो जाना मानव के लिये ही सम्भव भी है और उसका अत्यन्त हर्षप्रद कर्तव्य भी है। ऐसा करने से मनुष्य को ऐसे आनन्द की प्राप्ति होती है, जिसे भारी से भारी सांसारिक विपत्ति किञ्चित् भी विचलित नहीं कर पाती।

1. unchangeable

2. indestructible

3.bay 4. shore

5. reflected

प्रकाशक :-

ईशान एकोज

303, महागुन मैनर, एफ-30, सैक्टर-50, नौएडा (उ०प्र०) - 201301

डॉ. आदित्य सक्सैना, (2022) सर्वाधिकार सुरक्षित

प्रथम संस्करण: 2000 प्रतियाँ (8) दिसम्बर, 2008, श्री गीता जयन्ती)

द्वितीय संस्करण: 2200 प्रतियाँ (2) अक्टूबर 2013)

तृतीय संस्करण: 3300 प्रतियाँ (अगस्त 2022)

पुस्तक प्राप्ति स्थान :-

वेबसाइट: www.radhanikunj.org

* संजय अरोड़ा

दूरभाष: ‪+91-98972-31510‬, ‪+91-121-266-0122‬

ईमेल: sanjaythakur75@gmail.com

अबीर मिश्रा

मोबाईल : ‪+91-98111-13488‬

ISBN: 978-81-932793-7-3

मूल्य : रु० 250/- (दो सौ पचास रुपये)

मुद्रक :-

राधा प्रेस

38/2/16, साइट-4, साहिबाबाद औद्योगिक क्षेत्र, गाज़ियाबाद (उ०प्र०)

दूरभाष: ‪+91-120-429-9134‬