कृपाके मार्ग में पाथेय की चिन्ता भी रखते हैं कृपालु प्रभु ही। पर पुरुषार्थ-मार्गमें सब सामान अपने-आप जुटाकर रखना पड़ता है।
In the path of grace, the merciful Lord takes care of the provisions for the journey. But in the path of effort, one has to arrange everything on his own.
SPRITUALITY


७-कृपाके मार्ग में पाथेय की चिन्ता भी रखते हैं कृपालु प्रभु ही। रास्तेमें बच्चेको भूख लगेगी तो उसके लिये गठरी बाँधकर रखती है माँ। बच्चेको उसके लिये कोई चिन्ता नहीं। पर पुरुषार्थ-मार्गमें सब सामान अपने-आप जुटाकर रखना पड़ता है। सिपाही लोग चलते हैं तो पाथेय आदिकी चिन्ता करके चलते हैं।
१८-पुरुषार्थ-मार्गमें सावधानी, जिम्मेदारी और अपनी चिन्ता अपने-आप करनी पड़ती है। अतः बहुत-सा समय इसीमें चला जाता है। और साथ ही, यदि कहीं भटक गये, गिर गये तो उठानेवाला कोई नहीं; क्योंकि किसीने अँगुली नहीं पकड़ रखी है। कृपाके मार्गमें इन बातोंका भय नहीं।
१९-पुरुषार्थका मार्ग स्वतन्त्रताका है, कृपामार्ग परतन्त्रताका। पर इस परतन्त्रतामें ही मजा है, निश्चिन्तता है, स्वाद है। कुछ भी हो, दोनों मार्ग ले जाते हैं एक ही लक्ष्यपर। दोनों मार्गोंमें एक बात आवश्यक है-जिस मार्गमें जा रहे हैं उसी मार्गमें जावें। मार्ग लम्बा है, समय थोड़ा। अतः चलनेमें जल्दी करनी चाहिये। जहाँतक केवल भगवान् श्रीकृष्णका चिन्तन न हो; वहाँतक कूड़ेमें ही हैं। अतः कूड़ेकी सब तहाँको पारकर अन्तःकरणमें पहुँचना है।
२०-बच्चा तो निरन्तर माँके अनुगत रहता है। कहीं माँ डाँटती है तो वह उससे बचनेके लिये माँकी ही गोदमें मुँह छिपाता है। वह और क्या करे ? माँके सिवा और किसीको जानता ही नहीं। कृपामार्गके पथिककी भी यही दशा होती है।
२१-कृपाके मार्गमें अनुगतता है, पुरुषार्थके मार्गमें सावधानी। अनुगत होकर काम करना क्या है? जैसे हम अपने अनुगतोंको अपने अनुकूल बनाना चाहते हैं-वे हमारी सेवा करें, हमारी बात मानें, हमारी इच्छा रखें आदि-ठीक उसी प्रकार हम भगवान्के अनुकूल हो जायँ। अनुगताका परिणाम सदा परम मंगलमय होता है। पर हम अनुगत न होकर भगवान्को अपने अनुगत बनाना चाहते हैं। यही तो हमारी भूल है।
२२-परतन्त्रता दुःखदायी है, परन्तु इसमें जो जिम्मेवारी नहीं, यह सुखकी चीज है। इसीको प्रपत्तिमार्ग भी कहते हैं। इस मार्गमें जितनी परतन्त्रता बढ़ी हुई है, उतनी ही साधना बढ़ी हुई है तथा स्वतन्त्रता जितनी अधिक बढ़ी हुई होती है, साधनामें उतनी ही कमी होती है।
२३-जो भगवत्कृपापरवश हो गया, जिसने अपनी स्वतन्त्रता भगवत्कृपाके हाथोंमें बेच दी, वह सबकी परतन्त्रतासे छूट गया। प्रभुके गुलाम होनेसे सबकी गुलामी छूट जाती है। जैसे मनमें आता है, इस समय अमुक भोग भोगना चाहिये, पर वह भगवान्के परतन्त्र है, अतः भगवदिच्छाके विरुद्ध उसे नहीं भोग सकता और इस प्रकार वह विषयकी गुलामीसे छूट जाता है।
२४-'मालिकको गोत गोत होत है गुलामको' ऐसा तुलसी-दासजीने कहा है। मालिककी चपरास लगाकर गुलाम सबपर शासन करता है। इसी प्रकार भगवान्का गुलाम बननेसे सबपर शासन करनेकी शक्ति एवं सामर्थ्य प्राप्त हो जाता है।
२५-गुलामी उसीका नाम है, जिसमें किसी प्रकारकी स्वतन्त्रता हे ही नहीं। जगतकी गुलामी बड़ी बुरी, विषयोंकी गुलामी बड़ी बुदी। पर वही गुलामी जब भगवान्के सम्बन्धमें हो जाती है, बढ्ने वह परम श्रेष्ठ हो जाती है।
२६-चाहे जगत् गुलामीके नामपर गाली दे, पर वास्तवमें सारा ज्ञात् फँसा है विषयोंकी मानसिक कामनाओंकी गुलामीमें हारा गुलामीका अभ्यास हमारा ज्यों-का-त्यों रहे, केवल मालिक बदल जाय। विषयोंके स्थानपर हम भगवान्को अपने स्वामीपदपर आसीन कर दें।
२७-भगवत्कृपाके मार्गमें गुलामी छोड़नी नहीं पड़ती, गुलामीका स्वभाव पलटना नहीं पड़ता, केवल मालिक बदलना पड़ता है।
२८-भगवान्का खिंचाव होता है सेवककी ओर (जो तन, मन एवं वचनसे केवल भगवान्की सेवाका ही अभिलाषी है) और इसीलिये भगवान्की कृपा उसपर उतर आती है। बाहरी स्तुति या प्रार्थना आदिसे वह काम नहीं होता।
२९-कृपाका मार्ग निरापद है। उसमें कोई कठिनता है तो यही कि हम परतन्त्र होना नहीं चाहते; इन्द्रियोंकी गुलामी नहीं छोड़ना चाहते। हम भगवान्की कृपा चाहते हैं; इस रूपमें कि इन्द्रियोंकी गुलामी करनेका हमें अधिक-से-अधिक अवसर मिलता रहे। यह तो वास्तवमें भगवत्कृपाका तिरस्कार है। भला जरा सोचें तो सही जो कृपावश है, वह स्वयं क्या चाहेगा? उसके लिये तो प्रभु जो करेंगे, वही ठीक है; प्रभु जब करेंगे तभी ठीक है।
३०-भगवान्में ये चार बातें हैं- (१) वे मंगलमय हैं, (२) सर्वज्ञ हैं, (३) सर्वशक्तिमान् हैं और (४) हमारे परम आत्मीय हैं।
भगवान्में कहीं अमंगल नहीं। उनमें अमंगल हो तो वे अमंगल दें। जिसके पास जो चीज होती है, वह वही देता है। सूर्यसे अन्धकार माँगे वह कहाँसे देगा ? बस, यही बात भगवान्की है। वे जो कुछ भी देते हैं मंगलमय ही देते हैं।
कोई कहे 'माना वे मंगलमय हैं, पर हमसे मिलते तो नहीं। हमें क्या चाहिये, यह वे जानते नहीं।' तो कहते हैं-वे सर्वज्ञ हैं; उनसे कोई बात छिपी नहीं है।
कोई सर्वज्ञ तो है, 'पर यदि उसके पास ऐसी शक्ति नहीं कि जो चाहे सो कर सके, तो उससे हमें क्या लाभ ?' अतएव कहते हैं-वे सर्वशक्तिमान् हैं। वे चाहे जब, चाहे सो कर सकते हैं। उनकी शक्तिको कोई रोक नहीं सकता।
'एक व्यक्तिमें मंगल, सर्वज्ञता एवं सर्वशक्तिमत्ता तो है पर वह हमारे किस कामकी ! वह हमारा काम क्यों करने लगा।' - इस शंकाके उत्तरमें कहते हैं- वे हमारे परम आत्मीय हैं। माता, पुत्र, स्त्री आदि सबसे अधिक (जिनको हम अपना अत्यन्त आत्मीय समझते हैं) निःस्वार्थ प्रेमी भगवान् हैं, अतएव वे हमारे मंगलका ध्यान सहज ही सबसे अधिक रखते हैं।
यदि हम इन चारों बातोंको ठीक तरहसे जान लें तो तत्काल अपने-आप भगवान्की शरण हो जायँ और हमें उसी क्षण शान्ति भी मिल जाय।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥
३१-साधना करनेवालेको साधक कहते हैं। जो भगवान्की साधना करता है, वह भगवत्साधक कहलाता है। ऐसे साधकोंके मोटे रूपमें तीन भेद होते हैं-
(१) मन्द - भगवान्को प्राप्त करना चाहता है, पर अन्य वस्तुओंके लिये जितनी चेष्टा होती है, उतनी भगवान्के लिये नहीं। 'सब कुछ छोड़कर भगवान्के लिये चेष्टा करनी चाहिये'- यह बात उसके हृदयमें बैठती ही नहीं-उसने तो कहीं सुन लिया, पढ़ लिया कि भगवान्की प्राप्ति करनी चाहिये, अतः उसके लिये उसको थोड़ी बहुत चेष्टा होती रहती है। जीवनके बहुत-से कामोंमें उसके लिये यह (भगवान्को प्राप्त करना) भी एक साधारण-सा काम है। अन्य कामोंसे भी यह कम महत्त्व रखता है, 'जब आज न हुआ तो क्या हुआ, कल कर लेंगे। जब दूसरा काम आवश्यक हो गया, जब भजनका काम आगे कर लेंगे, कभी कर लेंगे, इसमें कुछ हानि थोड़े ही है, परन्तु अन्य कामोंमें हानि हो जायगी।' जहाँ ऐसी स्थिति है वहाँ वह भगवान्को चाहता तो है, पर उनमें अत्यन्त गौण बुद्धि है। अतएव उसकी साधनामें भी गौण बुद्धि होती है।
(२) मध्यम - मध्यम साधक दोनों ओर खिंचता है- इधर संसारकी ओर भी जाता है, उधर भगवान्की ओर भी। रामकृष्ण परमहंसने मद साधकको विष्ठाकी मक्खीकी तुलना दी है। वह कभी-कभी मोठेपर भी जा बैठती है, पर यदि उसे कहीं मैला दीख आया तो वह चट उड़कर मैलेपर जा बैठती है। यही मन्द साधककी बात है। कभी-कभी भगवान्की ओर लगता है, परन्तु विषय-भोग दीखनेपर तुरन्त उसकी ओर दौड़ पड़ता है। पर मध्यम साधकमें यह बात नहीं। वह बीचकी स्थितिमें रहता है। उसकी दृष्टिमें संसारका काम आवश्यक है, पर साथ ही भगवान्का भजन भी उतना ही आवश्यक है। भगवान् और संसार दोनोंको वह समान महत्त्व देता है।
(३) उत्तम - उत्तम साधक संसारके काम करता है, पर या तो भगवत पुजा के रूप में या अत्यन्त गौण रूप से। परमार्थ साधना का न होना उसे सहन नहीं होता। जैसे मन्द साधक को सांसारिक काम की हानि सहन नहीं होती, ठीक उसी प्रकार भगवत स्मरण छूटना, भजनका छूटना उत्तम साधकको सहन नहीं होता।
उत्तम साधककी दृष्टिमें सांसारिक काम या तो बिलकुल गौण हो जाते हैं या साधनारूप ही बन जाते हैं। जैसे पतिव्रता स्त्रीका प्रत्येक कार्य सिद्धान्ततः पतिके लिये होता है; वह पतिके लिये ही जीती है। पतिके लिये ही खाती-पहनती है, वह पतिगतजीवना बन जाती है, उसका स्वतन्त्र कोई काम नहीं रह जाता। ठीक इसी प्रकार उत्तम साधकका अपना कोई काम नहीं रह जाता। युद्ध-सरीखे कर्मको भी, भगवान् अर्जुनसे कहते हैं, 'तू मेरे लिये कर' मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥
काँका भलीभाँति आचरण कर (समाचर) पर कर मेरे लिये ही (यज्ञार्थम्)। उत्तम साधक इसी सिद्धान्तपर चलता है। उसके समस्त कर्म, उसकी समस्त चेष्टाएँ भगवान्के लिये ही होती हैं, अपना अलग कुछ भी काम नहीं रह जाता। यदि वह इस स्थितिपर नहीं पहुँचा है तो भगवान्को छोड़कर सब कर्म उसके लिये गौण हो जाते हैं। वह भगवान्का लोभी जब भगवान्की प्राप्तिकी चेष्टामें लगता है, तब अन्य सब काम उसके लिये स्वभावतः गौण हो जाते हैं। हुए हुए, न हुए न हुए, विपरीत हुए तो भी बहुत ठीक। ऐसा जान-बूझकर करना नहीं चाहिये, असलमें होना चाहिये। किसी कामके न होनेपर यदि पश्चात्ताप होता है तो समझना चाहिये कि उस काममें हमारी भगवद्बुद्धि नहीं है। सब काम छूट जायँ यह आवश्यक है, पर जबतक उनमें तथा उनके फलमें ममता-आसक्ति है, तबतक हठपूर्वक छोड़नेकी आवश्यकता नहीं है। ज्यों-ज्यों भगवान्के प्रति आसक्ति बढ़ेगी, त्यों-ही-त्यों भोगोंमें आसक्ति स्वतः ही कम होती जायगी।
३२-भगवान्में और संसारमें जबतक तुलना-बुद्धि है, तबतक उत्तम साधकता नहीं आती। हीरेके साथ काँचकी तथा अमृतके साथ जहरकी तुलना ही नहीं बनती। यही बात भगवान्की और संसारकी है। दोनोंमें एकजातीयता ही नहीं, दोनों एक-दूसरेके विपरीत हैं तो उनकी तुलना कैसे बने ? हाँ, तब एकता होगी, जब संसारको हम संसाररूप देखकर भगवत्स्वरूप देख पायेंगे।
३३-पर जबतक जगत् भगवत्स्वरूप नहीं हो जाता, तबतक उसे छोड़नेका प्रयत्न तो करना चाहिये, पर हठसे नहीं, विवेकसे। उसकी दुःखदोषरूपता, अनित्यता और भगवान्के कारण ही सत्तारूपताको समझाकर हठ करनेसे वह बार-बार दौड़ेगा संसारकी ओर।
३४-त्याग वह है, जिसमें त्यागकी भी बात याद न रहे- त्याग का भी त्याग हो जाय। ।। उत्तम साधकसे त्याग होता है स्वाभाविक रूपसे, यह त्याग करता नहीं। हठपूर्वक किया हुआ त्याग टिकता नहीं। जो घरसे ऊबकर संन्यासी होते हैं, वे थोड़े दिनोंमें ही संन्याससे भी ऊब जाते हैं और प्रमाद करके संन्यास-आश्रम तथा वेशको भी कलंकित करते हैं; क्योंकि क्षोभसे, कौतूहलसे, जोशमें तथा ऊबकर जो संन्यास होता है, वह टिक नहीं सकता। अतएव धीरे-धीरे साधना करके त्यागके भावको स्वभावगत बनाना चाहिये, तभी स्थायी त्याग होता है।