भगवान्‌ के मार्ग पर आना ही कठिन है, मार्ग पर आ जाने पर तो सभी विघ्न नष्ट हो जाते हैं -द्वितीय माला

It is difficult to come on the path of God, once you come on the path, all obstacles are destroyed

SPRITUALITY

आदरणीय परम पूज्य श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी की लाभदायक पुस्तक 'सत्संग के बिखरे मोती '

11/4/20241 min read

६७-भगवान्‌के मार्गपर आना ही कठिन है। मार्ग पर आ जानेपर तो सभी विघ्न नष्ट हो जाते हैं

६८-भगवान्‌की ओर मुख किया कि सारे पाप कट जायेंगे।

६९-भगवान्‌की ओर मुँह फेरते ही भगवान् स्वीकार कर लेते हैं, इतना ही नहीं, वे अपनेको ऋणी मानने लगते हैं। भगवान् श्रीरामने कहा- 'विभीषणके पास मुझे ही चलकर जाना चाहिये

था, पर वह तो मेरे पास आ गया, यह तो मुझपर उसका ऋण हो गया।'

७०-शरण दो प्रकारकी होती है- बाह्य-शरण एवं आन्तरिक (शुद्ध) शरण।

७१-भगवान्‌की प्राप्तिके लिये यदि सभी चीजें छूटती हों तो भी परवा मत करो। जो सचमुच भगवान्‌को पानेके लिये भगवान्‌के मार्गपर चलता है, वह संसारके समस्त मोहको छोड़ देता है।

७२-विषयी और मुमुक्षुमें यही अन्तर है कि विषयीका मुख संसारकी ओर रहता है और मुमुक्षुका मुख भगवान्‌की ओर।

७३-विषयी और मुमुक्षु दोनोंके मार्गमें सर्वथा विरोध रहता है। विषयी चाहता है संसारका सुख, मुमुक्षु सांसारिक सुखोंका त्याग करता है। विषयी चाहता है मान-सम्मान, मुमुक्षु मान-सम्मानसे दूर भागता है। जिस-जिस चीजको विषयी चाहता है, मुमुक्षु उस-उस चीजका त्याग करता है; क्योंकि विषयीका लक्ष्य होता है विषयभोग और मुमुक्षुके लक्ष्य होते हैं भगवान्।

७४-रामके लिये आरामका त्याग करो। भरतजीने रामके लिये आरामका सर्वथा त्याग कर दिया था।

७५-गुरु वसिष्ठ एवं माता कौसल्यातकने भरतको राज्य स्वीकार करनेके लिये बड़ा आग्रह किया। यहाँतक कह दिया कि 'बेटा! यह गुरुकी आज्ञा है, माताकी आज्ञा है, यह धर्म-पालन है।' पर भरतजी नहीं फँसे ! साधकोंके जीवनमें भी धर्मके नामपर इसी प्रकारके प्रलोभन आते हैं।

७६-राज्यलक्ष्मी श्रीरामकी भोग्या थी, फिर भरत उसे क्योंकर भोग सकते थे।

७७-लक्ष्मी भगवान्‌की भोग्या हैं; ये तुम्हारे पास हों तो उन्हें माँ समझकर इनकी सेवा करो; इन्हें भगवान्‌की सेवामें लगाते रहना ही इनकी सेवा करना है। इन्हें अपनी भोग्या मत समझो।

७८-तुम्हारे पास जो कुछ है, उसमें केवल तुम्हारा ही नहीं बहुतोंका हिस्सा है। सबको हिस्सा देकर जो बचे, वही यज्ञशेष है। उसे भोगो, उसे ही खाओ। वह अमृत है। ऐसा नहीं करते तो समझो तुम चोर हो, पापजीवन हो।

७९-सभी चीजें भगवान्‌की हैं, पर जब मनुष्य उन चीजोंको अपनी मान लेता है, तब फिर पाप आये बिना नहीं रहते।

८०-मनुष्य विषयोंमें इतना रच-पच गया है कि कहीं कभी भगवान्‌को स्मरण करता भी है तो विषयोंके लिये ही करता है। इस प्रकारके भगवत्स्मरणमें साध्य भगवान् नहीं हैं। साध्य तो विषय है और विषय-प्राप्तिके लिये साधन भगवान् हैं; पर इस प्रकार विषयोंके लिये भी सचमुच भगवान्‌को भजनेवाले बहुत ही थोड़े होते हैं।

८१-सकामी भक्तोंमें यह दृढ़ विश्वास होता है कि भगवान् निश्चय ही मेरी कामना पूर्ण कर देंगे। वे एकमात्र भगवान्‌को ही अपनी कामना पूर्तिके लिये अवलम्बन बनाते हैं।

८२-ध्रुवजीको राज्य चाहिये था, उन्होंने सब भरोसा छोड़कर भगवान्‌को पुकारा। इसी प्रकार यदि कोई विश्वासपूर्वक धनके लिये आज भी भगवान्‌को पुकारे तो भगवान् अवश्य सुनें। पर हमलोग धनके लिये दूसरा ही आश्रय लेते हैं। कुछ लोग अन्य पुरुषार्थके ऊपर निर्भर करते हैं और कुछ लोग तो चोरी, डकैती, पाप आदिको धन प्राप्ति का साधन बनाते हैं। इन अन्तिम श्रेणीके लोगोंको धन तो तभी मिलता है, जबकि प्रारब्धमें होता है, प्रारब्धमें नहीं होता तो नहीं मिलता, पर पाप इनके पल्ले अवश्य बँध जाते हैं, जिनका फल दुःख और नरक मिलना निश्चित है।

८३-एक आदमी है। वह धन चाहता है, पर चाहता है भगवान्से। उसे धन भी मिलेगा और अन्तमें भगवान्‌की प्राप्ति भी होगी। धनके लिये भी केवल भगवान्‌का आश्रय लेना बड़ा कठिन है।

८४-यदि अनन्य आश्रय भगवान्‌का हो तो जो कुछ भी हमारे लिये आवश्यक होगा, भगवान् हमारे पास निश्चय ही उसे स्वयं पहुँचा देंगे। पर अनन्य-आश्रय ही नहीं होता, मन डिग जाता है, भगवान् करेंगे कि नहीं ऐसा सन्देह उत्पन्न हो जाता है और हम दूसरे-दूसरे उपायोंका अवलम्बन करने लग जाते हैं।

८५-भगवान्पर पूरा विश्वास होनेपर भगवान्‌की ओरसे निश्चय योगक्षेमका निर्वाह होगा ही। नहीं होता है तो निश्चय ही विश्वासमें कमी है।

८६-भगवान्पर पूरी निष्ठा होनी चाहिये, फिर जिस प्रकार भगवान् द्रौपदीके लिये साड़ी बन गये, वैसी घटना आज भी हो सकती है।

८७-गजराजको भगवान्ने स्वयं आकर उबारा, धन्ना भक्तके खेतमें स्वयं भगवान् पधारे, माधवदासजी एक भक्त थे, उन्हें टट्टी लगती थी। भगवान्ने स्वयं अपने हाथोंसे उनका मल धोया। इसी प्रकारकी घटना आज भी सम्भव है, पर भगवान्पर विश्वास नहीं, उनका आश्रय नहीं, इसलिये ये बातें असम्भव-सी मालूम पड़ने लग जाती हैं।

८८-भगवान्में एक दोष है, वह यह कि उन्हें दूसरा नहीं सुहाता। वे पूरी-पूरी निर्भरता चाहते हैं।

८९-वर्तमान युद्धसे लोग बहुत घबड़ाये हुए हैं, पर शान्ति का जो असली उपाय है उसे करते नहीं। शान्तिके लिये तीन बातें करें-

(क) मनसे अपने-आपको, अपनी समस्त वस्तुओंको भगवान्‌के अर्पण कर दें।

(ख) 'हरिःशरणम्' इस मन्त्रका जप चलते-फिरते, उठते- बैठते, खाते-पीते निरन्तर करते रहें।

(ग) भगवान्से प्रार्थना करें- प्रभो ! तुम्हें जो ठीक जँचे, वही करो। हमारी चाह यदि तुम्हारी चाहके विपरीत हो तो उसे नष्ट कर दो। नाथ! तुम्हारी चाह मंगलमयी है, मैं तो भूल भी कर सकता हूँ। नाथ! बच्चा यदि आगमें हाथ डालना चाहता है, तो क्या माँ हाथ डालने देती है? स्वामिन् ! मैं भी अबोध बच्चेकी तरह अमंगलको मंगल मान सकता हूँ, पर तुम मेरी चाहकी ओर ध्यान मत दो, मुझे रोने दो, तुम अपनी इच्छा पूरी करो।

९०-यदि उपर्युक्त तीन बातें करने लगें तो निश्चित है-कभी अमंगल नहीं हो सकता।

९१-हम जिस बातमें अपना मंगल मानते हैं, कौन जानता है- उसमें शायद अमंगल-ही-अमंगल भरा हो। पर भगवान् जानते हैं। जहाँ भगवान्पर छोड़ा कि वे बचा लेंगे, हमारी बुद्धि तो परिमित है। हम दूरकी बात नहीं सोच सकते, नहीं जानते, पर भगवान् सर्वज्ञ हैं, उनसे कभी भूल नहीं हो सकती। इसलिये अपना मंगल भगवान्पर छोड़ दो, इसीमें बुद्धिमानी है।

९२-हमारे हाथमें एक लड्डू है, ताजा है, मीठा, रसीला, सभी तरह सुन्दर है, पर उसमें संखिया मिला हुआ है, हम उसे नहीं जानते, हम केवल बाहरी सुन्दरता-मिठासपर मुग्ध होते हैं, ऐसे ही बहुत बार, जिससे हमारी हानि होगी, उसमें हम मंगल मान बैठते हैं। ऐसी भूल हमसे होती

ही है। उधर भगवान्से कुछ नहीं छिपा है, उनसे भूल होती ही नहीं। ९३-घर-घरमें कीर्तन कीजिये, फिर अमंगल दूर हो जायगा।