भक्ति की सबसे प्यारी बात – जब आपकी रक्षा स्वयं भगवान करते हैं Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj Pravachan
Explore the profound teachings of Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj on Ananyata Bhakti, the principle of exclusive devotion to God, emphasizing surrender and unwavering love for Shri Radha Krishna.
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भक्ति की सबसे प्यारी बात – जब आपकी रक्षा स्वयं भगवान करते हैं
Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj Pravachan
परिचय
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज, जिन्हें ‘जगद्गुरुत्तम’ की उपाधि से विभूषित किया गया है, ने अपने दिव्य प्रवचनों के माध्यम से संसार को भक्ति का सच्चा मार्ग दिखाया है। इस विशेष प्रवचन में वे अनन्यता भक्ति (Exclusive Devotion) के सिद्धांत को सरल एवं प्रेरक उदाहरणों के साथ समझाते हैं। वे बताते हैं कि जब साधक पूरी तरह से भगवान की शरण में आ जाता है, तो उसकी रक्षा स्वयं भगवान करते हैं – यह भक्ति की सबसे प्यारी बात है।
अनन्यता भक्ति क्या है?
अनन्यता का अर्थ है – ‘ना + अन्य’ यानी, हृदय में केवल भगवान (यहाँ श्री राधा-कृष्ण) के प्रति ही प्रेम और समर्पण हो, किसी अन्य वस्तु, व्यक्ति या इच्छा के लिए नहीं3। श्री कृपालु जी महाराज बताते हैं कि अनन्य भक्ति में साधक का मन, बुद्धि और हृदय केवल अपने इष्टदेव में ही लगे रहते हैं। यदि मन संसार या किसी अन्य में आसक्त हुआ, तो वह अनन्यता नहीं रह जाती।
भगवान की शरणागति और योगक्षेम
श्रीमद्भगवद्गीता के प्रसिद्ध श्लोक “योगक्षेमं वहाम्यहम्” का उल्लेख करते हुए महाराज जी समझाते हैं कि जो भक्त अपने सारे लौकिक और वैदिक कर्मों का परित्याग कर केवल भगवान की भक्ति करता है, उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति और रक्षा स्वयं भगवान करते हैं। इसका अर्थ यह है कि भक्त को अपने जीवन की चिंता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि भगवान उसके योग (जो नहीं मिला, उसे देना) और क्षेम (जो मिला है, उसकी रक्षा करना) का दायित्व स्वयं लेते हैं।
अनन्य भक्ति के मार्ग में बाधाएँ
महाराज जी प्रवचन में स्पष्ट करते हैं कि अनन्यता में सबसे बड़ी बाधा है – अन्य का आश्रय लेना। यह ‘अन्य’ कई प्रकार के हो सकते हैं:
धन, संपत्ति या पद का आश्रय: यदि साधक धन या सामाजिक प्रतिष्ठा पर निर्भर है, तो वह अनन्य नहीं बन सकता।
परिवार, मित्र या अन्य जीवों का आश्रय: किसी भी जीव के शरीर या चित्तवृत्ति का कोई भरोसा नहीं, इसलिए उनका आश्रय लेना व्यर्थ है।
स्वयं के बल का अहंकार: अपने बल, योग्यता या बुद्धि पर अहंकार करना भी अनन्यता में बाधा है।
देवताओं का आश्रय: वेदों में वर्णित इंद्र आदि देवताओं की पूजा भी यदि मुख्य आश्रय बन जाए, तो वह अनन्यता नहीं रह जाती।
अनन्यता के उदाहरण
महाराज जी ने महाभारत, भागवत एवं संतों के जीवन से कई प्रेरक उदाहरण दिए:
द्रौपदी का प्रसंग: जब द्रौपदी ने अपने बल का आश्रय छोड़ा और दोनों हाथ ऊपर उठाकर पूर्ण शरणागति की, तभी भगवान ने उसकी रक्षा की।
ब्रजवासियों की इंद्र पूजा: श्रीकृष्ण ने इंद्र पूजा का विरोध कर ब्रजवासियों को केवल अपनी भक्ति में लगने की प्रेरणा दी।
गोपियों का कात्यायनी व्रत: गोपियों ने देवी को नमस्कार किया, परंतु उनका मन केवल श्रीकृष्ण में ही लगा रहा – यही अनन्यता है।
अनन्यता का महत्व और साधना
श्री कृपालु जी महाराज के अनुसार, अनन्य भक्ति साधना का सर्वोच्च लक्ष्य है। जब साधक अपने मन, वचन और कर्म से केवल भगवान की सेवा, स्मरण और प्रेम में लीन रहता है, तब भगवान स्वयं उसके रक्षक बन जाते हैं।
भक्ति में अनन्यता लाने के लिए साधक को चाहिए कि वह अपने मन से सभी अन्य आश्रयों का त्याग करे और निरंतर अपने इष्टदेव के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम एवं संतों में ही मन लगाए।
संसार के प्रति केवल कर्तव्य भावना रखें, परंतु मन का अटैचमेंट केवल भगवान में हो।
सच्ची अनन्यता में भगवान के व्यवहार (प्रसन्नता, अप्रसन्नता या तटस्थता) से भी भक्त का प्रेम कम नहीं होता – वह सदा समर्पित रहता है।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज का योगदान
श्री कृपालु जी महाराज ने ‘प्रेम रस मदिरा’, ‘प्रेम रस सिद्धांत’, ‘राधा गोविन्द गीत’ जैसे दिव्य ग्रंथों की रचना की है, जो संसार को भक्ति का सच्चा मार्ग दिखाते हैं। उनके द्वारा स्थापित भक्ति मंदिर (मंगढ़), प्रेम मंदिर (वृंदावन), कीर्ति मंदिर (बरसाना) आज भी भक्ति की प्रेरणा देते हैं।
निष्कर्ष
अनन्यता भक्ति का सार यही है कि साधक अपने मन, बुद्धि और हृदय से केवल भगवान को ही अपना सर्वस्व माने और अन्य किसी भी वस्तु, व्यक्ति या इच्छा का आश्रय न ले। जब भक्त पूरी तरह भगवान की शरण में आ जाता है, तब उसकी रक्षा स्वयं भगवान करते हैं – यही भक्ति की सबसे प्यारी बात है।