नौकरी और मुक़ाम की इच्छाएं भक्ति में बाधा बनती हैं? – श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज का मार्गदर्शन
क्या नौकरी और जीवन में मुक़ाम पाने की इच्छाएं आपकी भक्ति में बाधा हैं? जानिए श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के अद्भुत विचार और समाधान, जिससे सांसारिक कर्तव्यों के साथ भी सच्ची भक्ति संभव है।
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नौकरी, मुक़ाम और भक्ति – क्या है असली बाधा?
बहुत से लोग जब भक्ति के मार्ग पर बढ़ते हैं, तो उनके मन में यह सवाल आता है कि क्या सांसारिक जिम्मेदारियां, नौकरी, व्यापार या जीवन में आगे बढ़ने की इच्छाएं भक्ति में बाधा बनती हैं? श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज ने इस विषय पर 10 जून 2025 के एकांतिक वार्तालाप में गहरा और व्यावहारिक समाधान दिया है1।
महाराज जी का स्पष्ट उत्तर: “कोई बाधा नहीं”
महाराज जी कहते हैं –
“नौकरी और मुक़ाम हासिल करने की इच्छाएं कोई बाधा नहीं हैं। संसार की हर क्रिया को हम भगवान की पूजा बना लें, तो भक्ति में कोई बाधा नहीं रह जाती।”
वे समझाते हैं कि जीवन में आगे बढ़ना, नौकरी करना, व्यापार करना या किसी भी क्षेत्र में उन्नति की चाह रखना स्वाभाविक है। लेकिन इनका भक्ति में बाधक होना हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। असली बाधा तब आती है जब हम अपने कर्तव्यों को भगवान से अलग मानने लगते हैं या उनमें अधर्म, बेईमानी या दूसरों का अहित जोड़ देते हैं।
सांसारिक कर्तव्य भी बन सकते हैं पूजा
महाराज जी कहते हैं –
“आप अधिकारी हैं, किसी डिपार्टमेंट में हैं, तो घूस मत लीजिए, अधर्म का पैसा मत लीजिए। धर्म से चलिए, जो सरकारी वेतन मिलता है, उसी से परिवार का पोषण कीजिए, दोषियों को दंड दीजिए, निर्दोष को बख्श दीजिए। अपने आप आनंद आने लगेगा, अपने आप आपकी धर्ममय पूजा होने लगेगी।”
व्यापारी के लिए ईमानदारी से तौलना, सही मुनाफा रखना और अच्छा माल देना – यह भी भगवत पूजा है। किसान के लिए ईमानदारी से खेती करना, यही पूजा है। भक्ति कार्य का परिवर्तन नहीं करती, भक्ति भाव का परिवर्तन करती है।
“भक्ति जो जहां है, वहीं सही कार्य करने के लिए कहती है।”
गीता का उदाहरण: अर्जुन और युद्ध
महाराज जी भगवद्गीता का उदाहरण देते हैं –
“अर्जुन को जब युद्ध से हटने की इच्छा हुई, तो भगवान ने कहा – नहीं, तुम्हें युद्ध करना है, राज करना है। भक्ति कार्य का परिवर्तन नहीं करती, भक्ति भाव का परिवर्तन करती है।”
इसलिए, जो भी कार्य करें, उसे भगवान को समर्पित भाव से करें। यही सच्ची भक्ति है।
ऑफिस, व्यापार, नौकरी – सब में भक्ति कैसे?
महाराज जी बताते हैं –
“ऑफिस में इधर-उधर की बातें होती हैं, तो उन्हें काटना चाहिए। ऑफिस में बैठना है, तो जानिए कि यह अर्थोपार्जन के लिए सेवा है, इससे हमारा असली संबंध नहीं है। उद्देश्य अंदर-अंदर चलता रहे – राधा राधा, यह सब नाटक है, माया है। बाहर से सामान्य व्यवहार करें, लेकिन भीतर से भगवान का नाम जपते रहें।”
जैसे नाटक में कोई पुरुष स्त्री का रोल निभाता है, लेकिन जानता है कि असल में वह पुरुष है, वैसे ही सांसारिक भूमिकाएं निभाइए, लेकिन भीतर से भगवान को न भूलिए।
कर्म को भगवान को समर्पित करें
महाराज जी कहते हैं –
“हर कार्य को भगवान के लिए करें, तो बड़ा आनंद रहेगा, बड़ी प्रसन्नता रहेगी। सेवा संसार की दी है, तो हम कर रहे हैं। हमें आपसे कोई मतलब नहीं, हम अपने मालिक की आज्ञा का पालन कर रहे हैं।”
हर कर्म में भगवान का भाव जोड़ने से वह पूजा बन जाता है। यही संतों का मार्ग है।
मन में विक्षेप क्यों आता है?
महाराज जी बताते हैं –
“विक्षेप इसीलिए आता है कि हम संसार के कार्य को सत्य मान लेते हैं। अगर उसे नाटक मानें, भगवान की सेवा मानें, तो कोई विक्षेप नहीं आएगा।”
सतत नाम जप, भगवान का स्मरण, और अपने कर्तव्यों को भगवान को अर्पित भाव से करना – यही समाधान है।
संक्षिप्त सूत्र
नौकरी, व्यापार, मुक़ाम की इच्छा भक्ति में बाधा नहीं है।
हर कार्य को भगवान की पूजा बना लें।
ईमानदारी, धर्म, सेवा और नाम जप को जीवन में उतारें।
कर्म को भगवान को समर्पित करें, विक्षेप नहीं आएगा।
संसार के कार्य को नाटक समझें, सत्य न मानें।
जीवन में उतारें – श्री महाराज जी के अमूल्य सूत्र
जहां हैं, वहीं से भक्ति शुरू करें।
अपने कर्म को शुद्ध, ईमानदार और धर्मयुक्त बनाएं।
हर सांसारिक कर्म को भगवान को समर्पित करें।
नाम जप और सत्संग से मन को मजबूत करें।
संसार के कार्य को नाटक मानें, सत्य न मानें।
भीतर से भगवान का स्मरण, बाहर से सामान्य व्यवहार।
कभी भी अपने कर्तव्यों को भक्ति के विरोध में न मानें।
निष्कर्ष
श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के अनुसार, नौकरी और मुक़ाम की इच्छाएं भक्ति में बाधा नहीं हैं, यदि हम अपने हर कार्य को भगवान की पूजा बना लें, ईमानदारी से चलें और अपने कर्म को भगवान को समर्पित करें। भक्ति भाव का परिवर्तन चाहिए, कार्य का नहीं। यही सच्चा संत मार्ग है, जिससे सांसारिक जीवन भी सफल और भक्ति भी अखंड बनी रहती है1।
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