बना दो बुद्धिहीन, भगवान !

Make me mindless, God!

SPRITUALITY

आदरणीय परम पूज्य श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी की लाभदायक पुस्तक 'सत्संग के बिखरे मोती '

2/10/20251 min read

४६-कोई भाग्यवान् व्यक्ति निष्काम भावसे भगवान्‌ की भक्ति करता है तो भगवान् अपने सच्चिदानन्द विग्रह से उसके सामने प्रकट होते हैं। पर श्रीभगवान्‌ को भजकर, भगवान्‌की आराधनाके बदलेमें, भगवत्प्रेमके बदलेमें जो भुक्ति-मुक्ति और सिद्धि चाहते हैं, वे भक्त ही नहीं हैं; वे भक्तिके महत्त्वको जानते ही नहीं। भुक्ति, मुक्ति और सिद्धि-ये भक्तिके वास्तविक फल नहीं हैं; भुक्ति, मुक्ति और सिद्धि तो भक्तिकी चेरियाँ हैं। वस्तुतः भगवान्‌के दिव्य लीलाविग्रहका दर्शन, उनकी नित्यसेवाका अधिकार-यही भक्तिका, भगवत्प्रेमका फल है।

४७-साधक वह है, जो किसी सिद्धिके लिये चेष्टा करता है, किसी चीजके साधनमें लगा है। भगवत्प्राप्तिका साधन ही परम साधन है; क्योंकि भगवान्‌को पानेके बाद कुछ भी पाना रह नहीं जाता। प्रभुको जिसने अपने जीवनका लक्ष्य बना लिया, उसका जीवन कैसा होना चाहिये, इसीपर यहाँ कुछ विचार करना है।

४८-सबसे पहली और सबसे मुख्य बात है लक्ष्यकी स्थिरता और लक्ष्य स्थिर हो जानेपर प्राणपणसे उसकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न। 'कार्य वा साधयामि शरीरं वा पातयामि।' शरीरतकको भी लक्ष्यके लिये आगमें झोंक दे, सर्वथा समर्पित कर दे। सारी इन्द्रियोंसे केवल एक भगवान्‌की ही सेवा हो, सब श्रीभगवान्‌के काममें ही लगी रहें। बाहरी और भीतरी-दोनों ही प्रकारकी इन्द्रियाँ भगवान्की सेवामें लगी रहें।

४९-साधकको चाहिये, एक भगवान्‌को छोड़कर अन्य सभी बातोंके लिये-विषयोंके लिये वह बुद्धिहीन हो जाय, अन्धा हो जाय, बहरा हो जाय, गूँगा हो जाय, लूला हो जाय और लँगड़ा हो जाय।

५०-इसका कारण यह है-इन्हीं मन, बुद्धि और इन्द्रियोंसे भगवान्‌की प्राप्ति भी होती है और इन्हींसे विषयोंका सेवन भी। परन्तु यह है एक दूसरेका सर्वथा विरोधी। इस अवस्थासे जो भगवद्विरोधी साधन हैं, जो विषयोंमें फँसानेवाले विषय हैं, उनका हठपूर्वक परित्याग कर दे और जो प्रभुके मार्गमें ले जानेवाले साधन हैं, उनका दृढ़तासे ग्रहण करके पूरी निष्ठा एवं लगनसे उनमें लगा रहे। विषय भगवत्पथमें भयंकर बटमार हैं और स्थान-स्थानपर खड़े रहते हैं। बड़ी सावधानी और सतर्कताके साथ इनसे बचता हुआ चले। साधक यदि निरन्तर अपने लक्ष्यका स्मरण रखे तो भगवत्कृपासे वह कभी भी पथभ्रष्ट नहीं हो सकता।

५१-सब इन्द्रियाँ भगवान्‌को ही विषय करें। कानसे उन्हींका नाम सुनें, आँखोंसे उन्हींका रूप देखें, हाथोंसे उन्हींकी सेवा करें, पैरोंसे उन्हींके पुण्य-तीर्थोंमें भ्रमण करें, बुद्धिसे भी उन्हींको समझें। 'उन' एकके सिवा इन्द्रियाँ किसीको कुछ जानें ही नहीं-

कान न दूसरो नाम सुनै नहिं, एकहि रंग रँगौ यह डोरो। धोखेहु दूसरो नाम कढ़े, रसना मुख बाँधि हलाहल बोरो ॥ ठाकुर चित्तको वृत्ति यहै, हम कैसेहु टेक तजैं नहिं भोरो। बावरी वे अँखियाँ जरि जायँ जो साँवरो छाड़ि निहारति गोरो ॥

५२-समस्त अंग केवल उसीका अनुभव कर रहे हैं। सम्पूर्ण इन्द्रियाँ उसी एकको विषय कर रही हैं। आँखें सम्पूर्ण विश्वको श्याममय देखती हैं। जबतक मनुष्य दूसरी बात देखता-सुनता है, सोचता-विचारता है, तबतक उसकी बुद्धि बहुशाखावाली है, व्यभिचारिणी है।

५३-संसारके सुधारके लिये साधक परेशान न हो, पहली बात और सबसे मुख्य बात तो उसके लिये यही है कि लक्ष्यतक किस प्रकार पहुँचा जाय। संसारकी दृष्टिमें जो अधिक बुद्धिमान् बनता है, उसीके लिये अधिक खतरा है। जगत्में मूर्ख कहलाना बुरा नहीं, यदि वास्तवमें हम मूर्ख न हों। असलमें मूर्ख वही है, जो भगवान्से विमुख है। जो बुद्धि हमें नरकाग्निमें ढकेल देती है, जिसके द्वारा हम विषय-प्रवाहमें बह जाते हैं, वह बुद्धि किस कामकी ? जो बुद्धि हमें सुखके केन्द्रसे हटाकर दुःखके केन्द्रमें पहुँचा देती है, जिसके कारण हम हीरेको खोकर बदलेमें काँच ले लेते हैं, वह बुद्धि हमारी सच्ची हितकारिणी कहाँ है।

५४-मनुष्यका शरीर इसलिये थोड़े ही मिला है कि हम आकण्ठ गंदे भोग-समुद्रमें ही डूबे रहें-

एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ॥

नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं ॥

ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई ॥

अमृतको खोकर विष लेनेवाला, पारसको खोकर घुँघची लेनेवाला मूर्ख नहीं तो क्या है? भगवान्‌को छोड़कर विषयोंका सेवन करनेवाला तो उससे भी भारी मूर्ख है; क्योंकि वह मूर्खतावश अपनेको नरक-कुण्डमें डालनेका उपाय सोच रहा है।

५५-बुद्धिमान् तो वास्तवमें वह है, जो नित्य भगवच्चरण-चिन्तनमें लगा है, भगवान्‌को भूलकर विषयोंका सेवन करनेवाला तो महामूर्ख है। विषयोंकी ओरसे मूर्ख बन जाय। भजनका धन बटोरनेमें लगा रहे। प्रपंचसे मुख मोड़ ले। जगत्में बुद्धिमान् कहलाया कि डूबा, बोला कि फँसा। बुद्धिमानी की कि गया।

५६-श्रीशत्रुघ्नजी जीवनभर नहीं बोले। वे तो प्रभुके भक्तके भक्त थे। भरतजीके संकेतपर नाचना ही उनका एकमात्र काम था। वे भरतजीकी छाया बनकर रहे। पर लवणासुरके मारनेका जब अवसर आया, तब वे भगवान् राघवेन्द्रसे बोल उठे कि आज्ञा हो तो मैं उसका वध कर आऊँ। भगवान्ने कहा- 'बहुत ठीक, पर तुम्हें मेरी आज्ञा नहीं टालनी होगी, जाओ, उसे जीतकर वहीं राज्य करो।' शत्रुघ्नजीने कहा- 'भगवन् ! बीचमें बोलने और अपनी बुद्धिका परिचय देनेका मुझे तत्काल ही फल मिल गया। आपका वियोग हो गया।'

५७-जहाँ संसारकी बातोंमें अपनी बुद्धिमानी प्रकट की कि लोग उसकी बुद्धिमानीका लाभ उठाने लगेंगे और वह व्यक्ति भगवत्प्राप्तिकी साधनासे हटकर विषयोंमें जा फँसेगा। मान-सम्मानकी वर्षा उसे बहा ले जायगी। जो संसारके लिये भोला है, गँवार है, वही मजेमें चुपचाप भगवान्‌का भजन कर सकता है। साधकके लिये जगत्‌की बुद्धिमानी बहुत बड़ा विघ्न है। जिस बुद्धिसे संसारमें पचना पड़े, असलमें उस बुद्धिको बुद्धि नहीं कह सकते। जगत्‌की ओरसे बुद्धिहीन हो जाय, उसकी बुद्धि जगत्‌को सोचे ही नहीं।

५८-प्रपंचमें फँसे हुए व्यक्तिसे अनन्य साधना हो नहीं सकती ! बस, जडभरत बन जाय। जडभरत संसारकी दृष्टिमें बुद्धिहीन था, पर वास्तवमें वह कितना बुद्धिमान् था, इसका अनुमान भी हम नहीं कर सकते। जगत्की ओर अपनी बुद्धि न लगावे, नहीं तो फँसना पड़ेगा।

५९-असलमें शुद्ध बुद्धि भगवान्‌के सिवा और कहीं लगती ही नहीं। बुद्धि जो निश्चयात्मिका होती है, वह 'एक' होती है। बहुशाखावाली नहीं होती। वह बुद्धि जल जाय, जो हमें अधिकाधिक जगत्के जालमें फँसाती जा रही हो। ऐसी बुद्धिके नाशके लिये तो भगवान्से प्रार्थना करे-

बना दो बुद्धिहीन भगवान !

भर दो हृदय भक्ति-श्रद्धासे करो प्रेमका दान।

प्रेमसिन्धु निज मध्य डुबाकर मेटो नाम-निसान ॥