मनुष्य हर चीज पर अधिकार मानता है. पर मरने पर कफनके लिये कपड़े के एक टुकड़े पर भी उसका अधिकार नहीं है! वह भी बाजार से आता है।
Man claims to have rights over everything. But after death he does not have rights over even a piece of cloth for the shroud! That too comes from the market.
SPRITUALITY


७७. मनुष्य घर की एक एक चीज पर अपना अधिकार मानता है. पर मरने पर क्या होता है? कफनके लिये कपड़ेके एक टुकड़ेपर भी उसका अधिकार नहीं है! वह भी बाजारसे आता है। सोचिये, मनुष्य कितने भ्रममें पड़ा है।
७८-चाहे अरबपति हो या दरिद्र - शरीर तो मिट्टीमें मिलेगा ही।
७९-कमाया हुआ धन तो यहीं रह जाता है। पर कमानेके समय जो पाप हुआ, उसका दुरुपयोग करते समय जो पाप हुआ, वह मनुष्यके साथ जाता है तथा परिणाममें महान् दुःख देता है।
८०-कोई अपनेको मूर्ख नहीं समझता; पर जिसका जीवन भोगोंकी सेवामें जा रहा है, असलमें महामूर्ख है।
८१-वही बुद्धिमान् है जो भोगोंमें नहीं रमता।
८२-संसारमें जितने भी विषय भोग हैं, भोगते समय तो वे अमृततुल्य सुखदायक प्रतीत होते हैं; पर परिणाममें वे निश्चय ही विषके समान दुःख देनेवाले होते हैं। धन, अधिकार, कपड़े, गहने, आराम, नामकीर्ति आदि समस्त भोगोंकी यही दशा है।
८३-मान लें-किसीके पास बीस मकान हो गये। तो इससे क्या हुआ ? क्या वह बीसोंमें एक साथ सोता है? नहीं सोता - उसे तो वही साढ़े तीन हाथ जगह ही सोनेको मिलती है। केवल यह अभिमान पल्ले बँध जाता है कि मैं बीस मकानोंका मालिक हूँ। मरनेके बाद मकान तो यहीं रह जायँगे और वह इन्हें छोड़कर चला जायगा। मकानोंमें मन फँसा रहनेके कारण मरते दमतक चिन्ता बनी रही, रात-दिन सोचमें डूबे रहे और अन्तमें मालिकी भी निश्चय छिन जायगी। सोचो, मनुष्य इन तुच्छ विषयोंमें मन फँसाकर कितनी मूर्खता करता है।
८४-सुख-दुःख मनकी कल्पना है। एक आदमी है। बराबर गद्देपर बैठनेकी आदत है। दिन पलटे। धन गया। अब गद्दे नहीं हैं। पालपर बैठना पड़ता है। अब पालपर तो हमलोग नित्य ही बैठते हैं। किसीको दुःख नहीं होता। पर वह यदि कल्पना कर ले कि 'हाय ! मेरे दिन ऐसे खराब हो गये कि मुझे पालपर बैठना पड़ता है, तो दुःखी हो जाता है। यह नहीं करके सोच ले कि-पालपर बैठना तो बहुत ही उत्तम बात है- सादगीसे जीवन बितानेका चिह्न है, तो बस सुखी हो जाता है। अतः सुख-दुःख गद्दे एवं पालमें नहीं हैं, वे हैं मनकी कल्पनामें।
८५-चाहे कोई बड़े-से-बड़ा आदमी हो, सन्त हो, महात्मा हो, पर स्त्री-जातिको चाहिये कि उसका स्पर्श न करे। अपने पतिको छोड़कर युवतीको किसी भी पुरुषका स्पर्श कभी भी नहीं करना चाहिये।
८६-पुरुषको चाहिये कि पर-स्त्रीमें मातृभाव अथवा भगवद्भाव करे। उसे अभ्यास करना चाहिये कि जहाँतक हो सके पर स्त्रीका मुख देखे ही नहीं।
८७-ज्योतिको देखकर पतंगा उसकी ओर दौड़ता है और जहाँ समीप गया तथा उस रूपको अपनाना चाहा कि जलकर खाक हो गया। विषयोंकी ओर मन चलनेपर लोगोंकी यही दशा होती है।
८८-जिस प्रकार धर्मशालामें रहा जाता है, वैसे ही संसारमें रहो। धर्मशालामें रहनेवालोंको चाहिये कि वहाँके आदमियोंसे प्रेम रखे। जहाँतक सम्भव हो, उनको सुख दे। ऐसा करनेसे वह भी सुख पायेगा। इसी प्रकार संसारको धर्मशाला मानकर सबसे प्रेम करो। जहाँतक हो सबको दो, फिर तुम भी सुख पाओगे।
८९-मनुष्यशरीर धर्मशाला है। हमलोग मुसाफिर हैं। कुछ देरके लिये ठहरे हुए हैं, फिर घर पहुँचनेके लिये यात्रामें चल पड़ेंगे। भगवान्के पास पहुँचना ही घर पहुँचना है- इस बातको भूलकर कहीं धर्मशालाको ही अपना घर मान लोगे तो धर्मशाला तो छूटेगी ही प्रत्युत फौजदारीका मुकद्दमा चलेगा, फँस जाओगे ऐसी मूर्खता मत करो।
९०-जहाँ स्वार्थ है, वहीं वैर होता है। त्यागमें वैर नहीं होता। भगवान् राम कहते हैं- ' भरत! राज्य तुम्हारा है। पिताजी दे गये, तुम राज्य भोगो।' भरत कहते हैं- 'राज्य आपका है। मेरा हो ही नहीं सकता।' अब वहाँ लड़ाई कैसे हो ?
९१-राग और द्वेष विवेककी आँखोंको बदल देते हैं। जहाँ राग होगा- वहाँ दोष भी गुण दीखेगा। जहाँ द्वेष होगा- वहाँ गुण भी दोष दीखेगा।
९२-यदि हमारे शरीर तथा वाणीसे बुरे कर्म होते हैं तो यह मान लेना चाहिये कि निश्चय ही हमारे मनमें बुराई भरी है।
९३-संसारमें भोग प्राप्त हो जाना उन्नति है। जिसका हृदय उन्नत है, मन शुद्ध है, जिसके मनमें भगवान् बसते हैं- वहाँ असलमें उन्नति है, उसीने अपनी असली उन्नति की है।
९४-जिसके मनमें बुरे विचार बसते हैं, उसे समझना चाहिये कि मेरे मनमें चोर, वैरी एवं साँप बसते हैं- ये मुझे मार डालेंगे। अतः इन्हें जिस किसी प्रकारसे भी बाहर निकाल फेंके अथवा अन्दर-ही- अन्दर इन्हें नष्ट कर दे।
९५-मानसरोग सबसे बड़ा रोग है। शरीरका रोग तो इसी जीवनमें दुःख देगा और मरनेके साथ ही मर जायगा! पर मानसरोग तो मरनेके बाद भी साथ जायगा।
९६-मनुष्य-जन्ममें ही मनुष्य अपने मनकी गन्दगी सर्वथा मिटा सकता है। वह मनुष्य जन्म हमलोगोंको प्राप्त है। भगवन्नामरूप अग्निसे मनकी सारी गन्दगी जला डालिये।
९७-किसीके प्रति वैरकी भावना लेकर मत मरो। नहीं तो यह वैरकी भावना जन्मान्तरमें भी तुम्हारे साथ जायगी और तुम्हें जलाती रहेगी। न मालूम कैसी-कैसी बीभत्स यन्त्रणामयी पिशाच-योनिमें भटकना पड़ेगा।
९८-अपने मनका दोष ही दूसरोंपर आरोपित होता है। दो जवान भाई-बहिन हँस-हँसकर बातचीत कर रहे हैं, तो हम सोचेंगे कि अवश्य ही ये कोई बुरी नीयतको लेकर बातचीत करनेवाले होंगे।
९९-पराया कोई नहीं है। यह अपने परायेकी सीमा हमारी अपनी बाँधी हुई है।
१००-मनकी गंदगीको मिटानेके उपाय हैं-
(१) भगवान्के नामका जप, (२) स्वाध्याय एवं सत्संगके द्वारा अच्छी बातोंको मनमें भरना और (३) दूसरोंका दोष देखना सर्वथा छोड़ देना। सर्वथा न छोड़ सके तो जहाँतक हो कम-से-कम दोष दीखे ऐसा प्रयत्न करना।
१०१-देखा-देखी बुरे आचरणोंको लोग अपना लेते हैं। वैसे ही यदि तुम शुभ आचरण करना आरम्भ करोगे तो उसे भी लोग देखा- देखी करने लग जायेंगे। अतः स्वयं शुभका आचरण पहले करना आरम्भ कर दो, फिर शुभका विस्तार होगा।
१०२-हमें दूसरे कामोंके लिये समय मिल जाता है, पर भजनके लिये नहीं! ऐसा इसलिये होता है कि भगवान्का भजन, भगवान्की सेवा हमारे लिये बहुत ही कम महत्त्वकी वस्तु हो गयी है।
१०३-भगवान्को भूल जानेका परिणाम कितना बुरा है, इसका अभी पता नहीं है। जब यहाँसे चले जायँगे पापोंका ढेर साथ लेकर तथा वहाँ यातना-देह पाकर नरककी यन्त्रणा भोगनी पड़ेगी, तब पता लगेगा।
१०४-भोगोंमें जो सुखका प्रकाश दीखता है, वह जलानेवाला है। शान्ति देनेवाला नहीं है। उसकी चकाचौंधमें मत फँसो।
१०५-जबतक शरीर ठीक है, इन्द्रियाँ ठीक-ठीक काम कर रही हैं, तभीतक मनको भजनमें लगानेका अभ्यास कर लो। शरीर बीमार हो जानेपर, इन्द्रियोंकी शक्तियाँ क्षीण हो जानेपर मनको भजनमें लगानेका अभ्यास करना बड़ा ही कठिन है।
१०६-बुरे कामोंमें अपनी शक्तिको खर्च करना-बहुत बड़े दुःखको निमन्त्रण देकर बुलाना है। इसलिये भूलकर भी किसी बुरे कर्ममें हाथ मत डालो। बुरे कर्मकी मोटी परिभाषा यह मान लो जिस कर्मसे मन हटता हो, वही बुरा कर्म है।
१०७-इन्द्रियों के बुरे कर्म में लग जाने के बहुत से साधन प्राप्त होते रहते हैं. मनुष्य यदि सावधान रहे तो बच सकता है स्वयं सावधान रहने पर भगवान की सहायता तो मिलती ही है.
१०८- प्रतिकूलता प्राप्त होने पर दुखी एवं अनुकूलता प्राप्त होने पर मनुष्य सुखी होते हैं पर मनुष्य को सोचना चाहिए कि इसके पर एक ऐसी स्थिति है जहां यह सुख-दुख नहीं है वहां अनुकूलता प्रतिकूलता नहीं है केवल एक रस आनंद ही आनंद है आनंद ही आनंद।