मनुष्य भूल करता है, सुख एवं सुविधाएँ चाहता है, पर चाहता है भगवान् की ओर पीठ देकर
Man makes mistakes, he wants happiness and comforts, but he wants them by turning his back towards God
SPRITUALITY
मनुष्य भूल करता है, सुख एवं सुविधाएँ चाहता है, पर चाहता है भगवान् की ओर पीठ देकर, चतुर्थ माला
१-जबतक भगवान्की ओर मुख नहीं हो जाता, तबतक यथार्थ में सुख एवं सुविधाएँ नहीं मिल सकतीं। यही मनुष्य भूल करता है, सुख एवं सुविधाएँ चाहता है, पर चाहता है भगवान्की ओर पीठ देकर।
२-यह याद कर लेनेकी बात है कि मनसे, वाणीसे, शरीरसे दिन- रात-चौबीसों घण्टे ही निरन्तर भजन होता रहे।
३-निरन्तर दिन-रात भजन हो- इसके लिये कुछ समय प्रतिदिन एकान्तमें बैठकर भजनका अभ्यास करे। मान लें यदि दो घण्टे एकान्तमें बैठकर लगातार भजन करेंगे, तो फिर इससे शेष बाईस घण्टेतक भजन करनेकी शक्ति मिलती रहेगी।
४-भगवद्भजनका सबसे सरल प्रकार है-भगवान्के नामका स्मरण-नामका जप । स्मरण न हो सके तो जीभसे ही निरन्तर नाम लेनेका अभ्यास करे। नामके द्वारा असम्भव सम्भव होता है।
५-प्रत्येक मनुष्यको प्रतिदिन एकान्तमें बैठकर लगातार कम-से- कम दो-दो घण्टे नाम-जपका अवश्य अभ्यास करना चाहिये।
६-प्रतिदिन कुछ समय भगवान्की प्रार्थनाके लिये भी नियत होना चाहिये। भगवान्की प्रार्थनामें, भगवान्की स्तुतिमें बड़ा बल है।
७- भगवान्के स्तवनसे भगवान्के गुणोंकी स्मृति होती है।
८- भगवान्के स्तवनमें सबसे पहली चीज है- भगवान्पर अटल विश्वास।
९-प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर भगवान्से प्रार्थना करे और माँगे - प्रभो! आज समस्त दिन आपकी अनुकूलतामें ही बीते।
१०-सर्वोत्तम काम है- दिन-रात भजन करना।
११-यदि मनुष्य चेष्टा रखे तो एक लाख नाम-जप, नहीं सही- पचास हजार नाम-जप तो बहुत आसानीसे कर सकता है।
१२-नाम लेते-लेते अन्तरके मलका नाश होता है, फिर नाम का स्वाद प्रकट होता है। नाममें स्वाद आ जानेपर तो फिर नाम छूटना कठिन हो जाता है।
१३-भजन-स्मरणमें रस आ जानेपर यदि कभी क्षणभर भी भगवान्की विस्मृति होती है, तो महान् व्याकुलता होती है।
१४-निरन्तर भजनका अभ्यास नहीं हो जानेतक नियमपूर्वक भजन करनेकी आवश्यकता है।
१५-नामकी पूँजी खरी पूँजी है। यह जिसके पास है, उसे यमराजका भय नहीं है।
१६-संकेतसे-परिहाससे भी यदि भगवान्का नाम जीभपर आ गया तो सब पाप जल जाते हैं (श्रीमद्भा० ६।२।१४)।
१७-जहाँ भगवान्का नाम होता है, वहाँ यमदूत नहीं आ सकते।
१८-इस कलियुगमें भगवान्के नाम लेनेवाले तथा दूसरेसे लिवानेवाले अत्यन्त भाग्यवान् एवं कृतार्थ हैं-
ते सभाग्या मनुष्येषु कृतार्था नृप निश्चितम् । स्मरन्ति ये स्मारयन्ति हरेर्नाम कलौ युगे ।।
१९-यदि सचमुच भगवान्का नाम जप होने लग जाय तो विपत्ति सम्पत्तिके रूपमें परिणत हो जाय।
२०-श्रीमद्भागवतमें आया है-
'कलियुगमें और सब दोष-ही-दोष हैं, पर एक महान् गुण है, वह यह है कि इस युगमें भगवान्के नाम कीर्तनसे ही परम कल्याण हो
जाता है (१२। ३। ५१)।'
२१-गोस्वामी तुलसीदासजीने तो यहाँतक कह दिया है कि-
तुलसी जाके बदन ते धोखेहु निकसत राम। ताके पगकी पगतरी मोरे तनुको चाम ॥
धन्य है इस नाम-प्रेमको !
२२-गोस्वामी तुलसीदासजीने भगवान् शंकरको साक्षी देकर, शपथ लेकर नामकी महिमा घोषित की है-
संकर साखि जो राखि कहाँ कछु तौ जरि जीह गरौ। अपनो भलो राम नामहि ते तुलसिहि समुझि परौ ॥
२३-समस्त विश्व भगवान्का नाटक है- खेल है। भगवान्के इस खेलमें भी सब रस होने चाहिये। इस समय वर्तमान युद्धके रूपमें ध्वंसकी लीला चल रही है। इस नाटक मंचपर सृजन-संहारकी लीला चलती ही रहती है।
२४-सारी किताबको पढ़नेके लिये-एक-एक पन्ना उलटना ही पड़ेगा। एकके उलटनेके बाद ही दूसरा पन्ना सामने आयेगा। यह जीवन भी भगवान्की लीलारूप किताबका एक पन्ना है। इस जीवनका नाश पन्ना उलटनामात्र है। दूसरा जीवन- दूसरी लीला सामने आनेके लिये ही यह पन्ना उलटना है अर्थात् जीवन बदलना है।
२५-एकरस भगवान् कभी पलटते नहीं। प्रकृतिमें तो हेर-फेर होता ही रहेगा।
२६-संसारमें भगवान् और उनकी लीलाको देखोगे तो सदा परम सुख-परम आनन्द ही सर्वत्र दीखेगा। पर उनको एवं उनकी लीलाको न देखकर बदलते हुए दृश्योंको ही केवल देखोगे तो फिर यह संसार तुम्हारे लिये दुःखालय है। तुम्हें विनाश-ही-विनाश, दुःख-ही-दुःख दीखेगा।
२७-इन सब बदलते हुए दृश्योंके अन्तरालमें जो भगवान् हैं, उन्हें छोड़कर इन प्रतिपल बदलते हुए दृश्योंमें चिपटे रहकर सुख चाहना तो हिमालयमें रहकर गरमी चाहना है, जो कि असम्भव है।
२८-जगत्के दो रूप हैं- या तो अनन्त आनन्दमय या दुःखमय।
जो समस्त जगत्में भगवान् एवं समस्त जगत्को भगवान्में देखता है उसके लिये यह सर्वथा सब ओरसे अनन्त आनन्दमय है। जो भगवान्को छोड़कर जगत्को देखता है, उसके लिये यह सब ओरसे दुःखमय है।
२९-जगत्में सब कुछ भगवान्की शक्तिसे, उन्हींके किये होता है। मनुष्य तो निमित्त बनता है।
३०-जब मनुष्य असफल होता है, तब उसका दोष भगवान्के सिरपर मढ़ता है, भगवान्को कोसता है। पर सफल होनेपर उसका श्रेय अपने ऊपर लेता है। कहता है कि हमने किया। वास्तवमें सफलता और असफलता भगवान्की की हुई होती है।
३१-भगवान्को जिसके द्वारा जो नाट्य करवाना होता है, उसको वह करना ही पड़ता है। करना पड़ेगा ही। वह इससे बच नहीं सकता। वह करनेके लिये बाध्य है। अतः यदि अभिमान नहीं हो तो फिर कुछ डर नहीं है। मनुष्य अभिमान कर बैठता है, इसीसे बँधता है और नीचे गिरता है। अभिमान न करके वह कठपुतली बन जाय। कठपुतली नचानेवालेके इशारेपर नाचती है, इसी प्रकार भगवान्के इशारेपर नाचे।
३२-भगवान्के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण कर देनेमें शुभ एवं अशुभ सभी कर्मोंका ही अर्पण हो जाता है। जैसे एक मकान है, यदि यह पूरा-का-पूरा मकान किसीको अर्पण कर दिया जाय तो फिर मकानमें जो कूड़ा है, उसकी सफाईका भार भी उसीपर आ जाता है। इसी प्रकार पूर्ण समर्पण कर देनेवाले भक्तके पाप भी भगवान्को अर्पण हो जाते हैं। फिर उन पापोंको भगवान् ही धोते हैं।
३३-पाप वस्तुतः रहते ही नहीं, भगवान्की शरणमें गये कि सारे पाप कट गये।
३४-परमहंस रामकृष्णने कहा है कि सिद्ध महापुरुष सिद्ध आलू, सिद्ध बैगनकी तरह होते हैं अर्थात् (सिजाये हुए) आलू एवं बैगन नरम हो जाते हैं, उनमें कड़ापन तनिक भी नहीं होता। वैसे ही सिद्ध महापुरुष भी सर्वथा अहंकारशून्य विनम्र हो जाते हैं।
३५-मनुष्यकी स्वाभाविक मनोवृत्ति यह होती है कि अच्छेका श्रेय अपने ऊपर लेना चाहता है तथा बुरेका दायित्व दूसरेके माथे मढ़ना चाहता है। यह नहीं होकर, ऐसा होना चाहिये कि अच्छा दूसरेके सिर मढ़े और बुरेका दायित्व अपने ऊपर ले ले।
३६-तुम जो दूसरेसे चाहते हो, वही दूसरेको पहले दो, तब तुम्हें अनन्तगुना होकर वही मिलेगा। सेवा चाहते हो तो सेवा करो। मान चाहते हो तो मान दो। यश चाहते हो तो यश दो। ठीक समझ लो। दुःख देते हो, तुम्हें बदलेमें दुःख ही मिलेगा। अपमान करते हो, बदलेमें अपमान ही मिलेगा। तुम जो दोगे वही तुम्हें मिलेगा और मिलेगा बीज- फलन्यायसे अनन्तगुना होकर।
३७-यदि तुम सबसे सुख पाना चाहते हो, तो बिना ही चाहे दूसरोंको सुख पहुँचाया करो। फिर निश्चय समझो दूसरोंसे बिना ही चाहे तुम्हें बड़ा सुख मिलेगा।
३८-भगवत्-शरणागतिका स्वरूप क्या है? तुम्हारा सब कुछ भगवान्का कर देना अर्थात् यह निश्चय हो जाना कि मैंने अपनी चीज तथा अपने-आपको भगवान्को दे डाला। अब सोचो बदलेमें तुम्हें क्या मिलता है। विश्वकी समस्त चीजोंके सहित भगवान् अपने-आपको तुम्हें दे डालते हैं। भला, यह कितने लाभका काम है, तुम कितने बड़े लाभमें हो। इसपर भी आनन्द यह है कि तुमने तो वही चीज दी है, जो भगवान्की ही थी। पर भगवान् अपनी चीजको ही पाकर तुम्हें अपने-आपको दे डालते हैं।
३९-भगवान् यह नहीं देखते कि किसने कौन-सी चीज कितनी मात्रामें अर्पण की है, वे देखते हैं तुम्हारे मनका भाव। यदि तुम्हारे पास केवल एक कम्बल है, तो बस, उस कम्बलको एवं अपने अहंकारको भगवान्के चरणोंमें अर्पण कर दो-उसीके बदले भगवान् अपने- आपको तुम्हें दे डालेंगे। कितना सस्ता सौदा है।
४०- भगवान्के प्रति समर्पित हो जानेमें अहंकार बाधक होता है। यह अहंकार छूटता है भगवान्की दयासे। भगवान्की दया तुम्हें प्राप्त है ही। अतः बार-बार निश्चय करो- 'हम भगवान्के हैं। भगवान्का हाथ हमारे ऊपर है। भगवान्की बड़ी कृपा है।' यह केवल माननेकी ही बात नहीं है। असलमें यही बात है। भगवान् की पूर्ण कृपा है ही।