नवधा भक्ति [९]- छलहीन सरल
Navadha Bhakti [9] – Simple without deceit
SPRITUALITY


नवधा भक्ति [९]-
छलहीन सरल
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हिय हरष न दीना ॥
(१)
'कायरोंकी भाँति दुबककर रात्रिमें आक्रमण मुझसे न होगा। दिनमें जहाँ कहोगे, चला जाऊँगा !' उसके स्वरमें दृढ़ प्रतिरोध था।
पास ही शत्रुकी एक टुकड़ीका पता लगा था। कैप्टनने सूबेदार धीरसिंहको अपनी टुकड़ीके साथ चुपचाप उसपर आक्रमण करनेकी आज्ञा दी थी। अमावस्याकी रात्रि थी और हवा जोरसे चल रही थी। रेतका तूफान कहीं कुछ देखने नहीं देता था। कैम्प हिल रहे थे और उनपर मानो रेत पड़ रही थी। उनके चारों ओर तो नहीं, जिधरकी हवा थी, उधर रेतका टीला बन गया था।
'यहाँसे सीधे उत्तर एक मील, वहाँ एक बन्द लैम्प है, धीरेसे एक लाल किरण इसी ओर निकल रही है। उससे कुछ छः सौ गज पश्चिम। तूफानमें आहट नहीं मिलेगी।' धीरसिंहको तेज टार्च और स्थल-निर्देश मिल गया था।
'तुम जानते हो कि यह आज्ञोल्लंघन है और वह भी फील्डपर!' धीरसिंहने उसे धमकाया।
'वह जानता हूँ! कोर्टमार्शल और गोलीसे डरकर यह अधर्म मैं नहीं करूँगा। इस आँधी-तूफानमें जान बचाकर छिपे मानवपर मेरे हाथ नहीं उठेंगे! मैं क्षत्रिय हूँ और धर्मयुद्ध करना जानता हूँ। कल सबेरे मेरे हाथ देख लेना!' वह भीत नहीं हुआ।
'आजका धर्मयुद्ध पुराने धर्मयुद्धसे भिन्न है! देखते नहीं हो कि हम सब सोते रहते हैं तो वह अग्नि-वर्षा करता है!' वह बलवन्तसिंहको बहुत मानता है। एक ही गाँवके हैं, सूबेदार हो गये तो क्या ? फिर बलवन्त सीधा भी तो हदसे ज्यादा है।
'वे पाप करते हैं तो मैं क्यों करूँ? कल सबेरे मेरी राइफल उठेगी।' यह तो सेनापति भी जानते हैं कि बलवन्तसिंह-जैसा निशाना उनकी सेनामें और किसीका है नहीं।
'तुम तो व्यर्थ ही फौजमें आये। वहीं घरपर ही हनुमान्जीको रामायण सुनाते रहना था तुम्हें!' सच्ची बात तो यह है कि धीरसिंहने ही उस सरल ग्रामीणको फौजमें उकसाकर भर्ती कर दिया था।
'व्यर्थ क्यों आया ? युद्ध करना क्षत्रियोंका धर्म है, इसीसे युद्ध करने आया हूँ, पर अधर्मयुद्ध मुझसे नहीं होगा। हनुमान्जी तो सब कहीं रहते हैं। मेरे सदा साथ हैं। उन्हें रामायण भी मैं नित्य सुनाता ही हूँ।' पाँच दोहे रामायण-पाठ कम-से-कम वह अवश्य कर लेता है। छोटा-सा श्रीरामचरितमानसका गुटका उसका उसके साथ ही रहता है।
'क्यों मुझे आफतमें डालते हो? कोर्टमार्शल हो जायगा और शायद ! सूबेदारने बड़ी नम्रतासे समझाया।'
'मैं सजाके भयसे पाप नहीं करूँगा। मार तो मुझे कोई सकता नहीं। मरूँगा तो श्रीअयोध्याजीमें हनुमानगढ़ीके भीतर उन पवनकुमारके चरणोंपर मस्तक रखकर। उनके होते यहाँ कौन मुझे मार सकता है!' सूबेदारने देख लिया कि वह टस से मस होनेवाला है नहीं।
'तुम्हें कैम्प ड्यूटी दी जाती है!' थोड़ी देर सोचकर धीरसिंहने कहा। वे नहीं चाहते कि उनके द्वारा बलवन्त कोर्टमार्शल सुपुर्द हो। 'सावधान रहना!' इसे माननेमें उसे आपत्ति नहीं थी।
शत्रु सम्भवतः इन लोगोंसे भी अधिक सावधान था। इस टुकड़ीके प्रयाणके पूर्व ही उसने छापा मारा। जमकर युद्ध हुआ। अपनी मदद पीछे दूर थी और उसकी टुकड़ियाँ बढ़ती जाती थीं। अन्ततः कमाण्डरने पीछे हटनेका हुक्म दे दिया। जो कुछ हटते समय ले जाया जा सकता था, लेकर और शेष कैम्प आदिमें अग्नि लगाकर सेना पिछली पंक्तिपर हट गयी।
(२)
'हम तुम्हें इनाम देंगे और जो कुछ चाहोगे, कर देंगे! तुम्हें छोड़ दिया जायगा और तुम अपने साथियोंसे मिल सकोगे ! तुम्हें सोना मिलेगा-बहुत-सा सोना!' दुभाषियेने सेनापतिकी बात उसे समझा दी। हथकड़ी खोल दी गयी थी और रस्सी भी। केवल दो सैनिक संगीन चढ़ाये पीछे खड़े थे। वह युद्धमें पीछे नहीं भागा था, इसीसे जर्मनोंने गिरफ्तार कर लिया था उसे। मस्तकपर पट्टी बँधी थी। वहाँ संगीनकी गहरी मार लगनेसे ही तो वह मूर्छित होकर गिर पड़ा था। नहीं तो उसकी रायफल कितनोंको सुला चुकी थी।
'राजपूत झूठ नहीं बोलते और विश्वासघात नहीं करते !' उसने थोड़ेमें दोनों बातें बता दीं।
'ठीक है, हम जो पूछें तुम सच बता दो! तुम्हें बहुत बड़ा इनाम मिलेगा!' जर्मन सेनापति भारतीय रक्तको क्या पहचाने ?
मुझे न इनामका लोभ है और न दण्डका भय ! मेरे विषयमें तुम जो पूछो, बता दूँगा, पर अपनी सेनाके विषयमें मैं कुछ भी नहीं बता सकूँगा! उसने स्पष्ट किया।
'तुम पीछे लौटते तो रहनेके लिये खाई मिलती या कैम्प ?' सेनापतिने छलसे पूछा।
'मेरे घर लौटनेपर मुझे एक खपरैलका मकान मिलेगा। अम्मा हैं, छोटा भाई है, चाचाजी हैं!' वह और जाने क्या-क्या बतानेवाला था।
'हम फील्डकी बात पूछता है।' सेनापतिने रोका।
'फील्डकी बात तो मैं बता नहीं सकता। यह मैंने पहले ही निवेदन कर दिया।' उसने शान्त उत्तर दिया।
'तो अपनी ही बात बताओ तुम! तुम्हारी टुकड़ीमेंसे कितने सिपाही पीछे भाग गये ?' सेनापति महाधूर्त था। उसने वाग्जालमें फैसाना चाहा।
'फायर कर रहा था, मुझे पता नहीं कितने पीछे गये और कितने मरे! यदि पता भी होता तो बताता नहीं। फौज-सम्बन्धी कुछ भी आप मझसे जान नहीं सकेंगे!' उसने टका-सा जवाब दे दिया।
'तोपसे उड़ा देगा!' चिल्लाया सेनापति।
'हो नहीं सकता ! खैर, तुम्हारे जो मनमें आवे सो करो।' वह अविचल था।
उसे मारनेके लिये पिस्तौल पर्याप्त थी। संगीनसे बिना कारतूस खर्च किये काम चल जाता; पर उसे पेड़से बाँधा गया और एक दस इंची तोप उसके सामने थोड़ी दूरपर लगा दी गयी। पता नहीं उजड्डू सेनापति अपनी बात सच कह रहा था या उसे केवल भयभीत करना चाहता था।
उससे फिर पूछा गया; पर उसने साफ इनकार कर दिया। 'तुम लोग अपना काम करो ! श्रीमहावीरजी अपना काम करेंगे! मैं इस मजेदार तमाशेको आनन्दसे देखूँगा!' सेनापतिने समझा वह पागल हो गया है। झुंझलाकर उसने तोपचीको तोपमें गोला देनेका आर्डर दिया।
'धड़ाम !' तोपचीके चिथड़े उड़ गये तोपके साथ ही। सेनापति भागा सिरपर पैर रखकर। 'शत्रुके जहाज !' भगदड़ और चीख-पुकार मच गयी। अलार्म बजने लगा। उनके कैम्पपर सन्ध्याके झुटपुटेमें मित्रोंके हवाई जहाज चढ़ आये थे।
-धू करते वस्त्रोंके कैम्प जलने लगे। बारूदखानेको एक बमने उड़ा दिया। हवाई जहाजतोड़क एक ही तोप थी, वह भी दक्षिणा पाकर मूक हो गयी। इस आफतसे सँभलनेका अवसर मिला नहीं था, तबतक दैत्याकार लारियोंसे 'हर हर महादेव!' और 'सत् श्री अकाल!' की ध्वनि करते राइफल चढ़ाये राजपूत और सिक्ख कूदने लगे।
बहुत-सा सामान हाथ लगा। कई सौ जर्मन और इटालियन सैनिक बन्दी बनाये गये। भयके कारण बिना युद्ध किये उन्होंने हथियार डाल दिये थे।
(३)
'तुम्हें शत्रुने क्यों बाँधा था ?'
'कैम्पका भेद न बतलानेके कारण।'
'तुम गिरफ्तार कैसे हुए?'
'फायर करते समय एकने सिरमें संगीन मार दी। मूर्छित था।'
'पीछे लौटनेका आर्डर नहीं सुना तुमने ?'
'सुना था, पर राजपूत पीछे नहीं हटता !'
'क्या यह सच है कि तुमने उस रात्रिको छापा मारनेवाली टुकड़ीमें जाना अस्वीकार कर दिया था ?'
'सच है। सोते और असावधान शत्रुपर आक्रमण करना कायरता है। इससे तो मर जाना अच्छा।'
उसे सूबेदारने बहुत समझाया था कि पीछे लौटनेकी सूचना पाने और रात्रिको छापा मारनेमें सम्मिलित न होनेकी बातको वह अस्वीकार कर दे; पर उसे झूठ बोलना नहीं था। वह झूठ और छल नहीं करना चाहता।
'तुमने आज्ञा भंग की है!' कोर्टने कहा। वह चुप रहा। 'फिर भी तुम्हारी सच्चाई और उस बहादुरीपर जो तुमने शत्रुके हाथमें पड़नेपर दिखायी है, कोर्ट तुम्हें माफ करती है। तुम फौजी कामके हो नहीं। तुमको छुट्टी मिलनी चाहिये।' सचमुच उसे तीसरे दिन घर लौटनेका पास मिल गया। वह फौजसे निकाल दिया गया था।
बमने क्षणा था, श्री दने
यहीं कुशल नहीं हुई। एक फौजी भगोड़ेने रास्तेमें उससे परिचय कर लिया और अवसर पाते ही पास झटक ले गया। फलतः कराचीमें जहाजसे ही वह गिरफ्तार कर लिया गया। जाँच हुई, लिखा-पढ़ी प्रारम्भ हुई और अन्तमें वह भगोड़ा गिरफ्तार हुआ। बलवन्त-सिंहको छुट्टी मिली कारागारसे पूरे तीन महीने पश्चात् ।
(४)
'तुम्हारे यहाँ कोई राजरोगी तो नहीं था?' पता नहीं क्यों बाबा राघवदास ऐसे लोगोंको शिष्य नहीं बनाते थे और बलवन्तसिंहको यह पता था।
'मेरी माताको सफेद कुष्ठ है और पितामहीको भी था !' उसे छल करना बिलकुल नहीं आता। 'पर मेरे घर पुरुषोंको यह रोग कभी नहीं हुआ!' यही उसकी आशा थी।
'छुआछूतका तुम्हारे यहाँ ध्यान तो रखा जाता है?'
'घरमें तो पूरा ध्यान रखा जाता है, पर' बाबाजीको ज्ञात नहीं
कि वह फौजमें रह चुका है।
'पर क्या ?' बाबाजीने संदिग्ध स्वरमें पूछा।
'मैं फौजमें था और अभी ही मुझे छुट्टी मिली है?' उसने धीरे-
धीरे सब कुछ समझा दिया।
'फिर मेरे पास क्यों आये? म्लेच्छों और यवनोंका छुआ खाकर फिर वैष्णव बनने चले हो ?' बाबाजीने घृणासे देखा।
'मैंने कुछ भी अखाद्य नहीं खाया है और छुआछूतके लिये तो युद्धभूमिमें कुछ आपद्धर्म भी मानना पड़ता है!' बड़े करुण शब्दोंमें उसने कहा। बाबाजीपर उसकी अपार श्रद्धा थी और वह उनसे दीक्षा लेने आया था। झूठ बोलकर काम चाहता तो निकाल लेता; परंतु किसीसे भी छल करनेकी कला उसे नहीं आती।
'निकालो इस नास्तिकको !' बाबाजी गरज उठे। पृथ्वीपर मस्तक रखकर वह स्वयं उठ गया। सीधे हनुमानगढ़ी पहुँचा।
'प्रभो!' सिरका घाव कच्चा था। भावावेगसे टाँके टूट गये। केशरीकिशोरका चरण सिन्दूरके बदले मस्तकके रक्तसे रँग उठा। पता नहीं कैसे, वह चरणोंसे उठा और मूर्तिसे अंकमाल देकर चिपक गया। पुजारी दौड़ा 'हैं हैं' करता। उसके हाथोंके धक्केसे एक शव धड़ामसे गिर पड़ा। तो क्या उन वैष्णवाचार्य रामदूतने ही उसे उठाकर छातीसे लगा लिया था? उसे हृदयमें ही रख लिया ?