नवधा भक्ति [६] वन्दन
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नवधा भक्ति [६]
वन्दन
सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी ॥ तुम्हहि छाडि गति दसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं ॥
'दौलतराम कहाँ है बेटा?'
'वह तो साधु हो गया।'
'साधु हो गया ? कब ?'
'आज छः महीने होनेको आये!'
पड़े। 'बडा सन्त-सेवी था। वह तो घरमें ही साधु था।' महात्मा लौट
'दौलतराम नहीं तो उनका घर तो है ही। आसन लगायें। जो कुछ बन पडेगा, सेवक भी आपका ही है।' दौलतरामका बड़ा भाई अर्जुन हाथ जोड़कर बोला।
'यही तो है- हाँ यही है!' साधुने सोचा 'अब इतना कैसे बदल गया ? पहले तो साधु-सन्तोंकी छायासे द्वेष करता था। उस दिन मरे आनेपर इसने भाईको खूब खरी-खोटी सुनायी थी। अभी सालभरको ही तो बात है। तो भाईके साधु हो जानेका इतना प्रभाव पड़ा !' आसन एक चौकीपर डाल दिया गया।
एक थालमें जल लाकर अर्जुनने उनके चरण धोये और वह जल सिरपर चढ़ाकर सारे घरमें छिड़क आया। उपले सुलगा दिये गये थे। माँजकर एक घड़ा जल आ गया। एक थालमें आटा, दाल, नमक, हल्दी और कटोरीमें आध पाव घी आ गया। पाँच-सात बड़े-बड़े आलू भी थे। उपलोंपर एक बर्तन चढ़ चुका था।
'स्नान कर चुका हूँ, आटा भिगा दूँ।' अर्जुनने संकोचपूर्वक हाथ जोड़ड़कर पूछा। वह डर रहा था कि उस दिनके महात्माजीकी भाँति कहीं बिना पूछे भिगानेपर अप्रसन्न न हो जायें।
'भिगा दो भगत !' साधूने संक्षिप्त उत्तर दिया। अर्जुन अपने कामे लग गया। जरा देरमें गोल-गोल बाटियाँ बनाकर उसने रख
'दौलतराम भी इतनी श्रद्धा नहीं दिखा पाता था।' साधु सोच रहा था। 'तुममें इतना परिवर्तन कैसे हो गया भगत ?' अन्ततः उपलोंके पास बैठते-बैठते उन्होंने पूछ ही लिया।
आटेसे भरे हाथों वह बैठा था। हाथ धोनेका प्रयास नहीं किया उसने।
'आप महात्माओंकी कृपा!' दोनों हाथोंको परस्पर मलकर वह आटा छुड़ाने लगा था।
'कुछ तो बात होगी ही!' साधुको छोटे उत्तरसे सन्तोष नहीं हुआ।
'बड़ा पाप किया है, बड़ा नीच हूँ, किसी प्रकार आपकी चरण-जसे मेरा भी उद्धार हो जाय!' उसके नेत्र भर आये।
'प्रभु सबपर दया करते हैं। घबराओ मत। वे दयामय मंगल करेंगे।' साधुने दालके पात्रमें कलछली हिलाते हुए कहा।
'मेरे ही कारण छोटा भाई घर-द्वार छोड़कर आज दर-दर घूमता
है।' हिचकियाँ लेते हुए उसने अपने मैले अँगोछेसे नेत्र पोंछे। 'उस
दिन उसका यही अपराध था कि उसने दो भीख माँगनेवाले ब्राह्मणोंको घरपर टिकाकर सीधा दे दिया था। मेरे सिर भूत सवार था। खेतोंको देखकर आया और दो चूल्हे जलते देख लाल हो गया। भाईने हाथ बोड़े, पैर पकड़े; पर मैं नहीं माना। भाईको गालियाँ दीं, धक्का दिया है।' वह फूट-फूटकर रोने लगा। रोओ मत। जो हो गया, उसे भूल जाओ !' साधु अपनी बाटी-दाल भूलकर उसीकी ओर मुख किये बैठे थे।
'कैसे भूल जाऊँ प्रभु ?' वह रोता ही जा रहा था। 'कुत्तेके मुखसे भी रोटी नहीं छीनी जाती। मैंने दोनों हंडिया चूल्हेसे पटक दीं, भीगा आटा बैलकी नाँदमें फेंक दिया और उन ब्राह्मणोंके झोली-झंटे राहमें फेंक आया। वे बेचारे डर गये। भागकर बाहर अपनी-अपनी झोली लेकर चम्पत हुए। मेरी गालियाँ उन्हें सुन भी न पड़ी होंगी भयके कारण। हाय!' उसने सिरपर दोनों हाथ पटक दिये जोरसे।
'हे भगवन् !' साधुके हाथसे कलछली गिर पड़ी। वे भौंचक्के हो गये।
'बचपनसे भाईका स्वभाव मन्दिरमें पूजा-पाठ करने, साधुओंके पास बैठने और उनकी सेवा करनेका था। मैं उसपर बिगड़ता था, गालियाँ देता था और कभी-कभी मार भी देता था। पर कभी उसका हाथ नहीं पकड़ता था। वह घरमें मुझसे कम काम नहीं करता था।' रोते-रोते वह कहता ही जा रहा था। गाँवके या आस-पासके ब्राह्मणोंको महीनेमें एक सीधा तो वह दे ही आता था। घरपर आनेपर बिना पैर धोये, शर्बत पिलाये और सीधा लिये जाने नहीं देता था।' अब उसने नेत्र पोंछना भी बन्द कर दिया था।
'सिर झुकाकर सदा सुन लेता था। मेरा उत्तर कभी उसने दिया नहीं। मेरी स्त्री उसकी ओरसे मुझसे लड़नेको उद्यत हो जाती थी; पर वह उसे भी हाथ जोड़कर मना कर देता था।' एक क्षण कण्ठ भर जानेसे वह रुक गया। 'उस दिन वह भी उन ब्राह्मणोंके पीछे चला गया। कहा उसने एक शब्द भी नहीं!' चुप हो गया वह।
'सोचा था, ब्राह्मणोंसे क्षमा माँगकर आ जायगा! रात्रिमें नहीं आया तो कलेजा धड़का ! फिर भी सोचा कि कल आ जायगा-रूठ गया है। सब सम्बन्धियों और उसके परिचितोंके पास तीन महीने भागाभागा फिरता रहा।' दुःख सीमासे पार हो चला था। 'अयोध्या में मिला बाल बढाये, तिलक लगाये, भस्म रमाये। पता लगते ही दौडा गया था। उसने पहलेकी तरह ही पैर छुए! रोना धोना व्यर्थ हुआ। अपना-सा मुख लेकर लौट आया।' आँसू भी सूख गये थे। वह सुनी दृष्टिसे ऊपर देख रहा था।
'यह तो पागल हो जायगा !' साधु डरे। उठकर उन्होंने उसका कंधा पकड़कर हिलाया। जैसे सोतेसे जगा वह। उनके चरणोंपर मस्तक रखकर फूट-फूटकर रोने लगा।
(२)
'गंगाका किनारा है, कोई-न-कोई साधु-महात्मा आते ही रहते हैं। यह तो क्या, आस-पासके तीन-चार गाँवोंमें अहीरोंकी ही बस्ती है। चार-छः दूसरी जातिके भी लोग रहते हैं। जाति ही अनपढ़ है; पर है श्रद्धालु। लखनदासकी पक्की कुटिया किनारे बरगदके नीचे सबने मिलकर बनवा दी है। कुछ भी हो, जातिके प्रति जातिका सम्मान तो होता ही है।
अब वे दौलतराम तो रहे नहीं, जो साधु होनेपर भी बड़े भाईके पैरोंमें झुक गये थे। अब तो वे बाबा लखनदासजी हो गये हैं और अपनेको किसी महन्तसे छोटा नहीं समझते। यह दूसरी बात है कि उनके मठपर एक ही कुटिया है और तुलसी-फूलको बचानेके लिये बाँस और काँटोंका घेरा उन्हें ही बनाना पड़ा है। फूल-पत्ती लगाना तो महन्तके लिये शोभाकी बात है।
उन्होंने पहले ही अक्षरज्ञान प्राप्त कर लिया है। साधु होनेके पश्चात् रामायणकी चौपाइयाँ वे उच्च स्वरसे चिल्ला लेते हैं। चाहे बीचमें सात बार रुकते भले हों। बहुत-से दृष्टान्त भी उन्हें स्मरण ही गये हैं। वे तो उन्हें सच्चा ही बताते हैं। यहाँ तो कोई जानता नहीं कि गुरुस्थानपर भण्डारेके हण्डे उन्हें ही मलने पड़ते थे। क्या हानि थी यह कहनेमें कि वहाँ गुरुदेव सबसे अधिक उन्हींका आदर करते थे।
हृदयकी बात हृदय जाने पर वे गुरुदेवकी प्रशंसा करते अपने नहीं। उनकी सिद्धियों, चमत्कारोंके साथ वे बड़े ढंगसे बताते हैं कि कैसे उन्होंने एक लाख चढाने आयी रानीको दुतकारकर निकाल दिया। यह सब कहते हुए वे पुलकित हो उठते हैं। 'सत्य वचन महाराज।। कहनेवालोंकी भी कमी नहीं है।
अब वे वैष्णव साधू हैं। भला अब वे किसीको प्रणाम कैसे कर सकते हैं ? गाँवके मंगरू पण्डित पहले ही उन्हें 'जै सीताराम' करते हैं। बाबाजी उत्तर देकर कह देते हैं 'पण्डितजी! वह आसन लेकर बैठ जायें।' साधुमण्डली आनेपर तो महन्तजी विशेष सजाकर चन्दन भस्म धारण करते हैं और मोटी माला पहनते हैं। उस समय भला वे आसनसे उठ सकते हैं? अवश्य ही उस दिन वे रोबमें रहते हैं। 'अर्जुन ! अभी सन्तोंके लिये सीधा नहीं आया?' और अर्जुन चुपचाप घर भागता है।
सच्ची बात तो यह है कि वे अर्जुनके श्रद्धावश यहाँ हैं। जब वे रमते हुए यहाँ पधारे तो अर्जुनने पैर पकड़कर प्रार्थना की। वह छोटे भाईको अब साधु तो मान चुका था, पर मोह छूटा नहीं था। कुटिया उसीके उद्योगसे बनी और कृपाकर बाबाजी रह गये। नहीं तो भला अयोध्याका इतना बड़ा मठ और इतना सम्मान छोड़कर वे यहाँ रहते?
अर्जुन कामसे छुट्टी पाते ही बरगदके नीचे आ जाता है। बड़े सबेरे वहाँ झाड़ लगा जाता है और गंगाजल भर जाता है। पूजाके पात्र मलकर रख जाना कभी नहीं भूलता। दोपहर में उसी घाटपर स्नान करता है। वहीं बरगदकी जड़में बैठे महावीरजी और शंकरजीपर, पासके पीपलपर और तुलसीजीको अपने एक लोटे जलमें सबपर थोड़ा-थोड़ा चढ़ा आता है। हाथ जोड़कर सबकी परिक्रमा करता और पृथ्वीमें सिर रखकर प्रणाम करता है। मठियापर बाबा कोई काम बतलाते हैं तो घरको भोजन करने आते समय उसे भी करता आता है।
मठियाका ध्यान उसे ही अधिक रहता है। वह न हो तो कोई झाड़ भी न दे। नित्य शामको पाँच दीपक ले जाता है घरसे और अपने सब देवताओंके यहाँ एक-एक रखकर बड़ा दीपक मठियामें रख देता है। रात्रिमें बाबाजीके यहाँ सत्संग करने और उसी बहाने चिलम पीने कई भक्त और आ जाते हैं। धूनीके पास मण्डली जमती है।
अर्जुनको और भी बहुत-से काम रहते हैं। गाँवमें दो ही घर तो ब्राह्मण हैं, एक उसके गुरुजी और दूसरे मँगरू पण्डित। गुरुजीका चरणामृत लिये बिना तो वह पानी ही नहीं पीता। वे वृद्ध हो गये हैं। कहीं आ-जा नहीं सकते। घरमें कोई करने-धरनेवाला है भी नहीं, उनकी विधवा बहनको छोड़कर। अर्जुन उनके यहाँ दो सीधे रोज पहुँचा आता है। मँगरू पण्डितके घर भी सप्ताहमें एक सीधा तो पहुँच ही जाता है। उनके घरके छोटे-छोटे बच्चोंके भी एक बार वह दिनमें चरण छू जरूर आता है।
साधु-सन्त तो मठियापर रहते हैं, पर इधरके भीख माँगनेवाले ब्राह्मण दो-चार नित्य ही अर्जुनके दरवाजे उपले जलाते और टिक्कर सेंकते हैं। उनका प्रबन्ध भी वही करता है। इतनेपर भी मठियाकी सेवामें उससे कभी प्रमाद नहीं होता। खेती-बारीका काम ठहरा, देर-सबेर हो ही जाती है। बाबाजीकी पुड्कियोंको चुपचाप सुन लेनेका उसे अभ्यास हो गया है।
X
(३)
'गुरुदेव । मठियापर आपको बहुत सुविधा रहेगी!' लखनदासने हाथ जोड़कर प्रार्थना की और वह भी बहुत ही डरते-डरते।
'मुझे यहाँ बड़ा आनन्द है।' महन्तजीने बिना उसकी ओर देखे ही कह दिया। वे ठाकुर-पूजाके लिये उठ चुके थे।
'वहाँ सब तैयारी की गयी है!' स्वरोंमें दुःख था-कम्प था। 'अब तो ठाकुरजीका आसन लग चुका।' महन्तजी पूजनके लिये दूसरे आसनपर जा बैठे।
रामनगरकी रामलीला देखने बाबा लखनदासके गुरुदेव श्रीअवधसे पधारे थे इस वर्ष। साथमें चार मूर्तियाँ और भी थीं। एक साधुने बताया कि लीला देखकर महाराज इधर ही आ रहे हैं। बड़ी प्रसन्नता हुई लखनदासको और उनसे भी अधिक गाँववालोंको।
मठिया झण्डियोंसे सजायी गयी। लिप-पुतकर झकाझक हो गयी थी। पासमें भण्डारेके लिये, ठाकुर-पूजाके लिये और सन्तोंके लिये तीन फूसकी कुटियाँ और पड़ गयी थीं। दरी, गलीचा मँगा लिया गया था। दो कंडाल मँगाकर गंगाजल भर दिया गया था। घी, आटा, दही, चीनी, साग सभी आ गये थे। चारों ओर आमकी पत्तियोंसे तोरण बनाये गये थे। गाँववालोंने बड़ा श्रम किया था। बाबा लखनदास दिन-रात एक करके महाराजके स्वागतकी तैयारीमें लगे थे।
भंग-बूटी और ठंडाईका सब सामान धरा रह गया। दहीको हण्डियाँ ढकी-की-ढकी रहीं। महन्तजीको आगे जाकर लखनदासने दण्डवत् किया और कुटियापर लाना चाहते थे। बीचमें ही वे एक दालानमें मुड़ पड़े और गुरुदेवका रंग ढंग देखकर शिष्योंने सब झोली-झंटा वहीं रख दिया। उन्होंने एक भी आग्रहको ओर ध्यान नहीं दिया। गाँवका कोई इतने बड़े महात्मासे कुछ कहनेका साहस कर नहीं सकता था। लखनदासको दुःख हुआ, क्षोभ हुआ-क्या उपाय ?
१२१
'एक बार श्रीचरणोंसे दासकी झोंपड़ी भी पवित्र हो जाय।' सच्या होनेवाली थी और लखनदास जानते थे कि इस समय महाराज टहलने निकलते हैं। 'गंगाका किनारा है। जंगल है। नित्यकृत्यके लिये उधर सुविधा रहेगी।' उन्होंने अवसर ठीक ही ढूँढ़ा था।
चा।
'मैं आज घूमने नहीं जाऊँगा!' महन्तजीने रुखाईसे कहा 'जो सन्त जाना चाहें, लिवा ले जाओ। मैं तो इसी कुएँपर स्नान कर लूँगा। भगत ! पानी तो खींच देना!' उन्होंने अर्जुनकी ओर संकेत किया।
धसे ताया हुई
अर्जुन हाथ जोड़कर खड़ा हुआ और झट बाल्टी-घड़ा लेकर कुएँपर पहुँच गया। आज उसकी प्रसन्नताका क्या पूछना। उसके घर बिना बुलाये भगवान् आ गये हैं। स्वागतमें घरसे, उधार माँगकर, जैसे भी हो; वह जुटा है। शरीरकी सुधि ही नहीं है। इधर-उधर तितली-सा नाचता फिरता है।
गयो ये तीन ना था। चीनी, ये गये पत एक
'मेरा अपराध!' अब लखनदाससे रहा नहीं गया। गुरुदेवके चरण पकड़कर वे फूट-फूटकर रोने लगे। 'मैंने कौन-सा पाप किया है?'
दहीको बनदासने वे एक
'झूठसे भी बड़ा कोई पाप होता है?' वे केवल महन्त ही नहीं थे। 'तुम नित्य कितना झूठ बोलते हो? साधुके लिये गर्व कितना बड़ा पाप है? तुम तो ब्राह्मणोंसे और साधुओंसे भी श्रेष्ठ हो? एक महन्तको दूसरेके पैर नहीं छूने पड़ते। भैया! मैं तो तुच्छ जीव हूँ। वेष न लिये होता तो इस भगतकी चरण-धूलिमें लेटता ! तुम-जैसे महापुरुषोंके स्थानपर मैं भला जाकर क्या करूँगा!
मुझे तो इस श्रद्धालुके झोंपडेमें ही रहने दो!' गाँववाले चकित रह गये! लखनदासने सिर झुका लिया।
'मेरे अपराध क्या क्षमा नहीं होंगे ?' बडे कष्टसे शब्द निकले।
'अपराधको अपराध समझ लेनेपर वह फिर अपराध नहीं रह जाता। कोई उसे हृदयसे अपराध समझ तो ले।' वे ऐसे गुरु नहीं थे. जो कान फूंककर अपनेको उत्तरदायित्वसे मुक्त समझ लेते हैं।
'मैं श्रीचरणोंमें ही अब रहूँगा!' लखनदासने चरण और जोरसे पकड़े !
'रहना तो तुम्हें यहीं होगा।' गुरुदेवने आजाके स्वरमें कहा 'सब भगवान्के स्वरूप हैं और तुम उनके सेवक हो। इसे भली प्रकार समझ लो!' वे उठ खड़े हुए मठियापर चलनेके लिये।
'प्रसादकी सामग्री प्रस्तुत रखना! अब स्नान तो गंगाजीपर होगा !' उन्होंने चलते-चलते अर्जुनसे कहा और इस प्रकार मठियापर प्रसाद करनेकी प्रार्थनाका अवसर ही नहीं दिया किसीको।
X
'मैंने सुना है कि वहाँ गंगा किनारे एक बड़े सिद्ध महात्मा रहते हैं!' मैंने पण्डितजीसे कहा, 'दूर-दूरसे लोग उनके दर्शनार्थ आते हैं। आज दर्शन करने चलें!' दोनों चल पड़े। रात्रि-विश्राम मार्गमें करके दूसरे दिन गंगाजीमें डुबकी लगाकर तब मठियापर हमलोग गये। धोतियाँ एक ओर फैला दीं और दर्शनको चले। दौड़कर महात्माजी पण्डितजीके पैर पकड़कर दोनों हाथोंसे उनपर सिर रख रहे थे।
'भागिये मत ! प्रणाम कर लेने दीजिये !' बरगदके नीचेसे किसीने कहा। 'वे दौड़ायेंगे और बिना पैर छुए मानेंगे नहीं। क्यों उन्हें कर देते हैं!' मैं जल्दी से पीछे दूर हट गया था। विवशतः मुझे मन मार कर यह सब सहना पड़ा।
'प्रणमेद् दण्डवद्भूमौ आश्वचाण्डालगोखरान् '
पण्डितजीने बैठ जानेपर धीरेसे मेरे कानमें श्रीमद्भागवतका एक श्लोकार्थ कहा।
मैंने पण्डितजीकी ओर देख भर लिया। मुझे यह बात जँची नहीं। मैं तो सोच रहा हूँ 'वासुदेवः सर्वम्' और महात्माजी भला देखकर भी अपने आराध्यको नमस्कार किये बिना छोड़ दें- कैसे सम्भव है!
कौन ठीक है-सर्वान्तर्यामी ही जाने।
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