नवधा भक्ति [१]- सत्संग

Navadha Bhakti [1]- Good accompaniment

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आध्यात्मिक कहानियाँ, geeta press गोरखपुर

4/6/20251 min read

नवधा भक्ति [१]-

सत्संग

'प्रथम भगति संतन्ह कर संगा'

'सुना है कि गंगा-किनारे एक बड़े अच्छे साधु आये हैं।'

'कब आये ?'

'अभी कलको ही तो आये।'

'तुम दर्शन कर आये ?'

'नहीं भाई, मुझे इतनी फुरसत कहाँ ? मुझसे तो हरीराम कह रहा था। वह कल अपनी तरीके खेत देखने गया था।'

'कबतक रहेंगे ?'

'साधुका क्या ठिकाना ? हो सकता है चल भी पड़े हों।'

'ठीक है, मैं जाता हूँ! लल्लूको कह देना गन्ना आज नहीं कटेगा और भैंसोंको मटर ले आये।' घरमेंसे उसने एक लोटा दूध लिया, धोती ली और चल पड़ा। उसे पता नहीं था कि उसे बेवकूफ बनाया गया है। भेजनेवाला दूसरी ओर मुख फेरकर मुसकरा रहा है।

सब जानते हैं कि रामधनको साधुओंके पास जानेकी सनक है। उसके घरपर दो-चार बैरागी बाबा धूनी रमाये ही रहते हैं। यदा-कदा गैरिकधारी भी दोपहरमें 'नारायण!' करके रोटीके साथ भर कटोरा दही ले जाते हैं। आसपास किसी साधुके आनेकी बात सुनकर वह घरपर टिक नहीं सकता। अनुनय-विनयसे वे द्वार पवित्र करने भले न पधारें; पर वह उनकी चरण रजसे अपनेको अवश्य पवित्र कर लेगा।

भगवान्ने सब कुछ दिया है। आठ-आठ भैंसें हैं। दो हलकी खेती है। तीन-तीन पट्टे पाये हैं। तीनों पुत्रोंकी बहुएँ ससुरको देवताकी तरह मानती हैं। कोई लड़का सामने खाटपर नहीं बैठता। घर-गृहस्थीके कामसे कोई मतलब नहीं। मनमें आये सो करो। दिनभर साधुओंकी चिलम भरना और उनसे रामायण सुनना। कोई हाथ पकड़नेवाला है नहीं। भीतर भगतिनके हाथमें ताला कुंजी है और वह बेचारी पतिको सचमुच परमेश्वर ही जानती है। साधु-सेवामें घरके कोई कुनमुनाते नहीं। सब अपना अहोभाग्य न समझें, पर इज्जत समझते हैं। सब प्रकार सुयोग मिल गया।

'अरे भगत !' पुकारनेवालोंको यारोंने रोक लिया। रामधनने यह पुकार सुनी ही नहीं।

'क्यों सीधे आदमीको आफतमें डालते हो!' उस चाण्डाल-चौकड़ीका एक सदस्य द्रवित हो रहा था।

'आफत काहेकी ? गाँवके लोग भी तो पहुँच रहे हैं लाठियाँ लेकर। भगतको आगे जाने दो! तमाशा रहेगा।' कहींसे एक चीता बहक आया था। विन्ध्याचलके जंगलोंसे गंगाके सहारे आया होगा। किनारेके पलाशोंके वनमें कल रात उसने एक बकरी मार डाली। यह समाचार आसपासके गाँवोंमें फैल चुका था। रामधनने भी सुना होगा, पर साधुके आनेकी चर्चाको सुनकर वह और कुछ स्मरण नहीं कर सका।

(२)

माँ-बापका जमाना था। रामधन अखाड़ेका उस्ताद था। दस-बीस गाँवोंमें उसकी जोड़ लेनेवाला कोई था नहीं। घरमें दूध-दहीकी नदी थी उसके लिये। एक ही लड़का था वह अपने घरमें। सुबह-शाम-दोनों समय अखाड़ेमें जाकर दण्ड, बैठक, मुद्गर फेरना और लड़कोंको जोर करानेके बाद आधपाव खालिस सरसोंका तेल शरीरको पिला देना, और कोई काम नहीं था उसे।

लाड़ले लड़के पढ़ते-लिखते नहीं। रामधनने भी 'क-ख' सीखते समय मुंशीजीकी छडीसे हाथ लाल होते ही पाठशालाको नमस्कार कर लिया था। अहीरका लड़का पढ़कर करेगा भी क्या ? उसे कुछ नौकरी तो करनी नहीं थी। माता-पिताने जोर नहीं दिया।

उस दिन गाँवके पास महादेवजीके मन्दिरपर एक जटाधारी बाबाकी धूनी लगी थी। रामधनने लड़कोंको जोर कराया, तेलको मालिश करायी और घर लौटते मन्दिरकी ओरसे निकला। 'जय सीताराम !' वह साधु-सन्तोंका संकेत पाकर समीप जाकर हाथ जोड़कर बैठ गया। साधु-सन्तोंका दूसरा काम क्या है? वे कहने लगे-

राम नाम रटते रहो जब लगि घट में प्रान। कबहुँक दीन दयाल के भनक परैगी कान ॥

बड़ी सुन्दर व्याख्या की दोहेकी। 'भगवान् कुछ बहरे नहीं जो सुनते न हों। बहुत दूर भी नहीं कि भनक न जाती हो उन दीनदयालके कानोंतक। बात ऐसी है कि वे समझते नहीं यह सब भाषा, सच्चे मनसे जो भीतरकी भाषा है उसे ही समझते हैं। रटते-रटते कभी तो मन द्रवित होगा ही। कभी तो जीभके साथ वह बोलेगा। उसके बोलते ही झट प्रभु समझ लेंगे। फिर तो वे दीनदयाल हैं ही।'

बड़ी देरतक बैठा सुनता रहा वह। उसे लोगोंको सुनानेके लिये एक नया अर्थ मिला। जाते ही उसने पिताजीको वह अर्थ सुनाया और माताजीको भी सुनाना भूला नहीं। गाँवके पण्डितजीसे उसने दोहेका अर्थ पूछा और उनको जब मनमाना अर्थ नहीं आया तो उसने बता दिया।

अब एक चसका लग गया। साधुओंसे, कथा-वाचकोंसे मिलना और उनसे नये-नये अर्थ पूछना। दस-बीस दोहे उसे कण्ठ थे। चार-छः चौपाइयाँ भी आती थीं। इतनेसे काम चलते न देखकर उसने पुरानी सन्दूकमेंसे अपनी वही 'क-ख' की पुस्तक पाली। उसे उसने एक युगसे हाथ नहीं लगाया था। मंगरू पण्डितके लडकेसे वह अक्षर पूछने लगा और दो-तीन महीनेमें तो उसने रामायणको उलटा-झौधा गुनगुनाना सीख लिया।

उसे बहुत-सी चौपाइयाँ कण्ठस्थ थीं, जिनके अर्थोंमें बड़े-बड़े पण्डित झाँकते। ' श्रीरामजीने शुर्पणखासे क्यों कहा कि 'अहे कुमार मोर लघु भ्राता!' क्या लक्ष्मणजी विवाहित नहीं थे? इस प्रकारके ढाई दर्जन प्रश्न उसकी जेबमें तैयार रहते थे और किसी साधु या रामायणीके आनेपर वह चट-से उनमेंसे कोई पूछ बैठता। सब उसका लोहा मानते थे। उसे ही प्रश्न पूछनेको उकसाया जाता था। इस जिज्ञासाके कारण उसने साधुओंको द्वारपर ठहराना प्रारम्भ किया।

(३)

कुतूहलकी भी एक सीमा होती है। इसे अवस्थापर तो निर्भर नहीं कह सकते, लेकिन यह शान्त हो जाता है। यों बच्चे-बुड्डोंमें कुतूहलका तारतम्य कम नहीं, वह जानकारीपर निर्भर करता है। रामधनका कुतूहल शान्त हो गया। साधु पढ़ा हो या बेपढ़ा, उपदेश तो वह करेगा ही, अनोखे अर्थ भले न करे, रामधन श्रद्धासे उसे सुनता है। श्रद्धासे साधु-सेवा करता है।

न तो पूजा और न पाठ। कभी-कभी अवश्य अपनी रामायण खोल लेता है। लड़कोंको घरके काम बताना-न भी बताये तो कोई हानि नहीं, पर आदेश देनेकी आदत पड़ गयी है। 'मटर पक गयी, कल कटा लेना। भैंसके लिये खली है या नहीं? न हो तो रामभरोसेके यहाँसे ले आना। मँगरू पण्डितके पास आज गये थे रुपये माँगने।' उसे इनके अतिरिक्त केवल साधुओंकी चिलम भरनी है। वैसे तम्बाकू छोड़कर 'सूखा' भी नहीं पीता।

'सब साधु ही थोड़े होते हैं। इस वेशमें पता नहीं कितने चोर-डाकू, लुच्चे लफंगे घूमते हैं।' गाँवके जमींदारने उसे कई कार समझाया है। 'कहीं कोई झंझट न आ खड़ी हो ! साधुओंको मन्दिरपा मत ठहराया करो भगत!' वे भगतको बहुत मानते हैं।

'राम ! राम !' भगत कानोंपर हाथ रख लेते। 'सरकार! ऐसा न कहें। जो करेगा सो भरेगा। हम तो वेशकी सेवा करते हैं। साधुको निन्दा नहीं करनी चाहिये।' जमींदार इस अहीरकी सच्चाईपर झुंझलाते नहीं। हँसकर रह जाते हैं। जब वह कह देता है- 'मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ।' तब कुछ कहनेको रह नहीं जाता उससे।

उसने सबका आदर करना ही सीखा है। उस दिन एक साधु रातमें कम्बल लेकर चम्पत हो गया। वह कम्बल उसे बिछानेको दिया गया था। लड़कोंको उसने रोक दिया 'जाने दो! भगवान् ले जा रहे हैं!' साधु तालाबतक गया था। यदि लड़के दौड़ते तो पकड़ लाते। वह प्रसन्न था। तनिक भी रुष्ट नहीं था।

कुत्तोंतकको तो वह मारने नहीं देता। साधुओंने उसे जीवोंपर दया करना सिखा दिया है। लाख खेत चरा लिये जायँ, लड़के लाल-पीले होकर ठण्डे हो जाते हैं। उसके रहते किसीको गाली नहीं दे सकते। झगड़ा तो कोई ऐसे गऊसे करेगा भी क्या ? दूसरे झगड़ते हों तो उसका कहना रखनेके लिये शान्त होना पड़ता है।

'सीताराम !' रामधन गंगा-किनारे दूधका लोटा लिये पहुँचा। उसने बरगदके नीचे, गंगा किनारे देख लिया। वहाँ कोई साधु नहीं दिखलायी पड़ा तो वह पुकारता हुआ पलाश-वनमें घुसा। महात्मा कहीं जंगलमें किसी वृक्षके नीचे आसन न लगाये हों! वह इधर-उधर ढूँढ़ रहा था।

चीता एक नालेमें दुबक गया था। उसने आदमीकी आहट पा ली थी और शब्द सुन लिया था। तब वह और भी दुबक गया, जब उसने अपनी ही ओर एक आदमीको आते देखा। रामधनको भी पत्तेके खडकनेसे कुछ आहट मिली थी। वह भी उधर ही ढूँढ रहा था। बार-बार 'सीताराम' कहकर पुकारता भी जाता था। 454

झाड़ीमेंसे दो चमकते नेत्र दिखायी पड़े। कोई घना पेड़ था नहीं, पलाशके झुरमुटकी आड़से चीतेका शरीर चमक रहा था। वह दोनों अगले पैर मोड़कर और पिछलोंको बलपूर्वक पृथ्वीमें ठिकाकर कूदनेको तैयार बैठा था।

रामधनने सुना था कि सिद्ध महात्मा लोगोंको शेर-चीतेका रूप रखकर डरा देते हैं, जिससे कोई उनके पास आकर उनके भजनमें विघ्न न करे। लोगोंकी भीड़-भाड़से बचनेके लिये कई बार वनके भयंकर जन्तुओंको अपने वशमें करके अपने आसनके पास बैठा रखते हैं।

'सीताराम' लोटा पृथ्वीपर रखकर उसने उस चीतेको दोनों हाथ जोड़कर झुककर प्रणाम किया। उसने समझ लिया था कि कल जिस चीतेकी चर्चा गाँवमें थी, वह यही महात्मा हैं। इनको अपने साधुवेशमें केवल हरीरामने देखा है, फिर इन्होंने यह रूप बना लिया होगा। अब मुझे भी डराकर भगाना चाहते हैं।

'प्रभो! मैं एक तुच्छ सेवक हूँ। यह दूध लाया हूँ। इसे स्वीकार करें!' उसे तनिक भी भय नहीं लगा। दूधका लोटा उसने आगे बढ़ा

दिया और फिर हाथ जोड़कर पृथ्वीपर घुटनोंके बल बैठ गया।

मनुष्यका हृदय स्वार्थादिसे अत्यन्त कलुषित होता है। उसपर

प्रभाव डालना सरल नहीं। पशु-हृदय क्रूर हो सकता है; पर होता है निर्मल। वह शीघ्र प्रभावित होता है। चीता उठा, दूधकी गन्ध उसे मिल गयी थी। चुपचाप दूधके लोटेमें उसने मुख लगाया और जीभसे पीने लगा। रामधनने उसके चरणोंपर मस्तक रखा।

कठोर नख, रुखे बाल- सब क्या हो गये ? एक लाल-लाल फूलसे कोमल तलवों और चन्द्रमाके समान चमकते नखोंवाले श्यामल चरणको देखकर वह चौंका- 'क्या महात्माने स्वतः दर्शन दिया?' उसने सिर ऊपर उठाया।

पीताम्बरकी बिजली-सी छटापर इन्द्रधनुष-जैसी बनमाला लहरा रही थी। एक किसलय-कोमल कर उसके मस्तकपर पड़ा था। कन्धेपर धनुष लटकाये, तरकश बाँधे कोटि-कोटि सूर्योको लज्जित करनेवाला शीतल नील प्रकाश खड़ा मुसकरा रहा था। 'सचराचर रूपस्वामि' आज घनीभूत हो उठा।

लोगोंकी भीड़ आ रही थी, चिल्लाते; लाठी, भाला और फरसा उछालते। एक दरोगाजी भी पिस्तौल हाथमें लिये दो बन्दूकधारियोंके साथ आ धमके थे। लोगोंने दूरसे नालेमें आते देखा-चीता उनके शोरगुलकी तनिक भी परवा किये बिना निश्चल खड़ा उधर ही देख रहा है। रामधन उसका एक पैर दोनों हाथोंसे पकड़े हुए है। उसका मुख ऊपर है और घुटनोंके बल बैठा है। उसके नेत्रोंसे दो धाराएँ बह रही हैं। मानो वे चीतेसे कह रहे हों 'मेरे दीनदयाल ! अब इसको छोड़ मत जाना।'

किसीकी गोली चले, इससे पहले ही वह पशु रामधनसे पैर छुड़ाकर कूदा और झाड़ियोंमें ही अदृश्य हो गया। हाथ आया नहीं। रामधन उसके जानेकी दिशाकी ओर टुकुर-टुकुर देख रहे थे।