नवधा भक्ति [२]- कथा

Navadha Bhakti [2]- KATHA

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आध्यात्मिक कहानियाँ, geeta press गोरखपुर

4/6/20251 min read

नवधा भक्ति [२]-

कथा

'दूसरि रति मम कथा प्रसंगा'

(१)

'चलो, चौराहेकी ओरसे चलेंगे।' सफेद कुर्ता और सफेद धोती पहने एक सिपाहीने दूसरे सिपाहीसे कहा, जो वर्दीमें ड्यूटीपर जा रहा था। 'रामूकी दुकानसे पान खाते चले जाना।' रास्तेमें एक बात करनेवाले साथीकी आवश्यकता थी उसे।

'आज देर हो रही है।' वर्दीधारी जान छुड़ाना चाहता था। उसे कोई दूसरी धुन थी और वह उस मित्रसे पृथक् होनेको उत्सुक था। 'फिर पान खा लेंगे!' व्यर्थकी परचर्चासे ऊब गया था वह।

'देर तो नहीं हो रही है!' पहलेने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा, 'अभी तो नौ भी नहीं बजे हैं और ड्यूटी दस बजेसे है। इधरसे चक्कर करनेमें दस-पाँच मिनट और सही।' वह आग्रहपर उतर आया।

'आज तबियत ठीक नहीं है।' सचमुच उसके मनमें कहीं कुछ हो गया था। स्वस्थ शरीर होनेपर भी पता नहीं क्यों मन आज उद्विग्न था। चिन्ताका कोई विषय भी नहीं था। एकाकी व्यक्ति किसके लिये उद्विग्न बने ? 'जाकर चुपचाप बैठना चाहता हूँ। मुझे आज छोड़ दो।' उसने हाथ छुड़ा लिया और मुड़ चला।

'मढ़ियापर आज रामायणकी कथा है।' पहलेने फिर हाथ पकड़ा, 'हनुमान्जीका दर्शन करते जाओ।' उसका विचार अब प्रकट हो गया था।

'मेरे जानेपर लोग आग्रह करेंगे और फिर देरी होगी!' भीतरकी तीव्र उत्कण्ठाको दबाकर उसने मनको कर्तव्यपर स्थिर किया।

तुम बैठना मत ! मैं सबको समझा दूंगा। दर्शन करके सीधे चले जाना।' पहलेने आग्रह बनाये रखा। जब हृदय ही चाहता हो तो कोई अपनेको कहाँतक रोक सकता है। उसने तनिक ना-नूके पश्चात् चुपचाप स्वीकार कर लिया और दोनों तहसीलके बदले मढ़ियावाली सड़कपर मुड़ चले।

एक भरा-पूरा गोरा शरीर, बड़ी-बड़ी आँखें, उठी हुई नासिका, चौड़ा ललाट और उमेठी हुई मूँछें उसे बहुत सुन्दर कहनेमें संकोच नहीं करने देतीं। मांसपेशियाँ उभरकर उसे लोहे-सा कठोर दिखलाती हैं। इन सबसे बढ़कर है उसका गला। सुरीला और गम्भीर स्वर बड़ा आकर्षक है। आसपासके मुहल्लोंमें उसके बिना रामायण जमती नहीं। जब झूम-झूमकर वह चौपाइयोंको गाता, श्रोता भी झूम उठते।

सुबह-शाम डेढ़ सौ दण्ड-बैठक लगाकर पूरा लोटा दूध चढ़ा लेता है। रसोईकी खटखट दिनमें एक बारसे अधिक उससे नहीं होती। यह भी कभी-कभी ही करनी पड़ती है, ब्राह्मण होनेके नाते सप्ताहमें पाँच दिन उसे मुहल्लेमें या पासके मुहल्लोंमें निमन्त्रण मिल जाता है। उसकी मिलनसारी और कण्ठने उसे केवल तहसीलका आर्म पुलिस

ही नहीं रखा है। मुहल्लेमें वह किसीका चाचा है और कोई उसका चाचा। दादा, बाबा, भाई आदि सम्बन्ध जुट गये हैं।

कोई उसके है नहीं। माता-पिताका इकलौता पुत्र। उनके पश्चात्

पुलिसमें भर्ती हो गया। घरपर पेट कैसे भरे ? जमीन तो लगान न देनेमें बेदखल हो चुकी थी। अब यहाँ निश्चिन्त था। अच्छा खाना और बचे तो साधु-सन्तोंकी सेवा करना। दो पैसा वक्त पड़ेपरके लिये उसने कभी इकट्ठा नहीं किया।

उसे कोई व्यसन नहीं। वैसे दूध-बादामको व्यसन कहें तो कह लीजिये। दोनों समय कसरत जरूर करता और घुँघराले बालों के लिये सुगन्धित तेल भी उसे चाहिये। मलमलका चुना हुआ कुर्ता और पतली धोती। दूसरे साथियोंकी भाँति एक पतली बेंत उसने भी खरीद रखी है, पर उसे लेकर निकला कभी ही है।

ड्यूटीसे समय बच गया तो वह भोजनादिके अतिरिक्त क्वार्टरमें नहीं मिलेगा। आधा मील दूर श्रीहनुमान्जीकी मढ़िया है। वहाँ एक रामानन्दी वैष्णव रहते थे। कोई साधु-सन्त बाहरसे आते तो वे भी वहीं ठहरते थे। वह उसी मढ़ियापर दिनभर अड्डा जमाये रहता था। बाबाजी रामायण पढ़ते और वह सुनता। यदि वहाँ न मिले तो समझना चाहिये कि अवश्य कहीं कथा या रामायण मुहल्लेके आसपास हो रही है।

कथाका उसे नशा था। कोई सुनानेवाला न हो तो वह स्वयं सुनाने बैठ जायगा। सुन्दर भाव निकालता है। कोई रामायणी क्या उतनी सुन्दर कथा कहेगा ? लेकिन जबतक कोई सुनानेवाला हो, लाख सिर मारनेपर वह नहीं सुनायेगा। उसे सुननेमें अधिक आनन्द आता है।

वर्षाके दिनोंमें जब बाहर नहीं जा पाता, जब अपने क्वार्टरसे निकलना कठिन हो जाता है, वह अपनी रामायण लेकर बैठता है। उसके अश्रुओंने उस पोथीको भिगा-भिगाकर खराब कर दिया है।

(२)

'ओह मनीरामजी आ गये! हम लोग तो निराश हो गये थे कि आप आज न आ सकेंगे!' एक व्यक्तिने बैठनेके लिये जगह बनाते हुए कहा।

बीचकी मण्डली तनिक खिसक गयी। एक आदमीके बैठनेभरका स्थान निकल आया। एक रेहल और एक पुस्तक रख दी गयी वहाँ। सब मनीरामसे आग्रह कर रहे थे। कोई यह देखते हुए भी नहीं देखना चाहता था कि वह वर्दीमें ड्यूटीपर जा रहा है।

मैं तो महावीरजीका दर्शन करने आ गया था। देर होगी, चलता हूँ !' उसके पैर उठते नहीं थे। हृदय कहता था 'बैठ जाओ।' साथ ही कर्तव्य कुछ और कह रहा था।

'ये तो आ ही नहीं रहे थे। बडी कठिनतासे ले आया हूँ।' साथवालेने कहा 'सब लोग कहते हैं तो दो-चार मिनट बैठ लो! अभी तो सवा नौ बजे हैं।' उसने घड़ीकी ओर संकेत किया।

'एक ही दोहा सही!' दूसरोंने हाथ पकड़ लिया। उसे बैठना पड़ा। 'एक दोहेपर उठ जायँगे। देर नहीं होगी। तहसील है कितनी दूर !' उसने अपने-आपको समझा लिया। हृदय बैठनेके पक्षमें था, कर्तव्यको पराजित होना पड़ा। आशंकाएँ अटकी रह गयीं।

ढोलककी गम्भीर गमक और झाँझोंकी तालबद्ध झनकारमें मानसकी मधुमयी लहरियाँ थिरकने लगीं। गायकोंने मुखमें पान दबाये नहीं, खा लिये थे। वे झूम रहे थे और झूम रहे थे श्रोता। स्वरकी मोहिनी दिशाओंमें दूरतक जा रही थी। ढोलक बजानेवालेका कुर्ता पसीनेसे तर हो गया था और गायकोंके भालपर बड़ी-बड़ी बूँदें चमकने लगी थीं।

मनीरामको रामायण कण्ठस्थ थी। रेहलपर पुस्तक खुली सामने पड़ी थी। उसके पन्ने पलटे नहीं गये। अधमुँदे अश्रुभरे दृगोंमें पुस्तककी चौपाइयाँ नहीं, उनका अर्थ नृत्य कर रहा था। वह बड़े सरस स्वरमें गा रहा था।

दस मिनट, पन्द्रह मिनट, आधा घण्टा, घण्टा और पूरे दो घण्टे। ठीक साढ़े ग्यारहपर पूरा करके तब कहीं एकने कहा 'कथा विसर्जन होत है सुनहु वीर हनुमान' वह चौंका, अबतक तो वह दूसरी धुनमें था। उसे न ढोलक सुन पड़ती थी और न झाँझ। गायक और श्रोता उसके लिये थे ही नहीं। वह तो स्वरसे गाता था 'मंगल भवन अमंगल हारी।' और वह 'दसरथ अजिर बिहारी' उसे अपने सामने ही हँसता दिख रहा था। अब ढोलकके साथ तन्मयता टूटी।

ओह!' भागा वह जैसे-तैसे तहसीलकी ओर।

(३)

'तहसीलदार जल्लाद है। वह क्षमा करना तो जानता ही नहीं। हिन्दुओंसे बहुत जलता है। पूजा करनेवाले तो उसे फूटी आँख नहीं भाते। जला बैठा रहता है. मुझसे और भी खार रखता है। इतनेपर भी अभी कल उसने बुलवाया और मैं कथा छोड़कर जा नहीं सकता। आग हो गया था उसी समय। आज उसके हाथमें पड़ गया। प्रभो!' भयके मारे पैर उठते नहीं थे।

'दूसरा कोई सहारा नहीं। पासमें कौड़ी बची नहीं है। बेकारीमें पेट कैसे भरेगा ?' उसके सामने वे दिन प्रत्यक्ष हो गये जब एक टुकड़ेके लिये चाचाका मुख देखना पड़ता था और दिनभर पसीना बहाकर भी शामको चाचीकी फटकार सुननी पड़ती थी।

'नौकरी तो गयी ही! इतनेपर भी जान बचती नहीं दीखती। वह कसाई कुछ-न-कुछ गड़बड़ करके रहेगा। जेल भेजे बिना माननेका नहीं।' खजानेके पहरेपरसे गैरहाजिरी रातमें और उसपर तहसीलदारसे शत्रुता-वह बहुत दुखी हो गया था।

पता नहीं कैसे वह तहसीलके फाटकमें पहुँच गया 'हू कम्स देयर !' पहरेवालेकी आवाजने उसे चौंकाया। उसने नाम बताया और उसके समीप जा खड़ा हुआ।

'अरे मनीराम भाई!' पहरेवाला सिपाही चकराया- 'तुमने अभीतक वर्दी नहीं उतारी ? कहो कैसे आ गये?' वह आश्चर्यमें था।

'क्या बताऊँ भाई!' मनीरामने दुःखसे कहा-' आते समय मोहनसिंह नहीं माने। मैं क्वार्टरसे पौने नौ बजे ही निकला था। वे

मढ़ियापर घसीट ले गये। वहाँ रामायण हो रही थी। लोगोंने बैठा लिया।' आगे कहनेका साहस नहीं पड़ता था।

'आज कोई जाँच करने आया तो नहीं था?' डरते-डरते मनीरामने पूछा।

'तहसीलदार तुम्हारी ड्यूटीमें तो आ ही गया था। इतनी जल्दी फिर कौन आता?' पहरेवालेको प्रश्न ही असंगत लगा।

'तब तो बहुत बिगड़ा होगा। देखो क्या भाग्यमें है! कुछ कहा तो नहीं उसने ललिताप्रसादसे ?' मनीरामसे पहले ललिताप्रसादकी ड्यूटी थी। उन्हें दो ड्यूटी करनी पड़ी होगी, ऐसा मनीरामका ध्यान था।

'आज तुमने भाँग तो नहीं पी है?' पहरेवाला सिपाही आश्चर्य दबा नहीं सका। 'तुम्हारी ड्यूटीमें आया तो था तहसीलदार कुछ गलती पकड़ने ही। वह तुमपर असन्तुष्ट भी बहुत है, यह जानते ही हो; पर जब तुम सोते रहो तब तो बेटेको कुछ मिले! अपना-सा मुँह लेकर चला गया। ललिताप्रसादसे क्या कहेगा? ललिता तहसीलदारका मुँहलगा सिपाही है, प्रायः तहसीलदार उससे अपनी बात बता देता था।'

'तब क्या मेरी ड्यूटीपर ललिता नहीं था ? तुम पहले आ गये थे?' मनीराम कुछ समझ नहीं पा रहा था।

'जाकर सो रहो! तुम्हें आज बहुत नशा चढ़ा है।' सिपाहीने समझ लिया कि आज जरूर कहीं मनीरामने गहरी छानी है 'अरे! तुम्हारी ड्यूटीपर तुम न होते तब तो और कोई होता।'

'हँसी मत करो! तुमने किससे चार्ज लिया है?' मनीरामने समझा, मुझे बनाया जा रहा है।

'तुमसे ! विश्वास न हो तो यह देखो अपना लिखा हुआ !'

आश्चर्य एवं झुंझलाहटसे सिपाहीने रजिस्टर खोलकर बढ़ा दिया। 'खूब देख लो ! तहसीलदारकी निगरानी भी पढ़ लो ! भले आदमी, यह कोई छानने-पीनेका समय है ?'

मनीरामने कुछ सुना नहीं। आँख फाड़-फाड़कर उसने कापी देखी। उसीके हस्ताक्षर हैं चार्ज लेते और देते समयके भी। निगरानी भी बहुत अच्छी है। वह पूरा मुस्तैद मिला है। उसके नेत्र भर आये, 'प्रभो! इस तुच्छके लिये इतना कष्ट?' मुड़ चला वह वहाँसे।

XXX

प्रातः मनीराम अपने क्वार्टरमें नहीं मिला। डॉकसे तहसीलदारको उसका इस्तीफा उसी दिन प्राप्त हो गया।

XXX

बहुत दिनोंतक ग्वालियर स्टेटमें एक प्रसिद्ध सन्त रहते थे। बबूलके नीचे एक लम्बा बाँस लिये पड़े रहते थे। पैर छूनेकी चेष्टा करनेपर उनका बाँस पीठ ठोंक बैठता था। दूर बैठकर उन्हें लोग रामायण सुनाते और मस्तीमें बाबाजी बड़े मधुर स्वरसे चौपाइयाँ गाते थे। लोगोंका कहना था कि वे आर्म-पुलिसकी नौकरीसे इस्तीफा देकर साधु हो गये थे।

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