नवधा भक्ति [२] कीर्तन

Navadha Bhakti [2] Kirtan

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आध्यात्मिक कहानियाँ, geeta press गोरखपुर

3/5/20251 min read

नवधा भक्ति [२]

कीर्तन

जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु। मुकताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु ॥

बबूलोंकी अच्छी हरियाली है। उनकी पंक्ति सटी हई और सघन है। भले उनके नीचे कोई विश्राम न कर सके, पर नेत्रोंको बड़ी अच्छी लगती है वह हरी-हरी रेखा। झड़बेरियोंके झुरमुट प्रकृति-बालिकाने यत्र-तत्र बिखेर दिये हैं और खेतोंकी मेंड़ोंपर पत्थर रखे हैं। उन्हें खेतोंसे चुनकर अलग किया गया है। जाड़ेमें किसी गरीबके पैरकी भाँति खेतोंकी काली मिट्टी शतशः विदीर्ण हो रही है। छोटे-छोटे काले पाषाण उनमें बिखरे पड़े हैं, कौन चुन पायेगा इन्हें।

उस झोंपड़ेके समीपसे यह सब आप देख सकते हैं। गाँव कुछ बड़ा नहीं होगा। उसमें चालीसके लगभग घर हैं- और वे भी सब कच्चे। कुछपर खपरैलें हैं और कुछपर फूस। यह एक झोंपड़ा सबसे अलग दक्खिन ओर क्यों है? है तो स्वच्छ, लिपा-पुता और आकर्षक। गाँव है ब्राह्मणोंका, उसमें एक-दो घर कुर्मी भी हैं और सम्भवतः एकाध घर कोष्ठी भी। यह चाण्डालका झोंपड़ा है।

चाण्डालका झोंपड़ा ? इतना स्वच्छ, लिपा-पुता! और उसकी दीवालपर गेरूसे क्या लिखा है- 'गोविन्द, नारायण, विट्ठल, पाण्डुरंग !' सामने तुलसी-चबूतरा और गेदोंके पेड़। तुलसीजीपर पुष्प चढ़ाये गये जान पड़ते हैं। घरमें बालक नहीं, तभी तो इतनी शान्ति है। बच्चे होते तो बाहर अवश्य आ जाते। घरमें किसीके बोलनेतकका शब्द क्यों नहीं होता ?

झोंपड़ा बड़ा नहीं है। एक या दो कोठरियाँ होंगी उसमें। अवश्य ही एक छोटा आँगन है। झाँककर देखनेसे सब कुछ नहीं, तो भी बहुत कुछ देखा जा सकता है। एक गाय बँधी है, सिरसे पैरतक काली। उसे अच्छी सेवा मिलती होगी, यह उसका शरीर कह रहा है। गलेमें एक फूलोंकी माला पड़ी है। दूध जैसा उज्ज्वल बछड़ा उसके समीप शान्त खड़ा है। दूध उसने पी लिया होगा, नहीं तो पीता नहीं ? ऐसे सुघर, सजे बछड़े मैंने कम देखे हैं। अपने गलेकी माला उसे अच्छी नहीं लगती। फूलोंसे उसे प्रेम नहीं। रह-रहकर गर्दन हिलाता है उसे निकालनेको। वह फुदकता क्यों नहीं? क्या देख रहा है?

एक काला-कलूटा आदमी लेटा है पेटके बल हाथ फैलाकर। वह सम्भवतः गो-माताको प्रणाम कर रहा है। हड्डीके ढाँचेपर मढ़ा हुआ काला चमड़ा। स्नायुजाल बाहर आ जानेको उतावले हैं। कमरमें एक मैली, फटी कछनी है। दोनों हाथोंके समीप जो गायके पैरोंके पासतक लम्बे फैले हैं, कुछ फूल बिखरे हैं। गो-माता बड़े प्रेमसे अपने चतुष्पादको छोड़कर इस द्विपाद वत्सका मस्तक चाट रही हैं। बछड़ा बड़े आश्चर्यसे देख रहा है उसे। वह समझ नहीं पाता कि वह भी उसे चाटे या केवल चौकड़ी भरते हुए बार-बार सूँघे।

'यह चाण्डालका घर है।' यह बात विस्मृत हो गयी। घरके सामने जो चबूतरा था, मैं उसपर चढ़ आया था और मेरी भीतर जानेकी इच्छा हो रही थी। 'उसके काममें बाधा होगी' इसी विचारसे मैं ठिठक रहा था। पूजा समाप्त हो गयी। उसने धीरेसे हाथ समेटे, घुटनोंके बल बैठकर फिर एक बार गायके खुरोंपर मस्तक रख हाथसे वहाँकी धूल नेत्रोंमें लगाकर उसने बछड़ेके पैरोंके पास सिर रखा। अब उस चंचलने सिर सूँघा और उछल पड़ा। हाथसे पैर छूनेका अवसर दिया नहीं उसने। अब उसके पास जाना व्यर्थ था। उछल रहा था वह तो। दरवाजेकी ओर उस काले आदमीने देखा नहीं। उसने केवल हाथ फैलाकर एक जोड़ी करतालें उठायीं। वे आड़में रखी थीं। वह तो उछल उछलकर नाचने लगा-आकाशकी ओर मुख करके दोनों हाथ उठाये करतालकी लयमें कीर्तनके स्वरसे आँगन गंज उठा। बछड़ा फुदकना भूल गया और गाय एकटक उसे देखने लगी।

'गोविन्द हरि नारायण, विठ्ठल पाण्डुरंग!'

X X X 'उस दिन मुझे सबसे अधिक कष्ट हुआ प्रणाम करनेसे। यों अनेकों लोग प्रणाम करते हैं। जब कोई प्रणाम करता है, यदि वह अवस्थामें बहुत छोटा न हुआ तो बहुत बुरा लगता है। अच्छा होता यदि प्रणाम करनेके बदले उसने गाली दी होती या चपत मारी होती।' ऐसा क्यों होता है, कह नहीं सकता। जब उस बुड्डेका कीर्तन समाप्त हुआ, उसकी दृष्टि द्वारकी ओर गयी। पृथ्वीपर सिर रखकर उसने कहा 'महाराज!' वह समझ ही नहीं पाता था कि क्यों एक सफेदपोश उसके झोंपड़ेपर आया है। वह डर गया था।

'वह क्या करे ?' समझ नहीं पाता था। समीप जाय तो छाया पड़ जायगी, बैठनेके लिये कहनेका साहस वह करे कैसे ? वहींसे बोला, 'क्या आज्ञा है, सरकार!'

'इधर आओ!' मैंने संकेत किया और वह आकर पाँच हाथ दूर खड़ा रहा। मैं पृथ्वीपर बैठ गया और मेरे संकेतपर वह भी पृथ्वीपर हाथ जोड़े बैठ रहा। सभ्यताके नाते मैंने पूछ लिया था कि 'तुम्हारे किसी काममें बाधा तो नहीं पड़ेगी?' प्रश्न व्यर्थ था। वह एक उच्चवर्णके पुरुषसे कैसे कह सकता था कि 'अमुक काम करना है।' मेरे प्रश्नोंके उत्तरमें उसने बताया कि उसने बचपनमें एक ईसाई पाठशालामें कुछ पढ़ा है। उसके पास एक भजनोंकी पोथी है और वह उसे अच्छी प्रकार पढ़ लेता है।

आजसे दस वर्ष पहलेकी बात है। शहरमें एक बुआजी आये थे। बड़ी प्रसिद्धि थी उनकी। वह भी उनके दर्शनोंको गया था। उस छोटी-सी नदीके किनारे बड़े मैदानमें उनका कीर्तन हो रहा था। सबसे दूर, एक कोनेमें वह खड़ा था। उसे कुछ भी सुनायी नहीं पड़ा। भीड़ बहुत थी और लोगोंको वह छू न सकता था। दूर खड़ा था। केवल बुआजीके दर्शन कर सका था। उनके हाथ करताल लिये आकाशमें उठे थे और वे आकाशकी ओर देखते नाचते थे। बीचमें खड़े होकर कुछ कहते भी थे। इतना देख सका, यही क्या कम सौभाग्य था उसका।

उसी दिन उसने ये करतालें खरीदी थीं। ठाकुरजी तो चाण्डालके घर प्रतिष्ठित हो नहीं सकते थे। वह तुलसीजी और गो-माताकी पूजा करता है। खजूरके पत्ते काटकर झाडू बना लेता है और बाँसकी टोकरियाँ बनाता है। बाँसकी टोकरियाँ बेचकर कुछ खानेका सामान खरीद लेता है। इतनेसे उसका पेट भर जाता है। उसकी स्त्रीको मरे बीस वर्ष हो गये। फिर दूसरी नहीं लाया। कामसे बचे समयमें अब वह अपनी करतालें लेकर भजन गाता है।

पूछनेपर इतना और भी ज्ञात हो गया कि गो-माता केवल पूजाके लिये हैं। दूधसे उसे कोई मतलब नहीं। वह तो उनके प्यारे बछड़ेकी वस्तु है। उसका काम उनकी सेवा करना है और जहाँतक उसकी शक्ति है, वह उनकी सेवामें कोई त्रुटि नहीं करता।

एक ही इच्छा है उसमें। एक बार पण्ढरपुर जाना चाहता है। मन्दिरमें तो जा सकेगा नहीं। केवल कलश और गरुड़ स्तम्भके दर्शन करेगा। इतनेके लिये उसकी लालसा मचल उठी है। वर्षोंसे वह दो पैसे जुटानेमें लगा है। पता नहीं कब उस लोकका बुलावा आ जाय, इसी वर्ष जायगा वह। मार्गमें टोकरियाँ और झाडू बनाकर पेट भर लेगा. पर गो माताका क्या हो? वह इसी उलझनमें था। अभी चल दे, दो-चार दिनमें आषाढी एकादशीतक तो पहुँच ही जायगा। मेरा मन भारी हो गया था। मैंने गाय रखनेकी प्रस्तावना की। बहुत कुछ हिदायतें देकर उसने उसी समय गाय खोल दी। मेरे पीछे चल पड़ा वह उनको लेकर।

x हाथोंमें करताल, बगलमें झंडा और झोलेमें बाँस काटने छीलनेकी 'बाँकी'! आजतक ऐसा पण्ढरपुरका यात्री किसीने नहीं देखा था। अभी तो यात्रा प्रारम्भ होनेको तीन महीने हैं और यह एकाकी चाण्डाल। लोगोंने बड़े कौतुकसे देखा उसे। यह करेगा क्या वहाँ जाकर ! दर्शन तो होनेके नहीं। कानोंकान समाचार फैलने लगा।

अब उसे भूख कम लगती है। दो-तीन दिनपर कहीं बनाता है। रात्रिको जो गाँव दिखायी पड़ा, उसके बाहर कहीं पानीकी सुविधा देखकर अपना गैरिक झंडा गाड़ देता है। गर्मीके दिन हैं, रात्रिमें ओढ़नेको कुछ चाहिये नहीं। दिनकी धूप तो सदासे सहता आया है। कभी-कभी तीसरे-चौथे दिन वह विश्राम करता है दिनको भी। उस दिन खजूरके पत्ते काटता है, झाडू बनाता है और बेचता है। इन्हीं पैसोंसे उसके कई दिन कट जाते हैं। यात्रामें बाँसकी खटखट उसने की नहीं।

उसे गिरकर मूच्छित होना नहीं आता। हाथ-पैर बचाकर गिरना सीखे भी तो क्या लाभ। उसे क्या मंचपर या भीड़में कीर्तन करना है। उसकी करतालकी ध्वनि नीरव पहाड़ियोंमें टकराकर लौट आती है। उसका 'गोविन्द, हरि, विठ्ठल' मार्गके टीलों, बबूलके वृक्षों, बेरकी झाड़ियों और काले खेतोंपर घूमकर, ढेलेके नीचे दुबके पतिंगोंको सावधान करके, बबूलपरकी चिड़ियोंको चहकाकर, मार्गमें चरती गायों

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और उनके चरवाहोंको चौंकाकर उस नीले नभ-मार्गसे सीधे कहीं चली जाती है। सम्भवतः पण्ढरपुर ! जहाँ वह ईंटपर खड़ा देवता मुसकरा रहा है, उसीके समीप।

नेत्रोंसे दो धाराएँ अवश्य झरती रहती हैं। उसे पता नहीं रहता कि वह खड़ा है, चल रहा है या नाच रहा है। ऊपरके उस नीले पर्देपर उसकी भीतर घुसी छोटी-छोटी निस्तेज आँखें कुछ देखती हैं, पता नहीं क्या। उसके इस कीर्तनको देखने और सुननेवाला कोई नहीं। कोई होता तो वह ऐसा नृत्यमय कीर्तन शायद ही कर पाता।

साधारण मानव सुने या न सुने, पर सभी तो साधारण नहीं होते। भक्तमण्डली चौंकी। योगीजी अपने व्याघ्रचर्मसे उठे। उन्होंने न तो ऊपर मृगचर्म डाला और न त्रिशूल लिया, जैसा वे सदा नीचे उतरते समय करते हैं। पैदल पहाड़ीसे नीचेकी ओर झपटे। मार्ग छोड़ दिया उन्होंने। चिलम जली नहीं थी। एकने उसे हाथमें लेकर खड़े-खड़े दम लगाया और फिर डाल दिया। धूनी छोड़कर सब नीचे उतरने लगे। वे मार्गसे उतर रहे थे। पाँच भक्तोंकी मण्डली थी वहाँ।

पहाड़ीके ठीक नीचेसे पण्ढरपुरका मार्ग जाता है। योगीजी ऊपर रहते हैं। नीचेसे एक ध्वनि पहुँची और उसने बलात् उस साधकको खींचा। एक नंगा काला आदमी करताल उठाये नाच रहा है। बगलमें झंडा गिरकर एक पेड़के सहारे टिका खड़ा है। कंधेपर झोली है। एक क्षण योगीजी रुके और फिर वे दुगुने वेगसे उधर झपटे। मार्गसे भक्तमण्डली चिल्ला रही थी- 'वह चाण्डाल है!' वे लोग इस यात्राका वर्णन सुन चुके थे। योगीजीने सुना नहीं। वे दण्डवत् उसके आगे गिर पड़े।

उसके नेत्र ऊपर थे। पैर हाथपर पड़ते ही ध्यान टूटा। चौंककर पीछे हट गया। 'गुरुदेव!' योगीजी रो रहे थे। झपटकर उन्होंने दोनों पैर भुजाओंमें कस लिये। वह स्तब्ध खड़ा था। भक्तोंने देखा और समझा योगीजी पागल हो गये। 'मैं अब नहीं छोड़ता इन चरणोंको! आज ही रात्रिमें तो पाण्डुरंगने मुझे कहा है।' उसकी समझमें कुछ आया नहीं। भक्तमण्डली खिसक चली।

जीवनमें आज ही उसे ऐसी विपत्तिमें पड़ना पड़ा था। वह कुछ भी समझ पाता नहीं था। चाण्डाल बतानेपर भी उसे छुटकारा नहीं मिला। यह साधु उसके पैर पकड़े है! इस पापसे कैसे छूटेगा वह। उधर योगिराजको, जब वे रोते-रोते दुखी होकर सो गये थे, रात्रिमें स्वप्नमें भगवान्ने कहा था कि 'कल पहाड़ीके नीचे मेरा एक प्यारा भक्त इधरसे कीर्तन करता आयेगा, उसके साथ पण्ढरपुर आओ।' अन्तमें योगीजीके साथ चलनेकी बात उसने मान ली इस शर्तपर कि वे आगे-आगे चलेंगे।

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वह भीड़, उतना बड़ा जनसमुदाय ! कैसे गरुड़ स्तम्भके दर्शन होंगे। योगीजी उसे किसी भी भाँति जनसमूहमें ले जानेको राजी न कर सके। मार्गमें वह प्रायः आपेमें नहीं रहा है। उसे पकड़कर लाये हैं योगीजी। जंगलके कन्द वे खोद लाते थे और कभी भूनकर, कभी कच्चा दोनों खा लेते थे। वह तो अपने कीर्तनमें इतना मग्न हो गया कि खजूरके पत्ते काटनेकी स्मृति ही न रही। वस्तुतः जब कन्द मिल जाते थे, तब वह क्यों उधर ध्यान देने लगा।

एकादशीको यों ही भीड़ होती है। इस देवशयनीको तो पूरा वारकरी-सम्प्रदाय आता ही है, दूसरे भक्तवृन्द भी आते हैं। सड़कपर शरीर छिला जाता है। नगरके बाहर ही दोनोंने अपने झंडे गाड़ दिये। निश्चय हुआ कि रात्रिमें जब भीड़ कुछ घटेगी, दर्शन हो जायँगे। कलश-दर्शन तो हो ही गये, गरुड़स्तम्भ दूरसे भी दीख जाय तो पर्याप्त है। भीड़ तो रात्रिभर रहेगी ही।

जबसे कलश दृष्टि पड़ा, वह आपेमें है नहीं। उसकी करताल बन्द नहीं होती और न उसके पैर रुकते। उसे न कुछ सुनायी पड़ता और न कुछ दीखता। वह अपने कीर्तनमें मस्त है और योगीजी उसकी सँभालमें। रात बढ़ती जाती है, पर भीड़ भी सड़कपर बढ़ती जाती है। उसके घटनेके कोई लक्षण नहीं।

छ में रा '

'आपलोग दर्शन करने नहीं चलेंगे?' दो बजे रात्रिको ये लम्बे गौरवर्ण पीताम्बरधारी पुरुष हैं कौन, जो सेवकके साथ पूछने आये हैं? योगीजी चकित थे। सेवकके हाथमें लालटेन थी। इस भीड़में दूसरेको पूछनेवाला कहाँसे निकल सकता है कोई।' आइये चलें।' उन्होंने आग्रह किया।

वह तो आपेमें था नहीं। योगीजीने एक कंधा पकड़ा और खींच ले चले। 'जहाँतक भीड़ न मिले, वहाँतक पहुँचनेमें तो कोई बाधा नहीं। आगे देखा जायगा।' उन्हें रुकना नहीं पड़ा। काईकी भाँति भीड़ हटती जाती थी और उनके लिये स्थान बनता जाता था।

'हमें आगे नहीं जाना है।' योगीजी गरुड़स्तम्भके पास रुक गये। 'हमारे गुरुदेव चाण्डाल हैं!' उन्होंने कहकर उसकी ओर संकेत किया। वह ज्यों-का-त्यों नाच रहा था।

'आप तो आ सकते हैं!' वे भद्रपुरुष मुसकराये।

'मैं श्रीगुरुचरणोंसे आगे नहीं जा सकूँगा।' योगीजीने गम्भीरतासे उत्तर दिया। उन्होंने कुछ कहा नहीं। खुलकर हँस पड़े और मन्दिरमें चले गये।

नाचते-नाचते पैर लड़खड़ाये। योगीजी न सँभालते तो गरुड़स्तम्भसे सिर टकरा जाता और ....। फिर भी वह गिरा और कुछ चोट भी आ ही गयी।

'यह क्या ?' योगीजी चौंके।' 'भगवान्‌की मूर्ति गरुड़स्तम्भसे तो दीखती नहीं थी। वे पहले भी पण्ढरपुर आ चुके हैं। नेत्र धोखा देते हैं या वे ही भूल रहे हैं?' सामने ही कमरपर हाथ रखे ईंटोंपर खड़े रुक्माई और विठोबाकी पुष्पसज्जित मूर्तियाँ स्पष्ट हैं। कह नहीं सकते - वे मन्दिरमें हैं, बरामदेमें या प्रांगणमें ? यह देखनेका अवकाश किसे था।

योगीजीने देखा-उसने पृथ्वीपर मस्तक रखा। दोनों मूर्तियोंके दक्षिण कर लम्बे फैले आशीर्वाद देने और वह दृश्य अदृश्य हो गया। वे तो नगरके बाहर उसी बबूलके नीचे खड़े हैं और वह नाच नाचकर गा रहा है 'रुक्माई-विठ्ठल !'

तब क्या वे सो रहे थे ? अब भी हाथमें वह गेंदेका पुष्प है, जो उन्होंने उठाया aथा और मस्तकमें प्रणाम करते समय लगा जल सूखा नहीं है। उन्होंने अपने गुरुदेवके श्रीचरणोंमें मस्तक रख दिया।