नवधा भक्ति [३]- गुरुसेवा

Navadha Bhakti [3]- Guruseva

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आध्यात्मिक कहानियाँ, geeta press गोरखपुर

4/8/20251 min read

नवधा भक्ति [३]-

गुरुसेवा

'गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान'

काशीके पण्डित श्रीनरेन्द्रकुमार शास्त्रीजीका लोहा मान चुके थे। उनकी धाराप्रवाह काव्यमयी वाणी, व्याकरणशास्त्रकी असीम पटुता और न्यायसे सूक्ष्म प्रवेश करनेवाली प्रतिभाके सम्मुख कोई टिक नहीं सका था।

शास्त्रीजी थे भी काशीके ही; परंतु उन्होंने काशीके पश्चात् मिथिला और काश्मीरमें रहकर अध्ययन किया था। सुनते हैं कि अनुष्ठान करके सरस्वतीको सन्तुष्ट किया था और अब दिग्विजय करने निकले थे। सबसे पहले विश्वनाथपुरीका ही उन्होंने आह्वान किया। 'बड़ा गढ़ टूट जाय तो छोटे टूटे ही धरे हैं।' सफलता तो वीणापाणि भगवतीके श्रीचरणोंमें रहती है।

प्रायः बड़े विद्वान् शास्त्रार्थोंमें नहीं आते। वे जानते हैं कि वहाँ 'वाद' न होकर 'वितण्डा' होता है और केवल कौशलसे प्रतिद्वन्द्वीको पराजित किया जाता है। यह सब औद्धत्य है और लड़कोंका काम है। मध्यम श्रेणीके युवक पण्डित ही इसमें रस लेते हैं। इस बार भी यही हुआ था।

'कोई नहीं आये तो मेरा दोष ? साहस होता तो सामने आता! घर बैठे रहकर जो बुढ़ापेमें पराजय और असम्मानसे बचना चाहते हैं। वे चतुर तो हैं; पर उनसे मेरी विजयमें कोई बट्टा कैसे लग सकता है?' शास्त्रीजीने सात-सात दिनतक प्रतीक्षा की कि और कोई शास्त्रार्थ करने आये, परंतु कोई फिर नहीं आया। पहले बारकी ही पराजयसे पण्डित उनकी धाक मान चुके थे। पहले-ही-पहले शास्त्रार्थ और काशी-विजय ! शास्त्रीजीके पैर पृथ्वीपर नहीं पड़ते थे। उनका विद्याभिमान तो बढ़ा ही-सम्मान भी चोटीपर पहुँच गया था। जिस गलीसे निकल जाते, लोगोंकी भीड़ दर्शनार्थ टूट पड़ती। कोई उनसे अपनी कुटिया पवित्र करनेका आग्रह करता, कोई माला पहना जाता और कोई चरण-स्पर्श करके ही सन्तोष कर लेता।

गोरे लम्बे शरीरपर कौशेयाम्बर और ऊर्ध्वपुण्ड्र जहाँ हृदयको आकर्षित करते थे, वहीं खड़ाऊँ और पुस्तक श्रद्धावनत भी। शास्त्रीजीका स्वरूप उनकी विद्या एवं प्रतिभाके समान भव्य था।

युवक उद्धत होता है। विद्वान् होकर भी यह औद्धत्य शास्त्रीजीसे गया नहीं था। वयोवृद्ध सम्मान्य पण्डितोंने शास्त्रार्थ जो नहीं किया था। अतः आज वे नगरके सर्वश्रेष्ठ विद्वान् चक्रधराचार्यके समीप स्वयं जा रहे थे। चारों ओर इसकी चर्चा थी।

बहुत-से पण्डित जो आचार्यजीसे द्वेष मानते थे, शास्त्रीजीके साथ जा रहे थे। बड़े-बड़े विद्वान्, पण्डित और छात्र आचार्यजीके यहाँ पहलेसे एकत्र हो गये थे। सबमें कुतूहल था-आश्चर्य था और पण्डितोंमें एक आशा थी। सम्भव है आज इस लड़केद्वारा पराजय विजयके रूपमें परिणत हो जाय।

पण्डितोंने विश्वनाथजीको सबेरे ही दूध चढ़ाया था। छात्रोंने माला और गंगाजलसे उन भोलेबाबाको अर्चित किया था। पुरुषसूक्त, शिव-ताण्डव, महिम्न-स्तोत्र आज सभी उस औढरदानीकी स्तुतिमें प्रयुक्त हुए थे। 'अपनी राजधानीकी लज्जा रखना प्रभो'- पण्डितों और उनसे बढ़कर छात्रोंने आज शिवको मनाया। यह अवसर अचानक आया है-सँभाल लेना।

तिल धरनेको स्थान नहीं। आचार्य अपने छात्रोंके साथ व्यस्त हैं- पण्डितोंको यथोचित आसन देनेमें। 'आचार्यपाद कष्ट न करें।'

नगरके पण्डितोंमें अधिकांश उनके छात्र रह चुके हैं। कोई भी उन्हें व्यस्त रखना नहीं चाहता। सब जहाँ स्थान मिला बैठ गये।

शास्त्रीजी आ गये! किसीने कहा।

द्वारतक जाकर आचार्य उनसे मिले। एक ओर तरुण अहंकार और एक ओर वयोवृद्ध शील ! आचार्यने बड़ी नम्रतासे लाकर बीचमें रखे तखतपर उन्हें बैठाया। उस आसनपर गलीचा बिछा था और आसन्दी लगी थी। पीछे आसपास उसी तखतके शास्त्रीजीके पार्षद बैठ गये।

आजकी भीड़के कारण बड़े कमरेमें जो आचार्यजीके पाठशालाके काम आता था, बैठनेका आयोजन किया गया था। दरियोंपर गलीचे पड़ गये थे और आचार्यजीका आसन तो तख्त रखकर पन्द्रह आदमी बैठनेयोग्य बना दिया गया था।

'आपने बड़ी कृपा की!' आचार्यजीने स्वयं शास्त्रीजीके मस्तकपर चन्दन लगाकर एक मोटा गजरा उनके गलेमें पहना दिया। दोनों धूपदानियाँ सुगन्धित धूपसे कमरेको भरे दे रही थीं।

'आप तो लज्जित करते हैं।' कृत्रिम नम्रता दिखाते हुए शास्त्रीजीने आचार्यजीका हाथ पकड़ा और वे उसी आसनपर समीप ही बैठ गये। सभामें निस्तब्धता छा गयी। सबके नेत्र उधर ही लगे थे।

'मैं कुछ जिज्ञासासे आया हूँ। शास्त्रीजीने उपक्रम किया। लोगोंके कान एकचित होकर लग गये।'

'आप महान् विद्वान् हैं। भगवती वीणापाणि आपपर सानुकूल हैं। वृद्ध हो गया हूँ। स्मृति काम नहीं करती। अध्ययन भी कुछ अधिक नहीं है। मुझे तो आतिथ्यसे ही कृतार्थ होने दीजिये !' आचार्यजी शास्त्रार्थके चक्करमें पड़ना नहीं चाहते थे। उन्होंने बहुत ही नम्रतासे कहा।

'ऐसा नहीं! आप नगरके सर्वश्रेष्ठ विद्वान हैं। उस दिन शास्त्रार्थमें आपके न पधारनेका मुझे दुःख है। आप यदि मुझसे शास्त्रार्थ न करेंगे तो मैं अपनी विजय पूर्ण ही कैसे मान सकूँगा ? चाहें तो आप ही प्रथम प्रश्न कर लें, शास्त्रीजीका अहंकार दबा नहीं रह सकता था।'

'मैं प्रश्न करता हूँ।' लोग चौंक पड़े। मैली धोती, फटा कुर्ता, नंगे सिर, एक तेरह-चौदह वर्षका लड़का खड़ा था। वह आचार्यजीका प्रथमाका छात्र है। पण्डितोंने मुँह फेरकर हँसना चालू किया। कोई-कोई खुलकर हँस पड़े। शास्त्रीजीका मुख इस अपमानसे तमक उठा।

आचार्यजी स्तब्ध हो गये। उनके छात्र चकित थे। तीन वर्षसे यह प्रथमामें अनुत्तीर्ण हो रहा है। आचार्यजी किसीको पढ़ानेमें 'ना' नहीं करते, इसीसे उसे आचार्यजीका छात्र होनेका गौरव मिला है। आज उसे सूझी क्या है? वह उद्धत तो कभी नहीं था।

आचार्यजी विद्या-दानमें आनाकानी पाप मानते हैं। इसका लाभउसे मिला है। बुद्धि ब्रह्माने नहीं दी तो करे क्या? कोई उधार तो देता नहीं। पाठशालामें और घरमें झाडू लगाना, दरी बिछाना, गंगाजल लाना, बाजारसे सौदे लाना आदि आचार्यजीके सब कामोंमें वह रात-दिन जुटा रहता है। दूसरे छात्रोंके कामोंको भी अस्वीकार नहीं करता। पाठ स्मरण करे तो कब ? उसकी उसे चिन्ता भी नहीं रहती। उसका पाठ आचार्यजीकी सेवा है और उसे गर्व है कि उस-जैसा मूर्ख आचार्यजीका कृपापात्र है।

आज इस शास्त्रीजीका औद्धत्य उससे सहा नहीं गया। यों वह अत्यन्त शान्त है। 'यह लड़का गुरुदेवसे शास्त्रार्थ करेगा?' वह आवेशमें खड़ा हो गया था।

'जय-जय सीताराम ?' द्वारपरसे एक साधुने पुकारा और आचार्यजी दौड़े। वे रामानन्दी वैष्णव हैं। एक साधुसे उन्होंने दीक्षा ली है। कण्ठी

बाँधने और तिलक लगानेमें उन्हें संकोच नहीं।

लोगोंने देखा, वे दण्डवत् गिर गये। जटाधारी, भस्म लगाये, तुमड़ी और चिमटा लिये एक वैरागी साधु था।

'गुरुदेव!' आचार्यजीका कण्ठ भर गया था। वे साधुको आगे करके भीतर आये।

उस तख्तपर संकेत पाकर एक छोटी चौकी रख दी एक छात्रने। उसपर आसन डाल दिया। फक्कड़ साधुने उसीपर मृगचर्म अपनी बगलसे बिछाया और बैठ गये। उनको इस भीड़से कुछ लेना-देना नहीं था। आचार्यजीने थालमें गंगाजल मँगाकर चरण धोये, चरणामृत लिया। धूप, चन्दन, पुष्पमाला आदिसे पूजन करके आरती की। चरणोंमें दण्डवत् करके पास ही हाथ जोड़कर बैठ गये।

शास्त्रीजी इस ढकोसलेसे ऊब रहे थे और मन-ही-मन हँस रहे थे। उनके पार्षदोंमें इशारेबाजी हो रही थी। पूजा समाप्त होनेपर, साधुने ठेठ ग्रामीण-भाषामें इस भीड़का कारण पूछा तो आचार्यजीने बड़ी नम्रतासे शास्त्रीजीका परिचय दिया। शिष्टाचारके नाते शास्त्रीजीने हाथ जोड़ लिये।

प्रश्नकर्ता छात्र अभीतक खड़ा था। आचार्यजीने उसे बैठनेका संकेत किया; पर साधुने पूछ लिया 'क्या चाहते हो ?'

'शास्त्रीजीसे पूछ रहा था कि ज्ञानस्वरूप अद्वैत ब्रह्ममें यह जगत् किसे प्रतीत हो रहा है और क्यों ?' उसने अवसर मिलते ही प्रश्न कर लिया। शास्त्रीजी शांकर वेदान्तके पोषक हैं, यह सब लोग जान चुके थे।

'यह मेरा अपमान है'- शास्त्रीजी उठ खड़े हुए।

'काहेका मान-अपमान ? एक बच्चा कुछ पूछता है, बता दो !'

साधुने सीधे ढंगसे आदेश किया, विवश होकर शास्त्रीजीको बोलना पड़ा। उन्होंने न्यायकी कठोर पंक्तियाँ कहना प्रारम्भ किया।

मैं इतना पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। मुझे तो समझा दीजिये ।' लड़का कह रहा था। साधूने समर्थन किया।

शास्त्रीजीने लाख सिर मारा, पर ब्रह्ममें अज्ञान वे कह नहीं सकते थे। लडकेका समाधान न कर सके।

(२)

'इतना अपमान ! एक काशी-विजयीका एक प्रथमामें तीन वर्षसे अनुत्तीर्ण होनेवाले लड़केसे पराजय ! इससे तो आत्महत्या कर लेना ठीक है। व्यर्थ ही मैंने सरस्वतीकी आराधना की। देवता झूठे हैं। उनका वरदान झूठा है। शास्त्रीजी परम व्याकुल थे।'

आचार्यजीके यहाँसे लौटकर उन्होंने अपना कमरा जिसमें ठहरे थे, भीतरसे बन्द कर लिया था। पलंगपर औंधे पड़े थे और रेशमी चद्दर आँसुओंसे भीग गया था। कई बार सेवकोंने पुकारा; पर द्वार खुला नहीं।

'क्यों इतना रोता है?' पता नहीं कब नेत्र लग गये और मानसनेत्रोंने भगवती वीणापाणिको देखा। 'मेरी आराधनाका फल अहंकार नहीं है।' वह प्रतिभाकी देवी कह रही थी।

'एक बच्चेसे पराभव....!' स्वप्नमें भी शास्त्रीजी रो रहे थे।

'देखा नहीं आचार्यकी गुरुभक्ति।' हंसवाहिनीने कहा- 'ऐसा निष्कपट गुरुचरणोंका उपासक दृष्टि उठाकर एक जड़ पाषाणको कह दे तो मैं उससे पराजित होकर रहूँगी। बच्चा किसे कहता है? श्रद्धाने उस साधुकी पदरजमें अखिलेशको पराजित करनेकी शक्ति भर दी थी। वह बच्चा नहीं बोल रहा था....।'

नेत्र खुल गये। शास्त्रीजीने अनुभव किया कि हृदयपरसे एक आवरण दूर हो गया। वहाँ एक स्निग्ध ज्योति है।