नवधा भक्ति [३]- स्मरण

Navadha Bhakti [3]- Remembrance

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आध्यात्मिक कहानियाँ, geeta press गोरखपुर

3/9/20251 min read

नवधा भक्ति [३]-

स्मरण

निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी ॥ तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक । बसहु बंधु सिय सह रघुनायक ।।

'नहीं, वह ऋषि नहीं, मुनि नहीं और न तपस्वी ही है!' देवर्षिकी कर्पूरोज्ज्वल अँगुलियाँ वीणाके तारोंपर अब भी हिल रही थीं, यद्यपि तन्त्री मूक थी। खड़ाऊँ बार-बार उस मृदुल स्वर्णासनपर हिलती जाती थी, मानो कह रही हो कि अब यहाँ अधिक नहीं रुका जा सकता। 'वह एक सुसम्पन्न ब्राह्मणकुमार है और अपने शरीरको सुखाना नहीं पसन्द करता। अच्छे भवन में अच्छे ढंगसे रहता है।' वे उठ खड़े हुए।

अप्सराओंने खड़े होकर अंजलि बाँधकर मस्तक झुकाये। वे सब अबतक पुष्पोंके निम्नास्तरण पर मूक बैठी थीं। देवेन्द्र द्वारतक पहुँचानेके लिये पादपीठसे उठे। देवर्षिके सिंहासनपर बैठनेपर उनके लिये वहीं आसन मिलता है। सो कुछ नहीं- देवर्षि सीधे आकाशमें हो रहे। उन्होंने अप्सराओं की ओर दृष्टि नहीं डाली और इन्द्रकी विदाईका उत्तर नहीं दिया। अवश्य ही झूमकर झुकते हुए पारिजातकी चोटीसे दो पुष्प लेकर वीणा सजा ली गयी थी।

सुधर्मा-सभा स्तब्ध थी। अमरावतीपति उदास होकर सिंहासनासीन हुए। पुष्प-वलय-वेष्टित वामभुजा सिंहासनके पृष्ठ-देशपर फैल गयी और इन्द्राणी ने देखा कि उनके स्वामीका कमलमुख सुगन्धित निःश्वासोंको छोड़ता हुआ झुक गया है। अपने आसनसे देवता तनिक उचककर, गर्दन घुमाये उधर ही देख रहे थे और नर्तकियोंके वाद्य मूक थे। वे उस पाटलारुण आस्तरणपर स्वयं भी मूकचित्र हो रही थीं।

'मार!' स्वर्गाधीशने पुकारा और बड़े स्नेहसे उस पुष्प-पुरुष को अपने ही आसनपर बैठा लिया। उसके वस्त्र और मालाएँ मल्लिकाको मादक परागसे निर्मित थीं। एक हाथमें आम्र-मंजरी और कंपा कमलोंकी एक धनुषाकृति माला। विश्वका वह सर्वश्रेष्ठ योद्धा अपने सैनिक वेषमें ही आया था।

'उर्वशी, तिलोत्तमा, घृताची-इनमेंसे चाहे जिसे पसन्द कर लो।

देवेन्द्रका स्वर सुधर्माकी रत्नमयी भित्तियोंमें साकार प्रतिबिम्बित हो गया। 'सबको ले जाओ नहीं तो ! बहुत सावधानीसे काम करना। आज यह नयी उलझन समाप्त कर देनी है।' वे युद्ध-परामर्श दे रहे थे।

'कहाँ है वह तपोवन ?' मदनने मुसकराते हुए एक स्निग्ध माधुरी बिखेर दी। सभा झूम उठी। 'शाकद्वीप जाना है या जम्बूमें कही हिमालयकी तराईमें ?' स्वरोंमें उपेक्षा थी।

'जम्बूद्वीपमें भारतवर्षसे तुम परिचित हो।' देवताओंने देखा कि मकरध्वज चौंक पड़ा एक क्षणको। वह इस रण-भूमिकी दुरूहतासे परिचित है। यहीं उसे नर-नारायणसे मुँहकी खानी पड़ी थी और मुरलीमनोहरका पुत्र बनकर वह अपने अपराधसे क्षमा पा सका था। यहाँके मर्त्य तपस्वियोंने अनेकों बार उसे अपमानित किया है। सहसा भारतके नामने उसे चौंका दिया। उसी समय उसने अपनेको सम्हाला ।

'कहाँके तपोवनमें वसन्तको भेजना है ?' स्वरमें उत्साह नहीं था और जान-बूझकर उसने अपने जानेकी बात नहीं कही थी।

'तपोवन नहीं-नगरमें ! नर्मदाके किनारे उनके उद्गमसे आगे जो पहला नगर पड़ता है, वहीं। एक सुन्दर सदन है, चारों ओर वाटिका है और सामने कृत्रिम निर्झर है। नगरका सर्वश्रेष्ठ सौध है वह। देवेन्द्रने युद्धक्षेत्रका मानचित्र बतलाया। 'वसन्तके अकेले जानेसे काम न होगा। अब मानव अनवसरके पुष्प-पल्लवोंसे डरता है। वहींकी एवं स्थानके अनुसार व्यवस्था करनी होगी। अप्सराओंको उसी प्रान्त के वेषमें जाना चाहिये। तुम आगे जाओ तो अच्छा हो।' पूरे निर्देश मिल गये।

'वहाँ कोई साधु ठहरे हैं ?' मदनने पूछा यों ही था। साधु उसके सहज वश हो जाते हैं और गृहस्थ कई बार व्यर्थ सिर मारा है उसने।

'कहीं धोखा न खा जाना।' उसे सावधान किया गया। 'नगरके सुसम्पन्न विप्रकुमारके यहाँ जाना है। एक राजकुमारों-जैसे कोमल सजीले युवकके यहाँ, जो उस सौधका स्वामी है और अविवाहित है।' कुछ धैर्य हुआ कामको।

'क्या भय है फिर ऐसे मानवसे ?' देवताओंने एक दूसरेका मुख देखा। वे वाणीसे मूक होते हुए भी संकल्पोंसे बातें कर रहे थे। 'क्यों एक तुच्छके लिये स्वर्गका सौन्दर्य धरापर उतरे और यहाँ शून्य हो ?' हृदयोंमें प्रश्नोंकी झड़ी लगी थी।

'आपलोग कोलाहल न करें।' सुरपति घबरा उठे सुरोंके संकल्प-विकल्पसे। 'देवर्षिने बताया है कि वह घण्टों अपने उपवनके मालतीकुंजमें बैठकर ध्यान करता है। मोटरोंकी भों-भों उसे जगा नहीं पाती और अपनी एकमात्र बहिनकी मृत्युने उसे क्षुब्ध नहीं किया।

प्रभुकी इच्छा-कहकर वह निश्चिन्त हो गया।' भयके लिये इतना पर्याप्त था। पता नहीं, वह किस देवताका स्थान अपने आराध्यसे माँगे। सुरोंने भयको अपने समीप देख लिया।

'केवल हेमलताको ले जाना चाहता हूँ।' मदनने एक ऐसी पुतली छाँटी, जो अभीतक कभी पृथ्वीकी वायुमें नहीं पहुँची थी।

'अच्छा, उसके अनुभवहीन अल्हड़पनसे सहायता लेना चाहते हो ? कोई उस लोककी अनुभविनी होती तो अधिक अच्छा होता, पर तुम्हारी इच्छा।' देवेन्द्रको कोई आपत्ति नहीं थी। स्वर्ग सौन्दर्य शून्य होने नहीं जा रहा था। मदनको इतनी भीड नहीं पसन्द थी युद्ध क्षेत्रमे। एक ही सधा सैनिक पर्याप्त है।

'विधाता तुम्हारे अनुकूल रहें।' पुष्पायुधने उठकर मस्तक झुकाया और सुरेशने उसे हृदयसे लगा लिया। देवता सम्मानमें खड़े हो गये थे और सुन्दरियाँ भी। अप्सराओंने हेमलताको अंकमाला दी और उर्वशीने जल्दी-जल्दी कुछ आवश्यक सूचनाएँ। सुरपतिने पीठ थपथपा दी।

(२)

'उफ्, पता नहीं कौन-से राक्षस छिपे बैठे थे। मेरे हाथको उन्होंने अपने नन्हे शस्त्रोंसे छेद डाला। उसी समय पैरमें भी एक तीर घुस गया। रक्त-ही-रक्त बह रहा था।' हेमलता अबतक भी नहीं समझ पायी थी कि गुलाब तोड़ते समय किस असुराधिपके शस्त्र उसके हाथमें लगे थे। पैरके तीरको उसने देखा था। वह उसके नख-जितना बड़ा था।

'मैं चीख पड़ी, वह ध्यान छोड़कर दौड़ा आया। उसने कहा था कि काँटा चुभ गया है बेलका। यह बेल कौन-सा असुर है, बहिन?' उस बेचारीने स्वर्गमें काहेको काँटे देखे थे। वह झल्ला रही थी 'पृथ्वीके असुर स्त्रियोंपर भी प्रहार करते हैं। छिः !' असुरोंने कभी स्वर्गकी परियोंको मारा नहीं है अबतक।

'उसे जगाकर तुम्हारे पासतक लानेके लिये कहीं मदनने ही तो वे अस्त्र नहीं प्रयोग किये थे ?' बात ठिकानेकी थी। हेमलताने कठोर दृष्टिसे घूरा मदनको। 'क्यों रुष्ट होती हो, विजय कैसे मिलती उसपर ?' उर्वशीने चुटकी ली।

'मेरी विजयपर तुम्हें ईर्ष्या होती है?' हेमलताने हँसते हुए ही पूछा- 'तुम भी तो कई बार पृथ्वीपर गयी हो। तुम्हें क्या कोई सुयोग्य भाई नहीं मिला ?' उसकी आँखें गौरवसे चमक रही थीं।

'भाई ? तो तुम भाई ढूँढ़ने गयी थीं वहाँ?' उर्वशी चौंकी।

'ढूँढ़ने तो नहीं गयी थी, पर ले वही आयी।' हेमलता निराश नहीं, प्रसन्न थी। 'हम अप्सराओंके लिये यहीं क्या वरोंकी कमी है, जो उस पवित्र लोकमें भी वही गिद्धकी भाँति मांस ही देखें। वहाँ बड़े पवित्र गौरवशाली भाई और पिता प्राप्य हैं, जो यहाँ स्वप्नमें भी दुर्लभहैं।' उसके स्वरमें उल्लास था।

'तो तुम उनकी प्राप्तिके लिये फिर यात्रा करना चाहती हो ?' कुढ़कर उर्वशीने पूछा।

'मैं प्रसन्न हूँगी।' उसने सरलतासे कहा। 'यदि सुरपति आज्ञा दें तो इस बार अवश्य कोई धर्म-पिता बनाकर लौटूंगी। न भी जा सकूँ तो भी मैंने एक सफल यात्रा कर ली है। तुम एक बार और हो आओ।' वह व्यंग्य नहीं, सरल आग्रह कर रही थी।

'वह भाई तुम्हें ही मुबारक हो।' उर्वशीने व्यंग्य किया, 'देवरक्षार्थ उसे जीतने गयी थीं आप।' स्वरोंमें बेधक विष था।

'जीत ही तो आयी हूँ।' उसने हँसकर कहा। 'मेरा भाई अपनी बहिनके घर आकर न तो बसना चाहेगा और न यहाँका कुछ लेगा ही। आशा तो नहीं, पर यदि वह दो-चार दिनके लिये आ जाय तो सत्कारमें भयका कारण मुझे नहीं दीखता।' उसके स्वरों न कम्प था न संकोच।

'तुममें यह परिवर्तन कैसे हुआ ?' उर्वशीने पूछा। 'तुम गयी तो मदनके साथ दूसरी भावनासे थीं।' मदन सुरपति के सम्मुख हाथ जोड़े, मुँह लटकाये लज्जित खड़ा था और सुरेश सिर झुकाये कुछ सोच रहे थे।

आकाशमें बादल थे। वर्षा हो रही थी और वायुका वेग प्रवल था। '

पता नहीं क्यों, वसन्तके बदले मदनने पावस और शिशिरको सहायक बनाया था इस यात्रामें ।' हेमलताके स्वरमें कोई विशेषता नहीं थी। जैसे वह एक कहानी सुना रही हो। 'मेरी रंगीन साडी जलसे भीग गयी और सारा शरीर काँपने लगा। यहाँ जो एक मीठी सिहरन कभी-कभी होती है, वैसी नहीं। सब शरीर कम्पायमान था। दाँत परस्पर अनवरत संघर्ष कर रहे थे। बड़ा कष्ट था। तुमने जाते समय कहा तो था कि पृथ्वीपर अनेक प्रकारके रोग होते हैं। पता नहीं, यह कौन-सा रोग था। तुमने कहा था कि कोई रोग हम दिव्यांगनाओंको नहीं होते वहाँ जाकर भी; पर मुझे यह रोग हो गया। दूसरा कोई उपाय तो था नहीं, तुमने दवा बतायी भी नहीं थी, पुष्प लेने चली।' दिव्यांगनाएँ आनन्दकी सिहरनको पुष्प सूंघकर दूर कर लेती हैं इच्छा होनेपर।

'उस असुरके अस्त्र हाथमें लगे पुष्प-वृक्ष छूते ही। जानती कि यह असुरोंका है तो उधर न जाती। एक बाण पैरमें घुस गया। मैं चीखकर गिर पड़ी। कभी-कभी मर्त्यलोकके किसी भक्तकी चीख सुरेशके पास आती है, उससे भी करुण चीख थी मेरी।' उसके नेत्र भर आये थे और रोमांच भी हो गया था।

'डरो मत बहिन !' मेरे नेत्र बन्द हो गये थे। मैंने नेत्र खोलका देखा तो एक गौरवर्ण सुन्दर युवक मेरे पैरको हाथमें पकड़े बैठा था। हेमलताके नेत्र भर आये। 'उसकी पीताम्बरकी धोती भीग चली थी और कौशेय उत्तरीय भी। घुँघराली अलकोंसे मुक्ता टपकने लगे थे। विशाल भालपर बड़ी-बड़ी बूँदें चमक रही थीं। उसने पैरमेंसे वह तीरे जिसे वह बेलका काँटा कह रहा था, अपनी अँगुलियोंसे पकड़का खींच लिया।' उसने पैरका वह स्थान दिखाया, जहाँ अब भी एवं लाल चिह्न था।

'उसीके कन्धेका सहारा लेकर मैं एक कमरे में गयी। उसने यह कौशेय वस्त्र दिया बदलनेको और ऊनी कम्बल मेरे ऊपर डाल दिया। उस भारने कम्प देनेवाले रोगको दूर कर दिया कुछ देरमें और उसके एक सेवकने कवोष्ण दुग्ध-पान कराया मुझे।' कृतज्ञताके भारसे वे स्वर दब चुके थे। 'परिचय पूछा उसने बहिन कहकर। मैंने इधर-उधर देखा, मदन पहले ही भाग चुका था- सच-सच कह दिया। हँसा वह।' वह चुप हो गयी।

'कुछ कहा नहीं उसने ?' उर्वशीने पूछा।

'केवल इतना ही उसने उत्तर दिया 'देवराजकी कृपा-मुझे एक देवी बहिन मिली। जबतक जी चाहे भाईके घर तुम रहो और जब जाना हो, बताकर जाना।' उसे दुःख है कि उसे वहाँ रहनेकी आज्ञा नहीं थी और न कोई उपहार लानेकी। भाईके आग्रहको तोड़कर उसे आना ही पड़ा। यहाँ आकर भी वह दुःख विस्मृत हो नहीं सका है।'

'तुम भाग्यशालिनी हो।' उर्वशीने एक दीर्घ निःश्वास ली।

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(३)

उसने बचपनसे मातृचरणोंमें बैठकर सीखा है श्यामसुन्दरका ध्यान करना। माँके पास न तो कोई मूर्ति थी, न चित्र, पर वे एक शुकसागरकी पुस्तक खोलकर उसे कभी-कभी सुनाया करती थीं-'हृदयमें- बायीं छातीसे ढाई पसली नीचे एक हृदय है, इस कमल-जैसा। उसपर सूर्य हैं। उनके ऊपर चन्द्रमा बिछे हैं और चन्द्रमाके ऊपर अग्नि प्रकाशित है। उस अग्निके बीचमें पीताम्बर पहने शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी मेघसुन्दर भगवान् विराजमान हैं।' प्रभुके सौन्दर्य, तेज और आभूषणोंका वे एक-एक कर वर्णन करतीं। गद्गद हो उठतीं श्रीअंगोंका वर्णन करते समय। नेत्र झरने लगते।

बालक चन्द्रशेखरको वह वर्णन बहुत प्रिय लगता।

वह कभी-कभी तो दिनमें दो-तीन बार मालीसे बगीचेके तालाबसे कमलका फूल तुड़वाता बड़ा-सा और माँके समीप लेकर पहुँचता । 'अम्मा ! इसपर भगवान् कहाँ खड़े होते हैं? बड़े नन्हे भगवान् हैं।' माता प्यारसे पुत्रको समझाती और वह बायीं ओर छातीसे दो-तीन पसली नीचे उस फूलको चिपकाकर देखता। अभीसे वहाँ भीतर कमल देखनेका प्रयास उसने प्रारम्भ कर दिया है। बगीचेके मालती-कुंजमें वह कई बार नेत्र बन्दकर दो-चार मिनट बैठता है।

'माँ! हृदयमें जो कमल है, वह तो नीचे मुख करके सो रहा है। जैसे अपने बगीचेके कमल शामको सो जाते हैं। उसमें क्या भगवान् बन्द पड़े हैं ?' बालकके सरल शुद्ध मनने कुछ ही महीनोंमें कमलका साक्षात्कार कर लिया था।

'उसे रोज-रोज खूब देखोगे तो जाग जायगा ऊपर मुख करके और धीरे-धीरे भगवान् भी उसपर आ विराजेंगे।' माताको उस दिन अपार हर्ष हुआ।

कमलने ऊपर मुख किया, जगा और उसकी कर्णिकापर सूर्य, चन्द्र एवं अग्नि भी क्रमशः बिछ गये। इतनेमें माताने उसे छोड़ दिया। पिता पहले ही परलोक जा चुके थे, माता भी चल बसीं। पन्द्रह वर्षके बालकको इतने बड़े भवन, उपवन और सम्पत्तिका स्वामी बनना पड़ा। माताने विवाह किया नहीं, कुछ सोचकर और अब पुत्रने आनेवालोंसे स्पष्ट 'ना' कर दी। व्यापार चलता है, जमीदारी होती है और वह सबका दक्षतासे संचालन करता है।

उसके भगवान् पीताम्बर पहनते हैं- वह भी पहनता है। अपनो लम्बी-घुँघराली अलकोंमें वह भी चमेली के फूल ही खोंसता है। गोरोचनका तिलक करता है और सोनेकी खूँटी लगी चन्दनकी खड़ाऊँ पहनता है।

खाने-पहननेके लिये नगर-प्रसिद्ध शौकीन है। नगर-प्रसिद्ध धनी भी तो है। सुवर्ण-पात्र उसके यहाँ नहीं व्यवहृत होंगे तो होंगे कहाँ।

मालती-कुंजमें चन्दनकी चौकीपर कुशासनके ऊपर व्याघ्रचर्म रेशमसे ढका सदा बिछा रहता है। उसीपर वह नियमित प्रातः-सायं और बहुधा रात्रिमें भी आ बैठता है। रहनेके लिये उसने उपवनका प्रासाद ही पसन्द किया है। कहीं बाहर तो जाता ही नहीं।

अग्निके मध्यमें एक और उज्ज्वल ज्योति, एक अस्पष्ट, आकृति, लाल-लाल कोमल चरण और शत-शतचन्द्रसमुज्ज्वल नख-पंक्ति। धीरे-धीरे सम्पूर्ण आकृति प्रकट हो गयी और उस दिन वह 'उस मुखकी मुसकान' पर लट्टू हो रहा था। एक चीखने ध्यान भंग किया और वर्षामें वह बाहर निकल पड़ा।

अप्सरा तो अप्सरा ही थी; पर उस अन्तःसौन्दर्यके सम्मुख ?

छिः, इन कूड़ोंमें क्या आकर्षण रखा है। उसने मानव-कर्तव्यका पालन किया था। अतिथिका सत्कार कर्तव्य है और उसे तो 'बहन' कह चुका था वह। उसकी समझमें नहीं आ रहा था कि क्यों देवराज इतनी भीरु मनोवृत्तिके हैं? अन्तमें उसने संकल्पोंको बन्द किया और आसनपर जा बैठा। आकाश स्वच्छ हो गया है और धूप चमकने लगी

है, पर अभी कीचड़ सूखा नहीं है। आज चित्त दूकान जानेयोग्य है भी नहीं।

भीतरके पट खुलनेके बाद बन्द नहीं होते और आज उसने उन्हें खोल दिया है। धीरे-धीरे उस मन्द मुसकान और 'कृपा-विलोकन' ने उसे आत्मविस्मृत कर दिया। 'अहं' जब 'त्वं' में डूबने ही जा रहा था- सहसा वह चौंका। वह मूर्ति हृदयमें थी नहीं। अपने-आप नेत्र खुल गये।

वह अन्तः सौन्दर्य बाहर आकर अवर्ण्य हो गया था। उसे स्मरण नहीं रहा कि मुझे चौकीसे उठकर किसीको आसन देना है। वह स्तब्ध बैठा रहा और हृदयधन हँसते हुए सामने खड़े रहे।

'देवेन्द्र तुमसे क्षमा चाहते हैं और तुम्हारी बहन फिर आयी है दर्शन करने।' उस नीलजलदने अपनी गम्भीर वाणीमें कहा।

'भैया!' हेमलताकी अंजलिके पुष्पोंके साथ सुरपतिका किरीट पैरोंपर झुक गया। उसने देखा- उन दोनोंके नेत्र भरे हैं। हड़बड़ाकर उठा। सहसा बिजलीकी घंटी बज उठी। भोजनका समय हो जानेपर भगवान्‌को भोग लगाकर रसोइया यह घण्टी बजा देता है, जिसमें मालिकको सूचना हो जाय। किसीको आज्ञा नहीं कि चन्द्रशेखरके रहते मालतीकुंजमें आये।

'यहाँ तो कोई भी नहीं है।' वह चौंका। नेत्र मले अपने। पर वह सो नहीं रहा था। वह चौकीके पास खड़ा है और चौकीपर तथा नीचे ये जो पुष्प बिखरे हैं? जिनकी अद्भुत गन्धसे कुंज भर गया है और जिनसे सुन्दर फूल उसने कभी देखे ही नहीं थे ? 'ये इस लोकके पुष्प तो हैं नहीं। इन्हें यहाँ लायेगा भी कौन। तो क्या सचमुच स्वयं प्रभु पधारे थे ?' एक-दो क्षण वह खड़ा रहा और फिर चौकीके ठीक सामने पृथ्वीपर गिरकर छोटे शिशुकी भाँति फूट-फूटकर रोने लगा।

बिजलीकी घण्टी फिर बजी, फिर बजी; पर उसे सुने कौन।'