नवधा भक्ति [४] गुणगान

Navadha Bhakti [4] SING PRAISES

SPRITUALITY

Navadha Bhakti [3]- Guruseva

4/8/20251 min read

नवधा भक्ति [४]

गुणगान

'चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान'

(१)

'क्या हालचाल हैं चौधरीजी ?' खाँसते हुए उस काले-कलूटे बुड्ढेने पूछा- 'आज तो बहुत उदास दिखायी पड़ते हो!' उसके सफेद बाल ऐसे लगते थे, जैसे किसीने कोयलेके ढेरपर चूना बिखेर दिया हो। भींगकर सूखे हुए कागजकी भाँति चमड़ेमें झुर्रियाँ पड़ गयी थीं और मुखसे भी दाहिने हाथमें एक काँसेका कड़ा और गलेसे सूतमें बँधा कुछ छातीपर सफेद-सफेद लटक रहा था।

'राम-राम भाई! आओ बैठो !' अवस्थामें छोटे चौधरीको वह पहले कैसे 'राम-राम' करता ? चौधरीने मचिया आगे सरका दी और उलटी हुई चिलम उठाकर उसमें तम्बाकू भरने लगे। सचमुच आज यह स्थूलकाय वृद्ध बहुत उदास था। बैठा-बैठा कुछ सोच रहा था।

'राम-राम !' लापरवाहीसे मचियेपर आगन्तुक बैठ गया। 'आज तुम्हारी झाँझ चुप क्यों है? घरमें कुशल तो है!' उसने पूछ लिया। वसन्तके दिन थे। दोनोंका शरीर अनावृत था। केवल कटिमें घुटनोंसे ऊपरतक मैली कछनी थी और कन्धोंपर मैले अँगोछे।

'घरमें तो सब ठीक है, पर मनमें नहीं!' चौधरी चिलमके गलेमें जंजीरके साथ बँधे छोटे चमचेसे राखके ढेरको कुरेद रहे थे। बार-बार चमचा डुबाकर दबी उपलीको निकाले बिना अग्निको भीतर ही टुकड़े करके एक-एक टुकड़ा निकालते और चिलमपर रख देते। कंकड़ रखकर तम्बाकू जमा चुके थे। 'गुरुजीने तो कहा था कि बड़ा आनन्द आयेगा। यहाँ अब अपनेको भार लगने लगे हैं झाँझ !' चौधरी ने राख सावधानीसे ढक दी।

'तुम्हीं जगाओ !' बढ़ी हुई गुड़गुड़ीको उसने हाथमें नहीं लिया 'इसीसे उदास बैठे हो? अरे, भजन-भाव आनन्दके लिये थोड़े किय जाता है? आनन्द तो अभी आ जायगा एक बोतल दुधुआ....।' कहते-कहते वह रुक गया। चौधरी सब छोड़ चुके हैं और अब उन्हें उसकी चर्चा भी पसन्द नहीं। यह उसे स्मरण हो गया।

'गुरुजीने तो कहा था!' गुड़गुड़ीको आगन्तुकके हाथमें दे दिया चौधरीने। धुआँ कुण्डलियाँ बनाता हुआ ऊपर नील नभमें एक होनेको दौड़ता और शून्यमें विलीन होता जाता था। 'पर मन पहले दो चार दिनोंके पश्चात् फिर नहीं लगा और अब तो बराबर उचाट होता है।' चौधरीके सूने दृग ऊपर धुएँको देख रहे थे।

'हे भगवान् !' आगन्तुकको कुछ कहनेको मिल नहीं रहा था। 'बड़ी जल्दी जल गयी।' उसने चिलम उतारकर उलट दी। समस्याकी गम्भीरतासे छूटना चाहता था वह।

'जब बुद्ध गया, मैं आधा पागल हो गया था।' चौधरीके नेत्र झरने लगे थे। 'एक सहारा महापुरुषसे जिन्दगीका मिला था, उसमें भी मन नहीं लगता। फिर वही शोक ताजा हुआ जाता है!' चौधरीने सिरपर हाथ रख लिया था।

'चलूँ भाई, कालीको मेरे बिना कोई घास भी नहीं डालेगा।' आगन्तुक मचियासे उठ खड़ा हुआ। वह दो भजन सुनकर जी बहलाने आया था। दरवाजेपर अकेले बैठे-बैठे ऊब गया था। यहाँ परिस्थितिने सब गोलमाल कर दिया था। वह शोक मनाने बैठ नहीं सकता था। उसे पता था कि चौधरी आधे सनकी हैं। अपनी धुनमें वह किसीकी सुनते ही नहीं।

'जाओगे भाई!' चौधरी जैसे नींदसे जागे। उठ खड़े हुए। तब तक तो वह द्वार पार कर रहा था। दरसे ही उसने 'राम-राम' का उत्तर दे दिया।

(२)

'बड़े सिद्ध महात्मा हैं। भगवान्‌के पक्के भक्त हैं। घण्टों भजन गाते और भगवान्‌की मूर्तिके सामने चौधरी रोते हैं। नाचते-नाचते मारे प्रेमके मूच्छित हो जाते हैं। उनके चेले कहते हैं कि यह भाव-समाधि है। इसमें वे घण्टों मूच्छित रहते हैं। तुम एक बार उनके पास हो आओ ! सब दुःख दूर हो जायगा।'

जबसे चौधरीका इकलौता लड़का मरा है, वे आधे पागल हो गये हैं। काम-धन्धा तो पहले भी भाई ही देखते थे; पर अब वे दिन-दिनभर रोते रहते हैं। दो-दो दिनतक पानी नहीं पीते। सूखकर आधे हो गये हैं। पुत्रका शोक उन्हें खाये डालता है।

बाजारमें एक बड़े भगवद्भक्त महात्मा पधारे हैं। उनके साथ तीन-चार गाजे-बाजेवाले हैं। कहते हैं कि वे श्रीतुकारामजीके शिष्य हैं। स्वप्नमें तुकारामजीने उन्हें उपदेश किया है। करताल लेकर जब मन्दिरमें खड़े होते हैं, मूर्ति भी मुग्ध हो जाती है। चौधरीसे बहुत लोग उनके यहाँ जानेको कह चुके।

'मेरा उद्धार करो प्रभु!' अन्ततः चौधरीने उनके दोनों चरण एक दिन पकड़ ही लिये। 'बड़ा दुःखी हूँ!' बच्चोंकी तरह फूट-फूटकर रोने लगे।

महात्माजीको पता लग गया था कि गाँवमें ये ही सबसे सम्पन्न हैं। कुर्मी जाति भुक्खड़ नहीं होती। एक ही लड़का था, वह पन्द्रह-बीस दिन हुए गुजर गया। उसीके शोकमें यह पागल रहता है।

'रोओ मत!' कोमल कर मस्तकपर पड़े 'भगवान् जो भी करते हैं, भलेके लिये ही करते हैं। तुम्हारे कल्याणके लिये ही उन करुणामयने उसे बुला लिया। अब भजन करो! शोक करना व्यर्थ है! इससे वह लौट तो सकता नहीं!' बड़े स्निग्ध शब्दोंमें महात्माजी समझा रहे थे।

'मैं प्रयत्न करके भी उसे भूल नहीं पाता हूँ!' चौधरीकी हिचकियाँ बँध गयी थीं।

'मैं तुम्हारी सहायता करूँगा!' महात्माजी द्रवित हो गये। 'उसी दीनदयालकी शरणमें जाओ! वही तुम्हें शान्त करेगा!' बड़ी गम्भीरतासे कहा उन्होंने।

'मैं दीन गँवार हूँ!' चौधरीको आश्वासन मिला। 'मैं तो इन्हीं चरणोंकी शरण हूँ।' उसने महात्माके दोनों चरणोंको अंजलिमें लेकर उनपर मस्तक रखा।

'प्रभुका गुण-गान करो!' महात्माजीने कहा 'तुम्हें शान्ति मिलेगी, आनन्द मिलेगा और मिलेगा वह आनन्दघन सौन्दर्यसागर, जिसकी एक झाँकी पाते ही विश्वके सभी आनन्द और सौन्दर्य सड़े हुए दुर्गन्धिपूर्ण लगने लगेंगे।'

अन्धेको क्या चाहिये। दो आँखें। चौधरीके गलेमें कण्ठी बँध गयी और वे तिलक लगाने लगे। अपने हाथ चूल्हा फूंकनेके भयसे उन्होंने बुद्धकी माँको भी कण्ठी बँधवा दी।

नियमसे प्रातः-सायं दो घण्टे चौधरी मन्दिरमें भगवान्के सम्मुख कीर्तन करते हैं। घरपर भी उनकी झाँझ चुप नहीं रहती। कोई काम-धाम तो है नहीं, जब कोई बात कहनी हुई तो कह दी और मचियापर बैठे झूमते रहे। कोई और साथ न भी हो तो क्या हानि ? वे अकेले ही द्वार गुंजित करते रहते हैं-

'दीनबन्धु अति उदार!

भव-भय हर सुन्दरतर, करुणासिन्धु कृपागार!'

(३)

पुरुषोत्तममासकी पंचक्रोशी चल रही थी। काशीके चारों ओर परिक्रमा करनेवालोंने मानव-मेखला पहना दी थी। 'हर हर महादेव' से गगन-मण्डल गुंजित हो रहा था। सिरपर पोटली, हाथमें हुक्का, नंगे पैर, लाठी लेकर टेकते चलनेवाली बुढ़िया भी थी और गाती, इठलाती, धक्का देती चलनेवाली भी।

चौधरी चूकनेवाले नहीं थे। वे जा रहे हैं हाथमें झाँझ लिये झूमते। खासी मण्डली चल रही है साथमें, ढोलकिया और दूसरे झाँझवाले भी आ मिले हैं। गाँवसे आयी हुई स्त्रियाँ पीछे छूट गयी हैं। विश्रामस्थानपर साथ हो जायेंगी। गाँवसे बारह आदमी आये हैं।

परिक्रमा समाप्त करके दर्शन भी तो करने ही थे। पण्डाजीने विश्वनाथ, अन्नपूर्णाके दर्शन करा दिये। श्रीसत्यनारायणमन्दिरके सम्मुख मण्डली गाती-बजाती पहुँची। चौधरी आज विश्वनाथजीको भजन सुनाते-सुनाते ही विभोर हो गये थे। आनन्दमें डूब चुके थे।

एक अच्छी खासी भीड़ थी सड़कपर। बीचमें कोई साधु करताल बजाकर नृत्य कर रहे थे। लम्बे बाल कन्धोंपर झूल रहे थे। नेत्र आकाशमें किसी अज्ञातको ढूँढ़ रहे थे-नहीं, देख रहे थे। दो धाराएँ कपोलोंपर बह रही थीं। सुन्दर कण्ठसे श्रोता विमुग्ध थे।

आनन्दमें देहकी सुधि जाती रही। पैर लड़खड़ाने लगे। शिष्योंने हाथका सहारा दिया, फिर भी धड़ामसे गिर पड़े, वहीं पृथ्वीपर। 'ओह ! कितना उत्कट प्रेम है!' कोई पंखा करने लगा और कोई मुखपर जल छिड़कने लगा। लोग चरणधूलि लेने टूट पड़े। इतना बड़ा प्रेमी कहाँ मिलेगा ?

'भगवान्‌के सामने ढोंग करता है?' भीड़ चीरकर एक औघड़ घुस आया और उसने महात्माजीको दो लात मारी। लोग सन्न रह गये।

सिद्धराज बाबा कीनारामको सभी पहचानते थे। उन योगिराजको छेड़े कौन ? सबने सिर झुका लिये। 'उठता है या करूँ मरम्मत ?' एकके हाथसे बेंत छीनकर औघड़ने धुन दिये पाँच-सात। समाधि छू हो गयी। औघड़के चरणोंमें जल्दीसे उठकर महात्माने मस्तक रखा और सिर झुकाकर एक ओर खिसकने लगे।

चौधरीकी मण्डली आ गयी। चौधरी तो अपनेमें थे नहीं, शेषने महात्माजीके चरणोंमें सिर टेका। वे चौधरीके गुरुदेव थे। भीड़ फिर एकत्र हो गयी, जो खिसक रही थी।

'अब यह देहाती हूश भी पिटेगा।' लोगोंमें कानाफूसी होने लगी। 'यह भी ऊपर ही देखता है! आँसू भी खूब बहाना जानता है, पर नाचता उतना बढ़िया नहीं।' किसीने कहा।

'अब भाव-समाधि आने ही वाली है!' एकने जोरसे कहा। लोग मुसकुराने लगे। 'ऐसी बेभाव पड़ेगी कि बच्चाजीकी भाव-समाधि सदाको हवा हो जायगी।' व्यंग्य हो रहे थे।

बाबा कीनाराम कुछ क्षण खड़े रहे और फिर वे भी अपना करवा उठाकर चौधरीका एक हाथ पकड़ नाचने लगे। 'इन सिद्धराजको क्या हो गया?' सब आश्चर्यमूक हो गये। चौधरीका गद्‌गद स्वर अस्पष्ट होता गया। वे केवल 'अँ अँ' करते रहे। साथवाले ही गा रहे थे।

सहसा पैर लड़खड़ाये। चौधरीको कोई सम्हालनेवाला नहीं था। धड़ामसे गिरे और सबने देखा कि योगिराज जल्दीसे उस गवाँरके पैरोंमें हाथ लगाकर अपने मस्तकपर घिसते हुए उसके सिरहाने आ बैठे और उसका सिर उन्होंने अपनी गोदमें ले लिया। मन्दिरमें भगवान्‌का श्रीविग्रह मुसकरा उठा था उसी समय।

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