नवधा भक्ति [५]- जप
Navadha Bhakti [5]- Jap
SPRITUALITY


नवधा भक्ति [५]-
जप
मंत्र जाप मम द्रढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥
(१)
'एक तान्त्रिक महात्मा आये हैं गोपालदासके बगीचेमें। बड़े सिद्ध हैं और उदार भी। कुछ श्रद्धासे ले जाना हो तो ले जाय, वे कुछ माँगते नहीं। मैं आज ही दर्शन करके आया हूँ। कैसा भी रोगी हो, उनकी विभूति पाते ही चंगा हो जाता है। कल्लू-जैसा कोढ़ी दो घण्टेमें ऐसा हो गया कि पहचाना नहीं जाता है और वह लँगड़ा तेली, वह अब तो दौड़ लगा रहा है। बड़े दयालु हैं महात्माजी। उनकी देवी जागती हैं।' ललिताप्रसादने सोत्साह सुनाया।
'रोगियोंकी भीड़ होती होगी ?' रामकिशोरमें उत्सुकता नहीं थी, यद्यपि उन्हें तीन वर्षसे लकवा हो गया है। मुख टेढ़ा हो गया है। दायें हाथ-पैर ठिकानेसे काम नहीं करते। एक नेत्र भी बन्द हो गया है। शरीरमें बराबर कष्ट रहता है।
'अभी कल ही तो आये हैं यहाँ! भीड़ तो होने ही वाली है। जो सुनता है, वही पहुँचता है। सभी दुखी हैं। सभीको कुछ-न-कुछ चाहिये ही। तुम कल सबेरे ही चलो। दिन बीतनेसे भीड़ बढ़ती जायगी और फिर साधुका ठिकाना क्या! मौज आयी तो रमते-राम हो जायँगे।'
मित्रके शब्दोंमें आग्रह था।
'कल पूजा-पाठसे निवृत्त होकर ग्यारह बारह बजे चलो। जिसमें घण्टे-दो-घण्टे सत्संग हो!' रामकिशोरने सबेरे चलनेमें असुविधा देखी। वे बड़े सबेरे स्नान करके दुर्गापाठ करने बैठ जाते हैं और पाठके साथ २५ माला नवार्ण-जप भी तो करना रहता है। इससे निवृत्त हुए बिना दूसरे किसी काममें हाथ नहीं लगाते।
'वहाँ सत्संगका डील-डौल तो है नहीं। दुखियोंकी सुननेसे उन्हें अवकाश नहीं मिलता। सबेरे चलनेसे भीड़ कम रहेगी। विभूति लेकर जल्दी लौट आयेंगे। एक दिन पूजा एक घण्टे देरसे सही। ललिताने दोपहरको जानेका विरोध किया। सचमुच भीड़-भाड़ होनेसे पहले पहुँचना सुविधाजनक था।'
'मुझे विभूति लेने तो जाना नहीं है!' रामकिशोरके स्वरमें गम्भीरता थी और दृढ़ता भी !
'क्यों ?' ललिताप्रसाद चौंक पड़े।
'मेरी दयामयी भगवतीसे अधिक दयालु और भी कोई हो सकता है, ऐसा मैं नहीं मानूँगा। उन करुणामयी जगज्जननीने मेरे लिये यही उचित समझा है। मेरे प्रारब्धके इस भोगमें उन्होंने मेरा मंगल देखा है। यदि ऐसा न होता तो यह अवस्था रह नहीं सकती थी। फिर मैं उनके विधानमें क्यों टांग अड़ाऊँ? क्यों उनके प्रसादको अस्वीकार करूँ ? जो वे देना चाहती हैं, उसे कोई रोक नहीं सकता और जो वे देना नहीं चाहतीं, उसे किसकी शक्ति है जो दे देगा ?' उस श्रद्धालुके नेत्र भर आये थे।
'बिना परीक्षा किये किसीपर अविश्वास करना ठीक नहीं! फिर भक्त भी तो छोटे-बड़े होते हैं!' मित्रने कुछ झुंझलाकर कहा।
'मैं अविश्वास कहाँ करता हूँ। मेरा मतलब इतना ही है कि सर्वसाधारणके लिये तो मन्त्र, तन्त्र आदि ठीक ही हैं; पर जो किसी भी कारण माँकी शरण आ गया है, उसे माँपर अविश्वास नहीं करना चाहिये। मैं एक अधम प्राणी हूँ; पर मौके लिये सभी शिशु एक-से होते हैं। वह किसीसे अधिक स्नेह तो कर सकती है; पर किसीका भी मंगल-विधान करना भूल नहीं सकती। उसके वरदहस्तकी छाया से वंचित एक भी नहीं रह सकता।' स्वर और भर गया था एवं सीपोंये मोती बरसने लगे थे। ललिताप्रसादने समझ लिया कि यह रोगी किसी भी प्रकार जायगा नहीं। उन्हें दुःख हुआ और रोष भी। वहाँसे वे उठकर चले गये।
(२)
गाँव न बहुत छोटा है और न बड़ा। क्षत्रिय, ब्राह्मण ही अधिक रहते हैं। दूसरी जातियाँ भी हैं, पर उसके दो-दो, चार-चार घर है। सब किसान ही हैं। जमींदार तो इलाहाबादके कोई व्यापारी हैं और वे यहाँ रहते भी नहीं। गाँवमें क्षत्रियोंका ही प्रभुत्व है, यों कहना चाहिये कि रामकिशोरसिंहका ।
पक्के घर देहातमें कहाँ? मिट्टीका ऊँचा मकान और ऊपर
खपरैल। मकानके सामने चहारदीवारीसे घिरा आँगन है। उसीमें बैठक है। बैठकमें एक लम्बा कमरा और बरामदा। आँगनमें एक ओर लम्बा छप्पर है, जिसमें बैल, गायें बँधती हैं। बीच आँगनमें कल (गन्नेसे रस निकालनेकी मशीन) गड़ी है।
दिनभर गड़गड़ा चढ़ा रहता है। सेर-सवासेर तम्बाकू जल जाती है। आगन्तुकोंके लिये पीतलके घड़ेमें जल, गिलास और मिश्री पानी-पीनेको प्रस्तुत रहती है। कहार चौबीस घण्टे तैयार खड़ा रहता है। आतिथ्यका तो पूछना ही क्या? इसीमें तो इज्जत है। कोई भी आफिसर इधर आनेपर यहीं ठहरता है। पटवारी, दारोगा और कानूनगोका तो
अड्डा ही है।
रामकिशोरसिंह है-एक जालिम आदमी। आसपासके अहीर
और दूसरे लठैत उनके संकेतपर मर मिटनेको तैयार रहते हैं। पुलिस उनकी मुट्ठीमें रहती है और अदालतमें वे वकीलोंके भी कान काटते हैं। एक-न-एक मुकदमेकी पैरवीमें वे कोर्ट पहुँचे ही रहते हैं।
मजिस्ट्रेटसे उनकी खासी जान-पहचान हो गयी है। चौहद्दी उनका लोहा मानती है। उनके साथ मित्रता करनेमें ही सब भलाई समझते हैं। जिसके पीछे पड़े, जड़ खोदकर फेंक दिया। अवश्य ही ब्राह्मणोंसे वे कभी झगड़ते नहीं। यहीं वे सिर झुकाकर हानि और अपमान भी सह लेते हैं।
सबको आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने उस बेताजके राजाको उस दिन यह कहते देखा- 'जाने दो! मेरे प्रारब्धमें नहीं था।' किसीने उनके खलिहानमें आग लगा दी थी और जौका पूरा ढेर भस्म हो गया था। लठैत लाल हो रहे थे और सब जानते थे कि यह काम किसका हो सकता है।
'उसे पकड़कर बाँध दो पेड़से और फिर उसका घर तथा खलिहान दोनों फूँक दो! पुलिसमें जानेका नाम ले तो दोनों पैर तोड़ दो!' एक लठैत आवेशमें चिल्ला रहा था।
'सो कुछ नहीं! किसीसे कुछ कहना नहीं है। तुम लोग आओ!' सबको ठेलकर रामकिशोरसिंह दरवाजेपर ले गये। शर्बत पिलाया और घरोंको भेज दिया। खलिहानकी राख बोरेमें भरवाकर उन्होंने सबेरे गंगाजीमें छोड़नेको बलुआ घाट भेज दिया। गाँवभर चकित था कि इस शेरको शान्ति कैसे दबा सकी!
कारण कुछ था नहीं। चार दिन हुए अपने ९५ वर्षके विद्वान् कुलगुरुसे रामकिशोरसिंहने दीक्षा ली है। दीक्षाके समय उन्हें शिक्षा भी मिली है। किसीको सताना मत! सब माँके पुत्र हैं। माँ जो भी करती है, अपने पुत्रोंके मंगलके लिये ही करती है। उसकी इच्छाके विरुद्ध संसारमें कुछ भी होता नहीं। उसपर विश्वास करो और उसका नाम जपो ! इतनी जल्दी वह शिक्षा विस्मृत नहीं हुई है और गुरु-आज्ञाको भंग करना उनका हृदय कभी नहीं चाहेगा।
इसके पश्चात् तो रंग ही पलट गया। सूर्योदयसे पहले बैठकर ग्यारह बारह बजे पूजा समाप्त होने लगी। कोर्ट छूटा, थाना छूटा। आवभगतमें कमी देखकर आफिसरोंने आना-जाना बन्द कर दिया: लठैतोंकी मण्डली बिखरने लगी। लेकिन सम्मान घटा नहीं। पहले लोग डरते थे. अब श्रद्धा करने लगे। पहले मुकदमेबाज जुटते थे, अब सरल-सीधे लोग आने लगे। अभी ही तो सच्चा सम्मान मिल पाया था।
(३)
'मन लगता नहीं है। किसी प्रकार संख्या पूरी करनी पड़ती है। क्या मुझपर जगज्जननीकी दया न होगी ?' एक अंगसे पंगु रोगीने रोते-रोते वृद्ध गुरुके चरण पकड़ लिये।
'ऐसा न कहो। माँकी दया सदा-सर्वदा शिशुपर है। अपने ही पाप मनको चंचल करते हैं। काँपते हुए झुर्रीपड़े हाथ पीठपर पड़े।'
'इस जीवनमें तो मुझे उनके श्रीचरणोंके दर्शन होते नहीं दिखते !' रोगी फूट पड़ा। हिचकी बंध गयी।
'अबकी नवरात्रिमें विन्ध्याचल चले जाओ!' तनिक सोचकर वृद्धने कहा। उनकी भीतर धँसी आँखें गम्भीर होकर मुँद-सी गयीं।
कहना नहीं होगा कि रामकिशोरसिंहने गुरु-आज्ञाका पालन किया। लकवेके कारण असमर्थ होनेसे साथमें एक कहार भी साथ लेना पड़ा। गाँवसे दो ब्राह्मण दूसरोंका पाठ लेकर जा रहे थे। पासके दो-तीन ग्रामोंके ब्राह्मण भी थे। अपने-अपने यजमानोंके पाठ करने चले थे। किसी-किसीको पचास पाठ मिल गये थे। पूरी मण्डली थी।
एक धर्मशालेमें डेरा लगा। ब्राह्मण तो एक पाठ करके छुट्टी पा जाते, उसीमें सब पाठोंका अन्तर्भाव मानकर बनाने-खाने चल देते। कहारको आज्ञा थी किसीके चौकेमें अपना बनवा लिया करे।
ब्राहाणोंका चौका-बर्तन कर देता और वे उसे रोटी दे देते थे। अपना सीधा भी बचा लेता था। उसे कुछ काम भी नहीं था। प्रातः ठाकुर साहबको स्नान कराके मन्दिरमें उनको पहुँचा दिया, आसन लगाकर पुस्तक और पूजनकी सामग्री रख दी, बस ! आकर उनकी धोती साफ करके छुट्टी। शामको दूध लाकर गरम कर लेता और साढ़े दस बजे जाकर ठाकुर साहबको मन्दिरसे लिवा लाता। वे दिनभर वहीं जप-पूजा-पाठ करते थे और रात्रिमें एक बार तीन पाव दूध लेते थे।
देवीके पूजनकी सामग्री मन्दिरमें भेजकर पण्डेके साथ दर्शन करके आसनपर बैठते। पुस्तकादिकी पूजा और पाठ समाप्त करके गोमुखीमें जो हाथ पड़ता तो फिर रात्रिको नेत्र खुलते। पहले दिन बार-बार आसन बदलने पड़े, मन ऊब गया।
ही !'
तीन ही दिनोंमें सब ठीक हो गया। गुरु-वाक्यपर विश्वास और सच्ची लगन क्या नहीं कर सकती ? आसन सिद्ध हो गया। बदलनेकी आवश्यकता नहीं रही। मन भी लगने लगा और अन्तिम दिन ? वह सिंहवाहिनी पूरे दिनभर मानस नेत्रोंके आगे वरद हस्त उठाये कृपा-
दृष्टिसे देखती रही। शरीर जड़के समान दिनभर पड़ा रहता था। सभी दर्शक इस दिनभर अश्रुधारा बहाते रहनेवाले भगतको आश्चर्यसे देखते। पण्डे और पुजारियोंमें श्रद्धा हो चली इनके प्रति।
नवरात्रिकी अन्तिम रात्रिको ही विप्रवर्ग प्रस्थान कर गया। एकाध बचा सो दशमीको प्रातः चला गया। रामकिशोरसिंहने उस दिन हवन और ब्राह्मण-भोजन कराया। एकादशीको अष्टभुजीका दर्शन करने गये। सवारी मिली नहीं, पैदल बड़ा कष्ट हुआ। लौटते समय चार बज गये वहाँसे चलते-चलते।
'बड़ा पापी हूँ, इन नेत्रोंसे माँके श्रीचरण कैसे देख पाता ? उन्होंने दया करके ही अन्तरमें दर्शन दिया!' बड़ा दुःख हो रहा था कि आज यह पुण्य-भूमि छोड़नी पड़ेगी।
'मैं तो लोटा वहीं भूल आया!' मन्दिरसे एक मील आनेपर कहारको याद आया। एक शिलापर ठाकुर साहबको बैठाकर वह भागा। गोमुखीमें रुद्राक्षकी माला फेरने लगे वह।
'बचाओ ! हाय राम! गोमुखी छूट गिरी। दो सौ गजपर एक सुन्दर नौ-दस वर्षकी बालिका जो लाल छींटकी साड़ी पहने थी, चीख उठी थी। वह इधर ही दौड़ी आ रही थी। दस हाथ ऊपर पहाड़ीके टीलेपर शेर उछलनेको खड़ा था। पता नहीं कैसे शक्ति आयी हाथ और पैरोंमें, दौड़े और उसे उठा लिया गोदमें। एक भयंकर गर्जनासे जंगलको कँपाता हुआ शेर उछला, लड़की शरीरमें चिपक गयी। नेत्र बन्द हो गये।'
नेत्र खोला, सामने ही वह सिंह खड़ा था मुख फाड़े। लड़कीने अपनेको छुड़ा लिया और कूदकर उस वनराजकी पीठपर हो रही। उसने जब अपनेको छुड़ाया, रामकिशोरका मुख खुला। सम्भवतः वह कहने जा रहे थे 'बच्ची...।' सहसा चौंके और मुखसे निकला 'माँ!' उन्होंने देख लिया था कि वे अष्टभुजी हैं।

