नवधा भक्ति [६] सदाचार
Navadha Bhakti [6] Virtue
SPRITUALITY


नवधा भक्ति [६]
सदाचार
छठ दम सील बिरति बहु करमा । निरत निरंतर सज्जन धरमा ॥
(१)
छोटी-छोटी गोल-गोल आँखें, दृढ़ मांसपेशियाँ शरीरपर सघन रोमराशि, कड़े उठे हुए केश, मोटा नीचेका ओष्ठ। उसका रंग कोयलेसे भी अधिक काला था। यदि वह सरदारका लड़का न होता तो कोई उस सुस्त और गुमसुम युवकको तीन कौड़ीको भी पूछता नहीं। उसके काले चमड़ेके भीतर, छातीकी हड्डियोंके नीचे एक दुग्धोज्ज्वल सुकुमार हृदय है, इसे कौन देख सकता ? जो देखा जाता है, वह पौरुष उसमें नहीं था।
जो भाला चलाना न जाने, जो शिकार न करे और लूटपाटमें उत्साह न रखे, वह भी क्या भील है? बचपनसे ही अल्हण कुमार ऐसा ही सुस्त है। पता नहीं उसे क्या रोग है। उसने भी भाला और तीर चलाना सीखा था। बड़ा अच्छा निशाना था उसका। पेड़के पत्ते और फूलोंपर सधा हुआ हाथ पड़ता था। जब सच्चे निशानेका समय आया, उसके हाथ बँध गये। हिरन ठीक सामनेसे भाग गया, पर धनुषपर खींचा हुआ बाण छूटा नहीं। उसने पहले ही शिकारके दिन बाण उतार लिया। न फिर धनुषपर डोरी चढ़ी और न भालोंपर सान, उसने शिकार करनेका फिर नाम नहीं लिया।
मांस खाना सीख ही नहीं सका। पूर्वजन्मका संस्कार ही कहिये, माँका दूध छोड़नेसे बहुत पहले रोटी तो खा लेता था सूखी; पर उसमें शोरबेका सम्पर्क होनेपर मुख फिरा लेता। बच्चेके मुखमें जब भी माताने बलात् ऐसा ग्रास दिया, उसे वमन हो गया। बड़ी देरतक रोता रहा वह। अब तो वह रोटी शहदसे भी नहीं खाता। उसे नमक-रोटी
प्रिय है। फल, कन्द और पत्तोंसे उसे प्रेम है। महीनेमें बीस दिन उसकी एकादशी होती है। अन्नाहार तो यदा-कदा चलता। उसे खट्टे-मोठे-चरपरेमें कोई रुचि ही नहीं।
नाच-गानेमें तो सम्मिलित होता ही नहीं, उसने कल पितासे स्पष्ट यह कहकर 'मैं शादी नहीं करूँगा !' भीलोंको चकित कर दिया। उसने शादीकी बात सुन ली थी और बिना संकोचके कह दिया था। ऐसा साहस भी कोई करता है। भीलोंके लिये असह्य और नवीन बात थी। अपने इकलौते पुत्रको सरदार बहुत मानते हैं, स्नेह करते हैं। उसकी हठको भी जानते हैं। माताने रो-रोकर आँखें लाल कर लीं, पर वह डिगा नहीं। अन्ततः हार माननी पड़ी सबको ।
(२)
'आज बघौरेपर (व्याघ्रकी मूर्तिके पास) उत्सव है, चलोगे नहीं अल्हण!' एक मित्रने पूछा।
'बाबू बीमार हैं, उनके पास रहना है। मैं नहीं जाऊँगा' सरदारको कलसे ज्वर आ रहा है। अल्हण उनकी सेवा करेगा।
'हो आओ बेटा! मैं अच्छा हूँ। मुझे कुछ चाहिये नहीं।' झोपड़ीमेंसे आवाज आयी। वृद्धने बाहरकी बातें सुन ली थीं।
'मेरी इच्छा भी तो नहीं है बाबू!' अल्हण भीतर चला गया। पिता जानते थे कि वह जायगा नहीं। गाँवमें दूसरोंकी बीमारीमें वह रात-रातभर जागकर सेवा करता है, आधी रातको भी जंगलमें जड़ी लेने भाग जाता है; फिर अपने पिताको बीमार छोड़कर वह उत्सव देखने जा सकेगा ?
'तुम तनिक सो रहो।' रात्रिभर जगनेवाले पुत्रसे पिता आग्रह कर रहे थे।
'मुझे न नींद आती है और न आलस्य।' झूठ तो वह बोलता ही नहीं। बीमारको देखकर उसकी नींद और भूख दोनों भाग जाती हैं।
'कुछ खाया भी तो नहीं है! रोटी खा लो!' बीमारका आग्रह था। इच्छा न होनेपर भी पिताकी आज्ञा थी। आजतक केवल शादी, शिकार और लूटको छोड़कर उसने पिताकी आज्ञा कोई टाली नहीं। रोटी-नमक लेकर बैठ गया। पानीके सहारे कुछ ग्रास गलेसे नीचे ठेल दिये। पिताकी चिन्तामें वह भोजन कर नहीं सकता था। बीमारी बढ़ती जा रही थी। जड़ी-बूटियाँ काम नहीं कर रही थीं।
'मेरा तो समय हो गया!' वृद्ध सरदारके समीप सभी भील एकत्र हो गये थे गाँवके स्त्री-बच्चोंके साथ। झोपड़ी भर गयी थी। सबके नेत्र भर आये थे। स्त्रियाँ चीख रही थीं और देखा-देखी बच्चे भी। वृद्ध रुक-रुककर बोल रहा था। 'जो कुछ मुझसे कठोरता और भूल हुई हो, उसे भूल जाना। यह अल्हण...!' वह आगे बोल नहीं सका।
कुहराम मच गया। अल्हण पिताके पैरोंको अब भी हाथमें लिये मूक बैठा था। उसके नेत्र शून्यमें कुछ ढूँढ़ रहे थे। वह न रोया और न चिल्लाया। चुपचाप ज्यों-का-त्यों बैठा रहा और जब भील पिताके शवको ले जाने लगे तो वह उनके साथ हो लिया।
(३)
'आप लोग अपना कोई और सरदार चुन लें! मुझसे यह भार चलेगा नहीं। मुझमें न योग्यता है और न रुचि।' अल्हणने दो टूक जवाब दे दिया।
सरदारका पुत्र होनेके कारण उसे भीलोंने सरदार बना दिया। यह बात कड़खूको सह्य नहीं थी। वह बलवान् था, उसका हाथ शिकारमें सधा हुआ था, निशाना पक्का था और साहसी भी था वह। उसके हृदयमें स्वयं सरदार बननेकी इच्छा होना अस्वाभाविक नहीं था। इसी इच्छा होनेके कारण वह अल्हणसे द्वेष करता था। यही आलसी तो उसकी महत्वाकांक्षाका बाधक था।
बाघने दो बकरियाँ गाँवमें मारीं। रात्रिमें सोते समय वह घुस आया होगा। आज उसे जंगलमें ढूंढना है, नहीं तो वह बार-बार आता रहेगा और आदमियोंपर भी चोट करने लगेगा। यह काम सरदारका है। कड़खू कलसे सबको उभाड़ रहा है। आज वही अगुवा बनकर सरदारसे साफ-साफ पूछने आया है। 'इस तरह कैसे चलेगा?'
पुलिसने चार पट्ठोंका चालान किया, सरदार चुप रहे। वे चाहते तो क्या छुड़ा नहीं सकते थे ? उस दिन जब कालूपुरावाले चढ़ आये थे, वे झोपड़ीमें बैठे रहे। 'उन्हें तो केवल हम सबके विरुद्ध फैसला भर देना आता है। सत्य, न्याय- ये उन्हें बहुत सूझते हैं। हमारा तो काम ही है चोरी, डाका। हरिश्चन्द्र बननेसे कैसे चलेगा ?' कड़खूकी बातें भीलोंको उत्तेजित कर चुकी थीं।
जब अल्हणने अपने ही गाँवके एक भीलके विरुद्ध दूसरे गाँवके पक्षमें फैसला दिया 'इसने चोरी की है! अपराधीको वस्तु लौटाकर माफी माँगनी चाहिये।' भील जलभुनकर रह गये।
आज बाघसे रक्षाका प्रश्न लेकर वे आये हैं।
'आप लोग ठीक कहते हैं। रक्षाका अपना कर्तव्य भी मैं समझता हूँ, पर मुझमें उत्साह नहीं। मैं इस जिम्मेदारीसे ही छुट्टी चाहता हूँ।' अल्हणने उत्तर दिया।
'सरदारका झोपड़ा, उनके बाण, धनुष और बाघचर्म क्या होंगे ?' कड़खूने पूछा। ये वस्तुएँ सरदारको उपहार मिलती थीं और दूसरोंसे श्रेष्ठ होती थीं। बीचका बड़ा झोपड़ा सरदारका समझा जाता था।
'मुझे कुछ चाहिये नहीं। मैं तो पेड़की छाल लपेटने जा रहा हूँ।' सचमुच अल्हणने जब बाघचर्म हटाया तो लोगोंने देखा कि वह नीचे भोजपत्र पहने है। मेरे लिये वह गुफा काफी है। पहाड़ीमें एक सूनी गुफा थी। उसीकी ओर उसका संकेत था।
कोई कुछ कहे, इससे पहले ही अल्हणने उनके बीचसे निकलकर गुफाका रास्ता ले लिया। एक दो जनोंने पुकारापर उसने ध्यान दिया नहीं। कड़खूने रोक दिया। 'उसे जाने दो! देर करनेसे काम नहीं होगा। आज बाघको शामसे पहले ही मार डालना है!' वह ध्यान बटाना चाहता था।
'वह कुछ भी नहीं ले जा रहा है!' एक भीलने कहा।
'उसे चाहिये क्या ? फल, कन्द जंगलसे ले आयेगा और शिकार करना नहीं; जो हथियार ले जाय। कुछ ले जाना चाहेगा तो फिर आकर ले जायगा। हम लोग रोकते तो हैं नहीं।' कड़खूने सबको बाघके लिये जंगलमें चलनेको प्रस्तुत कर लिया।
(४)
उसे छुट्टी मिल गयी थी। भीलोंके झगड़े सुनना, निर्णय करना, गाँवके पशुओंको और शत्रुओंसे रक्षा करना। पानी गर्मीमें न सूखे, इसके लिये सावधान रहना, अवसरपर काम आनेके लिये कन्द, फलादि संग्रह करना-ये सब काम उसे भार लगते थे। सरदार पदको छोड़कर वह बहुत सन्तुष्ट हुआ था।
अब रोगियोंकी सेवा, भूले-भटके यात्रियोंको आश्रय और भीलोंसे उनकी रक्षा तथा चुपचाप एकान्तमें किसीका चिन्तन-किसी अज्ञातका, जिसे वह भी नहीं जानता था। मन किसी काममें लगता नहीं था। अकेले बैठकर कुछ सोचता रहता था।
गुफामें नारियलके दो-तीन खोखले थे पानी पीनेको, पत्ते बिछे थे सोनेके लिये। पत्थरमें गड्डा कर लिया था एक ओर, उसमें पानी भरा रहता था। भोजनकी चिन्ता थी नहीं। जंगलसे एक दिन लाये कन्द और फल कई दिन चलते थे।
ऐसे आदमीसे कौन शत्रुता करेगा? एक बाण सन्नसे आया और कानोंके पाससे गुफाकी दीवारमें जाकर गड़ गया। वह डरा या घबड़ाया नहीं, गुफाके बाहर देखने लगा। सोचा 'किसी शिकारीका भूलसे हाथ चूक गया है!' कुछ दूसरा किया भी क्या जा सकता था?
सहसा एक चीख सुनायी पड़ी। दौड़ा वह गुफाके बाहरकी ओर। एक रीछने कड़खूको पकड़ लिया था। पासमें बेरकी झाड़ियाँ पड़ी थीं, उन्हींमेंसे कटी हुई कुछ टहनियाँ लिये अल्हण दौड़ा। रीछके बालोंमें उसने जाकर उन्हें उलझा दिया और पीछे खड़े होकर रीछके दोनों नेत्र दोनों हाथोंसे बन्द कर लिये। घबड़ाकर उसने कड़खूको छोड़ दिया। वह भागा और अल्हण भी कूदकर अलग जा खड़ा हुआ। रीछ झपटा, पर बड़े-बड़े बालोंमें जंगली बेरकी टहनियाँ उलझी थीं, वह उन्हें छुड़ानेमें व्यस्त हो गया।'
कड़खू बोला, 'उस दिन तुम्हारे हाथमें जो बाण लगा था, मैंने मारा था! ज्वर और पश्चात्तापने उसे व्याकुल कर दिया था।'
'जानता हूँ!' अल्हणने छोटा-सा उत्तर दिया। 'कुछ भील मुझे अब भी सरदार बनाना चाहते हैं। वे बाबूके कृतज्ञ हैं और उनके लड़केको इस प्रकार गुफामें नहीं रहने देना चाहते। सरदारका झोपड़ा और सामान तुम्हारे पास देखकर तुमसे वे द्वेष करते हैं।'
'इस झंझटको दूर करने और अपनी सरदारीको निर्विघ्न करनेका रास्ता मैंने सोचा था, तुम्हें मार देना। उस दिनका गुफामें आया बाण भी मेरा था! अब मुझे माफ कर दो!' वह रोने लगा।
'रोओ मत ! तुम्हें देखते ही मैं समझ गया था। चलो, जो हुआ उसे भूल जाओ!' अल्हणमें न रोष था और न क्रोध।
'तुमने सब जानकर मुझे बचाया क्यों?' रोगीकी हिचकी बंध गयी। पश्चात्तापने उसे मूच्छित-सा कर दिया।
'वह मेरा कर्तव्य था ! अब रो-रोकर अपनी तबीयत बिगाड़ोगे तो मैं नाराज हो जाऊँगा !' सगे भाईके समान स्निग्ध स्वरमें उसने कहा। जड़ी पिसी उसके हाथमें थी। रोगीने उसके मुखकी ओर भरे नेत्रोंसे देखा। दवा पीना अस्वीकार न कर सका। चुपचाप मुख खोल दिया।
(५)
'अल्हण, हम आज तुम्हें गुफामें नहीं रहने देंगे! हमारे लिये खाली कर दो!' कौशलकिशोर मुसकरा रहे थे। जो प्रार्थना करनेपर भी महर्षियोंके आश्रमोंमें कदाचित ही ठहरते हैं, बड़े-बड़े भील सरदारोंके आग्रहपर जो पेड़के नीचे दो घण्टे भी नहीं ठहरे, वे अल्हणसे स्वयं उसकी गुफा माँग रहे हैं। माँग कहाँ रहे हैं? अपनी समझकर बिना माँगे ले लिया है? है कोई ऐसा भाग्यशाली ?
माता जानकीके साथ प्रभु उसी शय्यापर सोये। पत्ते उन्होंने उठाने नहीं दिये। थोड़े किसलय उसने और बिछा दिये। गुहाद्वारपर रात्रिभर रामानुजके समीप बैठकर वह उनकी दिव्यवाणी सुनता रहा और जब प्रातः प्रभु प्रस्थान करने लगे, उनके श्रीचरणोंमें उसने मस्तक रख दिया। फिर उठा नहीं वह मस्तक।

