नवधा भक्ति [७]- दास्य
Navadha Bhakti [7]- Slave
SPRITUALITY


नवधा भक्ति [७]-
दास्य
सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरें धनु बाना ॥ करम बचन मन राउर चेरा। राम करह तेहि के उर डेरा ॥
'आजका आखेट मैं स्वयं करूँगा !' बड़े राजकुमारने कहा 'चाहे कुछ भी हो, कैसी भी परिस्थिति क्यों न बन जाय; पर दूसरा कोई हाथ उठावे तो उसे मेरी शपथ !' भाइयोंने सिर झुका लिये। सेवकोंमें इतना साहस कहाँ था ? उन्हें तो कह देनामात्र पर्याप्त होता। अवश्य ही, कभी-कभी वृद्ध शिकारी हाथ चला बैठता है- आज तो वह आया ही नहीं। उसका लड़का ही आया है मार्ग एवं शिकारका पथ-प्रदर्शन करने।
'हाकड़ (चौकीदार हिरन) बोल रहा है, कुमार!' दिन और रात्रिमें जब भी कभी किसी चीते या बाघकी आहट होती है, हाकड़ बोलता है। प्रत्येक हिरनोंके गिरोहमें तीन-चार पहरेदार होते हैं और वे गिरोहके बैठनेपर थोड़ी-थोड़ी दूर चारों ओर सावधानीसे खड़े रहते हैं। तनिक आहट पाकर बोल उठते हैं और गिरोह चौकड़ी भरता दिखलायी पड़ता है। 'हमलोग झाड़ियोंमें हो रहें।' पथ-प्रदर्शक युवकने प्रस्ताव किया।
बाघ बड़ा सावधान पशु होता है। तनिक-सी भी मनुष्योंकी आहट पाकर वह छिप जाता है या अवसर हुआ तो भाग जाता है। उसकी पशु-बुद्धि बतलाती है कि यह दो पैरका पशु जब काली या रंगीन टेढ़ी छड़ी लेकर निकलता है तो वह बाघसे भी भयंकर होता है। उसके आखेटके लिये उससे भी अधिक सावधान होना पड़ता है। 'इस छोटे मैदानके चारों ओरकी झाड़ियोंमें एक-एक व्यक्ति पृथक् पृथक् छिपे !' बड़े राजकुमारने आज्ञा दी 'मैं इस मोटे पेड़के पीछे छिपता हैं।' पेडके पीछे छिपकर आघात करनेकी यह प्रकृति आगे भी सरकारमें प्रकट हुई। गयी नहीं। कहना नहीं होगा कि सबने आज्ञा-पालन किया।
'सब लोग खाँस छींक लें।' आखेट-प्रदर्शकने आदेश दिया
'कोई भीतर जाकर न तो छींके और न खाँसे ! आसन भी न बदले !
चाहे मच्छर काटें या मक्खी, चुपचाप मूर्तिकी भाँति बिना पत्ता हिलाये
सब कष्ट सहकर दम साधे सब लोग बैठे रहें!' छोटे कुमारको हँसी
आ गयी। यह उन्हींकी अवस्थाका युवक अपने वृद्ध पितासे भी
अधिक शासन करता है। बड़े कुमारने खाँसनेका नाट्य किया तो तीनों
भाई मुसकरा पड़े। शिकारी युवक उस बड़े पेड़के पीछे ठीक पीछेकी
झाड़ीमें बैठा था।
बहुत बड़ा बाघ था। मस्त चाल थी। घुटनोंकी चड़मड़-चड़मड़ भी आतंकित करती थी। धीरे-धीरे आगे आ रहा था। उसके पानी पीनेका यही मार्ग था। झाड़ियोंसे घिरे इस मैदानको पार करके सौ गज दूर निर्मल पहाड़ी स्त्रोत कल-कल कर रहा था। तनिक ठहरकर, गर्दन मोड़कर वह पीछे और दोनों ओर देखता जाता था। पूँछ उस वनराजपर चॅवर कर रही थी।
सहसा वह रुका-गुर्राया और इधर-उधर मुख फेरने लगा। वह कुछ सूँघ रहा था। चारों ओरसे मनुष्योंकी गन्ध आ रही थी। उसने पहले ध्यान नहीं दिया था। मोटे वृक्षके पीछेसे पीले वस्त्रका एक जरा-सा कोना उसने देख लिया था। उसे देखकर ही चौंका था। अब परिस्थिति उसकी समझमें आ गयी। 'दो पैरके पशुओंने उसे घेर लिया है। वह बन्दीप्राय हो चुका है। कोई हानि तो नहीं की है उसने इनकी। उसके पास शिकार भी नहीं जो वे छीनना चाहते हों। उसीको मारेंगे वे ? छिः !' पिछले दोनों पैर जमाये उसने। कूदनेको प्रस्तुत हो गया।
'हाय, हाय, भैयाने तो अभीतक धनुषपर डोरी भी नहीं चढ़ायी है।' सभी कुमार बड़े दुखित हुए। धनुषपर बाण चढ़े तो थे, पर शपथ ? मुट्ठी छूट नहीं सकती थी। सेवकोंकी अक्की-बक्की भूली जा रही थी। बड़े कुमार मजेसे इस सुनहले काली धारीवाले स्वतन्त्र पशुको देख रहे थे। वे ऐसे मुग्ध थे, मानो अपनी अश्वशालाका कोई अश्व देख रहे हों।
एक गर्जना - भयंकर गर्जनासे कानन फट-सा गया। आश्चर्य, कुमारोंके बाण अब भी नहीं छूटे। सेवक अर्धमूर्छित से हो रहे थे। बाघ कूदा और मोटे पेड़के सामने दिखायी पड़ा। अब बड़े कुमार चौंके। उन्होंने धनुषका एक सिरा पृथ्वीपर रखा और दाहिने हाथसे उसे झुकाकर बायें हाथसे प्रत्यंचा लेने झुके। अच्छा अवसर चुना उन्होंने डोरी चढ़ानेका। व्याघ्र भी कोई योद्धा है, जो धर्म-युद्ध समझेगा और शस्त्र लेनेका अवसर देगा ? उसने अपना भारी दाहिना पंजा उठाया।
'अरे चल।' इसके साथ ही एक भाला उसकी छातीमें पूरे फलतक घुस गया और महाबलिष्ठ भुजाओंने उसी भालेको दबाकर उसे पीठके बल पीछे पटक दिया। उस काले युवकके वज्र-कठोर पुढे चमक रहे थे। भालपर बड़ी-बड़ी बूँदें आ गयी थीं। उसने बाघकी छातीपर वैसे ही अपना बायाँ पैर रखा, जैसे अपनी कमरमें बँधे व्याघ्रचर्मपर रख सकता था। जोर लगाकर भाला निकाल लिया। पशुमें आघात करनेकी शक्ति कहाँ थी? वह तो शान्त हो चुका था।
'अब मैं दण्डके लिये प्रस्तुत हूँ!' उस मूर्तिमान् शौर्यने भाला फेंक दिया एक ओर, और बड़े कुमारके चरणोंमें अंजलि बाँधकर घुटनोंके बल बैठ गया। 'मैंने शपथकी उपेक्षा की है।' उसके मुखपर भयका कोई चिह्न नहीं था।
'सखे !' बड़े कुमारके हाथोंसे चढ़ा हुआ धनुष गिर गया। उन्होंने दोनों हाथोंसे उठाकर उसे बलपूर्वक हृदयसे दबा लिया। इतनेमें भाई और सेवक भी आ पहुँचे।
'इन्हें दण्ड मैं दूँगा।' छोटे कुमारने हँसकर कहा। 'चलकर गुरुदेवसे कहता हूँ कि इनको सशरीर स्वर्ग भेज दें और वहाँ ये इन्द्रासन अपनायें। देवेन्द्र आजकल बहुत अहंकारी हो गये हैं। वे कुछ दिन सुमेरुकी गुहाओंमें निवास करें।' सब हँस पड़े।
'सेवक कहीं भी रहें- जहाँ आज्ञा होगी, रहना ही होगा उसे।' उसके स्वर ज्यों-के-त्यों गम्भीर थे। 'पर वह तो सेवक ही है। स्वामीके श्रीचरण वहाँ भी उसे सेवाके लिये मिल जायँगे- ऐसा उसे विश्वास है।' उसने उठाकर चरण-रज मस्तकसे लगायी।
'तब तो तुम्हें वहाँ भेजना बड़ा अंधेर करेगा।' मझले कुमार हँसे।
'नहीं, अब गुह निषादराज गुह होकर अपने समीप ही रहेंगे।' कुछ हँसते हुए बड़े कुमारने अपने दाहिने अँगूठेसे यों ही उसके भालपर तिलक खींच दिया। वह उन राघवेन्द्रके श्रीचरणोंमें फिर मस्तक रखने झुक पड़ा।
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(२)
'तुम महाराजके वचनोंका अनादर करके किसका अनादर कर रहे हो गुह ?' वृद्ध मन्त्रीने कह तो दिया, पर उनके हृदयमें भी कम संघर्ष नहीं था।
'महाराजका ?' उसने आगे कुछ नहीं कहा। मस्तक पृथ्वीपर रखकर महाराजको प्रणाम किया उसने। 'यदि मैंने अपराध किया है तो मुझे दण्ड मिले। इससे अच्छा होगा कि मुझे मृत्युदण्ड दिया जाय।' उसके नेत्र टपकने लगे थे।
तुम्हें आज्ञा पालन करना होगा।' मन्त्रीके स्वर कठोर थे।
'और सब पर एक इस।'
'सो कुछ नहीं।' मन्त्रीने उसे बोलने नहीं दिया आगे।
'देखिये, मैं कह चुका कि मैं इस आज्ञाका पालन नहीं कर सकूँगा।' समस्त राजसभा स्तब्ध हो रही थी। जिसके अनुशासनको देवेन्द्र एवं लोकपाल भी मस्तक झुकाकर स्वीकार करते हैं, उसीकी आज्ञाकी अवहेलना इतनी निर्भीकतासे एक क्षुद्र निषाद कर रहा है। बड़े कुमारने उसे ग्रामाधिपसे निषादपति क्या बना दिया, पैर पृथ्वीपर ही नहीं पड़ते।
'तुम इसका परिणाम जानते हो ?' स्वतः महाराजने पूछा।
'जानता हूँ प्रभु !' उसने प्रणाम किया और महाराजसे मिलने आये एक आसनपर बैठे यमराजकी ओर देखा।
'इस दुराग्रहका कारण क्या है?' मन्त्रीने स्नेह-सरस स्वरमें पूछा।
'मेरा अभाग्य।' वह कुछ भी बतलानेको प्रस्तुत नहीं प्रतीत होता था।
'तुम थोड़ी देर बाहर जाकर सोच लो और अपने पितासे सलाह कर लो।' महाराजने संकेत किया और बिना बोलनेका अवसर दिये उसे दो सभारक्षकोंने बाहर पहुँचा दिया। महाराज स्वयं चकित थे कि आज इसे क्या हो गया है? और कभी तो वह इतना दुराग्रही नहीं दीख पड़ता था !
पितासे उसे कुछ सलाह लेनी नहीं थी। वे उठकर आये और उसे गोदमें खींचकर रोते हुए समझाने लगे। जीवनमें पहली बार आज वह पितृ-आज्ञाकी अवहेलना कर रहा था और उसके लिये फूट-फूटकर रो भी रहा था।
'व्याघ्रचर्म मेरे ही हाथमें था और उसीसे वे रक्तके बिन्दु गिरे थे।' उसके स्वरमें नम्रता तो थी पर भय नहीं था। महर्षि वसिष्ठके बड़े कुमार शक्तिजीके सभामें पधारकर अर्ध्यादिके अनन्तर आसन ग्रहण करनेके पश्चात् वह बुलाया गया था।
महाराज उसे बहुत समझा चुके हैं। आज्ञा दे चुके हैं कि महर्षि शक्तिके पधारनेपर आज वह मौन रहे। राजाज्ञा चाहे उसीके स्नेहके कारण क्यों न हुई हो, बहुत कठोर रूप रख चुकी है। मन्त्री उसे समझा चुके हैं। बाहर पिता आज्ञा दे चुके हैं। इन सबकी अवहेलना कबका कर चुका है वह। महाराजकी आज्ञा-भंगका फल दण्ड होगा-अधिक-से-अधिक मृत्यु दण्ड। पिताकी आज्ञाके न पालन करनेसे नरक होगा। महर्षि रुष्ट होकर शाप देंगे।
उसने सब सोच लिया है, सब समझ लिया है। 'यदि वह मौन रहेगा तो सम्भव है, भेद खुल जाय! महर्षिका क्या ठिकाना, वे आज प्राणाधिक प्यार करते हैं, क्षणभरमें शाप दे डालें! न, उसके रहते यह कभी न होगा। उसे किसीसे भय नहीं है।' महर्षि रुष्ट होकर ही राजसभामें महाराजसे आवेदन करने आये हैं।
'तेरा इतना साहस !' उन्होंने क्रोधपूर्वक कहा- 'मेरा आसन नहीं दीखता था तुझे ? उसे अपवित्र करते लज्जा नहीं आयी ?' उन्होंने महाराजके मुखकी ओर देखा।
'बच्चा है, अपराध हो गया।' महाराजने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाया। जी तो कुछ और चाहता था। 'समझाया, बुझाया, आज्ञा दी ! न बोलता तो कुछ बिगड़ जाता ? पर है तो रामका सखा !' महाराज चाहकर भी कठोर नहीं हो सकते थे। वह हाथ जोड़े नतमस्तक खड़ा था।
'हुँ!' महर्षि शक्तिने महाराजकी ओर देखा। एक क्षण सोचा।
अच्छी बात !' उनके हाथमें कमण्डलसे जल आ गया। तनिक रुक गये वे उसकी ओर देखकर।
'आपकी क्या अनुमति है ?' महर्षिने फिर यमराजकी ओर देखा।
'मैं सेवा एवं आज्ञा-पालनके लिये प्रस्तुत हूँ!' अन्ततः वे और कह भी क्या सकते थे।
'उनके नरकोंमें मैं अपने आराध्यके श्रीचरणोंकी सेवा बड़े आनन्दसे कर लूँगा!' उसने धीरे-धीरे कहा 'स्वामीके श्रीचरण वहाँ भी उसे सेवाके लिये मिल जायँगे- ऐसा उसे विश्वास है!' उसके मुखपर वह अविचल विश्वास प्रत्यक्ष प्रतिफलित हो रहा था।
'मैं असमर्थ हूँ! मुझपर दया हो।' घबड़ाकर यमराजने महर्षिके चरण पकड़े ! 'मेरी व्यवस्थाका सत्यानाश हो जायगा।' ऐसा विश्वासी नरकोंमें पहुँच जाय तो वह साकेत बनाये बिना छोड़ेगा उन्हें ?
'अपराध तो मेरा है प्रभु!' पता नहीं कहाँसे रामभद्र टपक पड़े। सम्भवतः सरयूतटपर कुछ सुनगुन लग गयी थी। भगाते हुए श्यामकर्णको राजद्वारपर छोड़कर दौड़ते हुए उन्होंने समस्त सभासदोंको चौंका दिया। 'प्रमादवश मैंने उपहासमें निषादराजके हाथमें धक्का दिया और रक्तके
बिन्दु उछल पड़े।' महर्षिके चरणोंमें वह दिव्य किरीट झुक गया। 'आयुष्मन् तुम !' महर्षिने खींचकर हृदयसे लगाया। उनकी सजल दृष्टि गुहकी ओर थी और सभासदोंने श्रद्धा एवं स्नेहभरे नेत्रोंसे देखा कि महाराज सिंहासनसे उठकर दोनों हाथ फैलाकर उसकी ओर बढ़ चुके हैं।
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(३)
'जीवका स्वभाव है मुक्ति चाहना।' आज साकेतकी अमराईमें सरयू-किनारे महाराजाधिराज सिंहासनासीन थे। दोनों सुमित्राकुमार
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चवर कर रहे थे और भरतलाल छत्र लिये थे। दाहिना चरण आंजनेयकी क्रोड़ीमें था और बायेंपर निषादराजने अधिकार कर लिया था। दृष्टि सबकी एक ही स्थानपर केन्द्रित थी।
'यह तो स्वाभाविक है।' निषादराज गम्भीर तो थे ही नहीं 'गैया पगहा तुड़ाना चाहती हैं और घोडोंकी चले तो वे सीधे जंगलमें चले जायें: पर पालतू हरिन नहीं भागता । पीछे-पीछे घूमा करता है।' उन्होंने अपने अनुभव सुनाये।
'अपवर्गके सिवा कोई गति नहीं उसकी।' आंजनेय कुछ कहना तो चाहते थे, किंतु प्रभुका रुख देखकर बोले नहीं। निषादपति चुप ही रहे। यह वेदान्त उनकी समझमें आया ही नहीं था। चुपचाप मुखकी ओर देखते रहे। हाथ धीरे-धीरे उन चरणोंको दबा रहे थे।
'तुम क्या सोच रहे हो ?' प्रभुने निषादराजसे पूछ लिया। 'क्या ?' वे अचकचाये। वे स्वयं नहीं जानते कि क्या सोच रहे थे। केवल श्रीमुख ही तो देख रहे थे। चुपचाप देखते रहे।
'तुम क्या सोचते हो ?' प्रभु हँसे उनका चकराना देखकर। 'तुम्हें मुक्ति चाहिये या नहीं ?' बहुत सीधी तरह पूछा गया।
'ओह!' अब वे प्रश्न समझ गये थे। 'मैं, मैं तो बँधा नहीं हूँ।' उन्होंने चारों ओर अपने शरीरको देखा कि कहीं हनुमान्जीने पूँछमें लपेट तो नहीं लिया है। सभी मुसकरा पड़े !
'अरे शरीर नहीं, जीव बन्धनमें रहता है!' प्रभुने समझाया। 'प्रत्येक जीव मायाके बन्धनमें है!' स्पष्टीकरण भी हो गया।
'हाँ प्रभु !' उन्होंने अब समझ लिया। 'जीव-जन्तु ही बन्धनमें रहते हैं। कभी-कभी मनुष्य भी बन्धनमें पड़ जाता है; पर वह कोई अपराध करनेपर राजाद्वारा या युद्धमें ही बन्दी बनाया जाता है। माता-पिता या साथी लोग बच्चोंको और ठग, डाकू या तस्कर भी मनुष्यों को बाँध देते हैं। उन्होंने अपनी पूरी जानकारी प्रकट कर दी।'
'बार-बार जन्मना और मरना, यह जीवका बन्धन है!' प्रभुने समझाया हँसते हुए। 'मेरा इसी बन्धनसे तात्पर्य है! जब जन्म-मरणन हो तो उसे मुक्त कहते हैं। तुम इस प्रकार मुक्त होना चाहते हो ?' प्रभुने फिर पूछा।
'मैं क्या चाहता हूँ, सो बताऊँ ?' उन्होंने उत्तरकी अपेक्षा नहीं की। 'इसी प्रकार सदा यह श्रीचरण मेरे हाथोंमें रहे और मैं उसे दबाता रहूँ।' उन्होंने उस बायें चरणको हृदयसे लगा लिया।
'शरीर तो नश्वर है, एक दिन मरना तो होगा ही!' प्रभुने टाल दिया माँगको।
'अच्छा ही है, बूढ़े-बूढ़े जीते ही रहें तो संसारमें खाँसी-खाँसी ही सुनायी पड़े !' उन्होंने कहा 'लोगोंको रहनेके लिये भी तो स्थान चाहिये!' मृत्युसे भला कहीं निषाद डरते हैं! वह तो उनका रात-दिनका खेल है।
'फिर सदा तुम चरण कैसे दबा सकते हो ?' प्रभुने समझा-इसे छका लेंगे।
'जैसे घरपर मन-ही-मन दबाते रहते हैं।' वह ऐसा-वैसा नहीं। 'जैसे सोनेपर प्रभु स्वप्नमें आ विराजते हैं। तब क्या शरीर रहता है?' उन्होंने सीधी बात कह दी।
'पर तुम मुझसे एक हो जाना क्यों पसन्द नहीं करते?' प्रभुने हँसकर पूछा।
'हे भगवान् !' निषादराजने दोनों कानोंपर हाथ रख लिये। 'सेवक तो उतारे वस्त्रोंका ही अधिकारी है!' एक हो जानेका उसने क्या अर्थ समझा, सो वह सामने बैठे उसके प्रभु ही जानें!
'बार-बार जन्मना और बार-बार मरना !' प्रभुने फिर समझाना चाहा 'बड़ा दुःख है! इससे छूटकर आत्मस्वरूपमें स्थित रहना ही परमपुरुषार्थ है!' यह माया लगनेवाली यहाँ नहीं।
'प्रभु क्षमा करें!' उन्होंने हाथ जोडकर सिर झुकाया। 'पडे-पडे टिटिहरी हो जायगा, पुरुषार्थ तो कोई क्या करेगा। एक स्थानपर चाहे वह आत्मानन्द हो या और कोई नगर, रहते-रहते शक्ति खो बैठेगा और ऊब भी जायगा, जो बेचारा इस चक्करमें पड़ेगा।' भाइयोंने मुख फिरा लिये। हँसी रुकती नहीं थी।
'मैं तुम्हें मुक्ति प्रदान करूँगा!' प्रभुने कहा 'बिना मुक्त हुए तुम उसे समझ सकोगे ही नहीं!' सचमुच वह मल्लाहराज मुक्ति और बन्धन क्या जाने ?
'प्रभु जो देंगे, प्रसाद सिर चढ़ा लूँगा!' अबकी बार मनकी बात कही गयी प्रभुके। 'जहाँ भेजेंगे जाऊँगा। सेवक कहीं भी रहे-जहाँ आज्ञा होगी, रहना ही होगा उसे; पर वह तो सेवक ही है। स्वामीके श्रीचरण वहाँ भी उसे सेवाके लिये मिल जायँगे- ऐसा उसे विश्वास है !' अपना पेटेण्ट निश्चय उन्हीं शब्दोंमें निषादराजने दुहरा दिया।
'प्रभु मुक्ति तो देनेको कह ही चुके।' आंजनेयसे रहा नहीं गया। भाई मुसकरा रहे थे। मायापति भोले भक्तके द्वारा ठगे गये थे। वे उसे अपवर्ग देने चले थे और वह वहाँ भी अभीसे श्रीचरण देखने लगा है!
'दे तो चुका ही हूँ!' प्रभुने निषादपतिकी ओर स्नेहसे देखते हुए कहा 'न सायुज्य या निर्वाण सही, सामीप्य!' वह कुछ समझ न सका। समझनेके बदले श्रीमुख चुपचाप देखते रहना क्या अधिक अच्छा नहीं ?
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