नवधा भक्ति [७]- 'त्वमेवेदं सर्वम्'

Navadha Bhakti [7]- 'Tvame Vedam Sarvam'

SPRITUALITY

आध्यात्मिक कहानियाँ, geeta press गोरखपुर

4/11/20251 min read

नवधा भक्ति [७]-

'त्वमेवेदं सर्वम्'

सातवें सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा ॥

(१)

दोपहरकी कौन कहे, तीन पहर हो गया था। सिर तपाकर सूर्य ढल चुके थे। बैल हाँफ रहे थे। पसीना कितना टपक रहा था, सो कालूरामको खबर नहीं। वे तो आज इस खेतके तीन चास (जोत) खतम करके ही दम लेंगे। उनके भयसे खेत ही सम्भवतः छोटा हो गया। इमलीकी छायामें बैल ढील दिये और आप एक जड़पर अपनी मैली अँगोछी सिरके नीचे रखकर लेट गये थे।

गाँवमें तो सब कल्लू कहते हैं; पर पूरा नाम है कालूराम। पिता-माताके कोई संतान जीती नहीं थी, इसीसे उन्होंने अपने अन्तिम पुत्रका ऐसा नामकरण किया था। न हब्शियोंकी भाँति काले, न काबुलियोंकी भाँति गोरे, पक्का रंग था। धूपने अब उसे कुछ अधिक श्याम बना दिया था।

मंगलियाकी अम्मा दोपहरमें ही छाछ रोटी दे गयी थी। पेटका कोई तकाजा था नहीं। अहीर होकर भी चिलमसे दोस्ती थी नहीं। बचपनमें बापकी आँख बचाकर एक बार हुक्केका कश खींचा था। सब गति हो गयी थी उस समय। अबोध होनेसे धुएँको पी गया था और चक्कर आ गया था। फिर हाथमें चिलम नहीं ली। ठण्डी हवाका झकोरा आया और आँखें लग गयीं।

उस समय वहाँ पीपलका वृक्ष था। इमली तो उसके गिरनेके वर्षों बाद उगी है। जहाँ कालूराम सोये थे, किसी समय इसी प्रकार तीसरे पहर वहाँ महर्षि तुष अपनी मण्डलीके साथ उतरे थे। वह जो दो कंकरीले टीले हैं, उनके बीचमें एक सुन्दर तालाब था। उसीमें डुबकी लगाकर बिना जटा एवं श्मश्रको सुखाये ही वे ठाकुर-पूजा करने बैठ गये थे पीपलके नीचे। यही ज्येष्ठ कृष्ण पंचमी थी और तीसरा पहर १९५ हो गया था।

बडे भले लगे वे महर्षि कालूरामको। उन्होंने झोलेमेंसे एक मूर्ति निकाली, एक छोटे-से पीले कपडेपर बिठाकर स्नान कराया। एक शिष्यने लाकर चन्दन-तुलसी दी और उन्होंने मूर्तिको सजा दिया। आरती हई घडी घण्टा और शंख बजे, सब शिष्य पंक्ति में गुरुजीके पीछे खडे होकर स्तुति करने लगे। अन्तमें सबने दण्डवत् प्रणाम किया पृथ्वीमें लेटकर।

कहींसे एक कुत्ता आ गया। उसने चुपकेसे एक ओरसे प्रवेश कर लिया और लगाया एक झोलेमें मुख। कालूरामसे देखा नहीं गया। एक पत्थर लेकर दौड़े मारने उसे। सहसा नींद खुल गयी। देखा-सचमुच एक कुत्ता भागा जा रहा है। बड़ा क्रोध आया; काला कुत्ता तो था ! ले पत्थर दौड़े। नींदका प्रभाव गया नहीं था। कहीं पैरने ठोकर खायी, गिर पड़े।

'इस पत्थरको निकालकर रहूँगा।' एक पत्थरका जरा-सा कोना निकला था। उसीकी ठोकर लगी थी। कुत्ता भाग गया था। अब पैना लेकर उसके पीछे पड़े थे। पैनेसे काम नहीं चलता देख, खेतमेंसे फावड़ा ले आये। मेंड़ फेंकना बाकी था और इसीलिये उसे ले आये थे।

एक मूर्ति निकली। गड्डेके पानीमें धोकर देखा 'यह तो वही सपनेवाली बाबाजीकी मूर्ति है।' बात ठीक थी। जब महर्षि तुष पूजा कर चुके और दण्डवत् करने लगे तो बाणासुरका मौसेरा भाई कृष्णजंघ आ धमका। उसने ऋषियोंको तो उदरस्थ कर लिया और झोली-झण्टा पड़ा रहा। शाल्व-युद्धमें प्रद्युम्नजीके हाथों मारा गया वह। काल पाकर मूर्ति पृथ्वीमें छिप गयी।

मूर्तिको मस्तकसे लगाकर अँगोछेमें बाँध लिया। हल कन्धेपर उठाकर उसने भँवरे और पीलेको हाँका। फावड़ा भी कन्धेपर था। आज मेड़ नहीं फेंकी जा सकेगी। कालूराम बहुत प्रसन्न है। वह पहले मूर्तिको घरमें बैठा लेगा पण्डितजीसे पूछकर, फिर दूसरा काम।

(२)

मंगलियाकी अम्मा दो-चार दिन तो झल्लायी, खीझी, पर शान्त हो गयी। उसने देख लिया कि उसके 'वे' कुछ सुनते नहीं। अवश्य ही अब उसकी पीठ-पूजा नहीं करते और घण्टेभर सिसकने, देवी-देवता मनानेका उसे अवसर नहीं देते।

भगतजी-कालूराम अब भगत हो गये थे, बिना पूजा किये हल उठाते नहीं। सबेरे तालाबमें डुबकी लगा आते हैं, अँधेरेमें ही। अपने ठाकुरजीको एक लोटा जल चढ़ाते हैं और कनेरके दो-चार पीले फूल। तुलसीके पत्ते डालकर गुड़की डली रख देते हैं भोगके लिये। बत्ती जलाकर आरती करते हैं और लेटकर प्रणाम। इसके बाद ही हल या कुदालको हाथ लगाते हैं। इतनेपर भी किसीसे उनका काम पिछड़ता नहीं। सबसे आगे खेत जोत डालते हैं और सबसे पहले मेंड़ फेंक लेते हैं।

मंगलियाकी अम्माको तब बहुत अखरता है, जब कोई राख लपेटे आ धमकता है। वह मन-ही-मन कुढ़कर रह जाती है! कोई-न-कोई साधु दूसरे-तीसरे पहुँचे ही रहते हैं और कभी-कभी पाँच-सातकी जमात आ धमकती है। वह कुनमुनाती रहती है और आटा, दाल, घी देती भी जाती है साधुओंको प्रसाद बनानेके लिये। करे भी क्या ? उस बार एक साधु चला गया बिना खाये। खेतसे आकर भगतजीने सुना और अन्न-जल छोड़ दिया। बड़ी कठिनाईसे सबके समझानेपर चौथे दिन माने। तबसे वह बहुत सचेत हो गयी है।

ये जटाधारी उसके भगतको पागल बनाकर छोड़ेंगे। पहले तो वे' ऐसे नहीं थे। चुपचाप पूजा करके चले जाते थे कामपर। जबसे भभूतिये आने लगे, तभीसे जाने क्या हो गया उनको। बड़ी देरतक गुम सुम रहने लगे। किसीके बुलानेपर बोलते नहीं थे। पूछनेपर उत्तर नहीं देते थे। मंगलियाकी अम्माका तभी माथा ठनका था। रो-रोकर उसने तभी घर सिरपर उठा लिया था।

'अब तो 'वे' हल चलाते चलाते कभी रोने लगते हैं और कभी हँसने लगते हैं जोर-जोरसे। लोगोंसे मिलना, दो बातें करना उन्होंने बिलकुल छोड़ दिया है। साधुओंके पास आकर तो ठीक हो जाते हैं। उनकी खूब चिलम भरते हैं, पैर दबाते हैं और बर्तन माँजते हैं। अकेलेमें ही उन्हें जाने क्या हो जाता है ? उसने ऐसा एक भी साधु नहीं छोड़ा, जिसके पैरोंके पास बैठकर आँचल फैलाकर अपने भगतकी दशा सुनाकर रोते हुए उन्हें ठीक करनेकी प्रार्थना न की हो। कोई भी उसकी सुनता नहीं। उसके मुखमें गाली आती है। ये सण्ड-मुसण्ड हँसते हैं और उसीको उलटे उपदेश देने लगते हैं।'

कालूराम खेतमें हल चला रहे थे। पता नहीं कौन-सी धुन सवार हो गयी। दोनों हाथ उठाकर नाचने लगे। हल गिर पड़ा, पैना अलग छूट गया। वह बुड्डा उछल रहा था। सहसा पृथ्वीमें लेट गया। दोनों बैलोंको उसने लेटकर प्रणाम किया। आज वह पूरा पागल हो गया। पेड़-पौधे, कंकड़-पत्थर, पशु-पक्षी सबको लेटकर प्रणाम करता है और नाचता है। 'मेरे रामजी आ गये।'

लोगोंने बड़ी कठिनाईसे पकड़कर उसे घर पहुँचाया। दण्डवत् करते-करते नाक, पेट, छाती और कुहनी छिल गयी थी। मंगलियाकी अम्माकी दशाका वर्णन करना व्यर्थ है। पतिको इस दशामें देखकर वह मूच्छित हो गयी थी। यह दशा तीन दिन रही और तबतक भगतजीको एक कोठरीमें रहना पड़ा। फिर वे गम्भीर हो गये और तब निकाले गये। इस बीचमें पता नहीं कितने झाड़-फूंकवाले आकर सिर हिलाकर हाथ कँपाकर वहाँसे जा चुके थे। अब दण्डवत् बन्द हो गयी थी और भगतजीने अपने काममें हाथ लगा लिया था। उनकी स्त्री कालीजी, महावीरजी आदिकी मनौतीकी पूजा-व्यवस्थामें लग गयी।

(३)

'आज प्रभु क्यों उदास हैं?' बड़े संकोचसे जनकजाने हाथ जोड़कर पूछा। साकेतमें कल्पवृक्षके नीचे मणिमण्डित स्वर्णके उस सुकोमल सिंहासनपर युगल-सरकार आसीन थे। मारुति श्रीचरणोंमें और भरतजी सम्मुख खड़े थे। दोनों सुमित्राकुमार चॅवर लिये थे। सभी प्रभुकी सदा प्रसन्न मुखमुद्रामें परिवर्तन देखकर चकित थे। संकोचवश कोई पूछ नहीं पाता था। नेत्र सबके श्रीमुखकी ओर लगे थे।

'आज यहाँ मन लगता नहीं! एक भक्तके दर्शन करना चाहता हूँ। आप चलेंगी?' प्रभुका मेघ गम्भीर स्वर गम्भीर हो गया।

'किसपर आपत्ति है? कौन आह्वान कर रहा है ? चलो नाथ!' वे दयामयी आकुल हो गयीं। झट उठ खड़ी हुईं।

'न किसीपर आपत्ति आयी है और न कोई पुकार ही रहा है!' प्रभु मुसकराये। 'वहाँ जाकर कोई पूछनेवाला भी मिले तो भाग्य ही समझो !' सबको चकित कर दिया प्रभुने।

'

फिर ?' जगज्जननीने पूछा।

'मेरा मन मानता नहीं। मुझे तो उस भक्तराजका दर्शन करना ही है!' प्रभु उठ खड़े हुए। देखा, सभी हाथ जोड़े सिर झुकाये खड़े हैं। सबकी इच्छा चलनेकी है।

'मैं ब्राह्मण बनूँ या जटा बढ़ाऊँ?' हनुमान्‌जीने पूछ ही लिया। वे जानते थे कि भक्तोंके यहाँ प्रायः प्रभुके पधारनेके यही दो पेटेन्ट वेश हैं।

'सो कुछ नहीं! ऐसे ही चलेंगे!' प्रभुने सबके लिये सहमति प्रकट कर दी।

योगमाया तो साथ ही थीं। न सारथीकी आवश्यकता हुई और न पुष्पककी, क्षणभरमें रामपुरमें कालूरामके खपरैलके मकानके सामने नीमके नीचे पाँचों मूर्तियाँ आ उपस्थित हुईं। अभी सूर्योदय हुआ ही था। कालूरामके घरपर एक बाबाजी आये थे। स्नान करके वे अपने ठाकुरजीकी पूजा करने बैठ गये। कालूराम उनके लिये तुलसी-पुष्प लेने गया था।

कालूराम पुष्प लेकर लौटा। दृष्टि गयी और पैर रुक गये। केवल एक क्षण रुका। मुख फेरकर घरकी ओर चल पड़ा। वह सौन्दर्यराशि उसे लुब्ध न कर सकी।

'कालूराम !' अब प्रभु प्रतीक्षा नहीं कर सके। 'हमें फूल-तुलसी न दोगे ? कम-से-कम बैठनेका आसन तो देते जाओ!' स्वरमें पूरा आग्रह था।

'फूल-तुलसी तो महात्माजीके लिये हैं। दालानमें खाट पड़ी है। वहाँ बैठना हो तो बैठो, नहीं तो बाहर निकाल लो!' कालूरामने मुख फेरा नहीं।

लक्ष्मणजीने सिर झुका लिया। शत्रुघ्नकुमारकी भृकुटि चढ़ गयी।

'एक तुच्छ अहीर प्रभुका अपमान कर रहा है। वे तो इतनी दया करके उसके यहाँ पधारे और वह सीधा मुख बात नहीं करता!' विवश थे। चलते समय आज्ञा हो गयी थी। 'कोई कुछ बोले नहीं और न रोष करे।' चुपचाप क्रोधको पी गये। भरतलाल शान्त थे और आंजनेय मुसकरा रहे थे। जगज्जननीको कुछ आश्चर्य हो रहा था।

'हम तो तुम्हें दर्शन देने आये हैं और तुम हमारी पूजा करना दूर रहा, सीधे मुख बात भी नहीं करते!' प्रभुने कृत्रिम रुखाईसे कहा।

कालूरामने मुख फेरा 'मैं तुम लोगोंको बुलाने तो गया नहीं था। कृपाकर आ गये हो तो खड़े रहो! न रहना हो तो चले जाओ ! तुम तो फिर मिल जाओगे। हर पेड़-पौधे, पशु-पक्षीमें तुम्हीं तो घुसे बैठे हो ? जाओगे कहाँ ? लेकिन वे महात्मा रुष्ट होकर चले गये तो फिर कहाँ मिलेंगे? इस समय मुझे उनकी सेवामें जाना है, जो तुम्हें अँगुलियोंपर नचाया करते हैं! वहाँसे अवसर पानेपर बचे-खुचे सामानसे तुम्हारी सेवा करूँगा। रहना हो तो तबतक खड़े रहो!' वह मुड़ा और बड़ी तेजीसे चला गया।

प्रभुने भाइयोंकी ओर देखा और मुसकराये। उनके श्रीचरण जिस प्रेम-रज्जुसे यहाँ बँधे हैं, उसे छुड़ाकर चले जाना उनकी शक्तिके बाहर है। अतः उन्होंने केवल इतना ही कहा, 'अब तो यहीं खड़े रहना ही पड़ेगा।'