नवधा भक्ति [८] द्वन्द्वातीत

Navadha Bhakti [8] Beyond duality

SPRITUALITY

आध्यात्मिक कहानियाँ, geeta press गोरखपुर

4/15/20251 min read

नवधा भक्ति [८]

द्वन्द्वातीत

आठवं जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखड़ परदोषा ॥

(१)

'वह मेरा नौकर था, पर कभी उसने मुझसे वेतनके सम्बन्धमें कुछ कहा नहीं। जो कुछ उसे मिल जाता, वही बहुत था। पहली तारीखको मैं ही उसे बुलाकर वेतन देता। एक बार परीक्षाके लिये मैंने नहीं बुलाया। पूरे महीने नहीं बुलाया। न आया माँगने वह। दूसरे महीनेमें दोनों महीनेका वेतन देना पड़ा।' साहब अपने एक नौकरकी आत्मकथा सुना रहे थे।

देहरादूनसे ऊपर रानीखेतके पास मिस्टर जेम्सका बँगला है। वहाँके झरनोंमें गन्धक बताया जाता है। उनके गरम जलसे पेटके समस्त रोग ठीक हो जाते हैं। सम्भवतः इसी लालचसे वे वहाँ रहने लगे हैं। मैं तो इसी उद्देश्यसे सालभरसे वहाँ हूँ। साहब बँगलेमें अकेले ही रहते हैं। मेमसाहब उनके हैं नहीं। एक माली, एक खानसामा और एक टामी (कुत्ता), बस यही उनका परिवार है।

यहाँ और कोई मिलने-मिलानेवाला न होनेसे मैं साहबके पास अवसर मिलनेपर जा बैठता हूँ। एक दिन एक पहाड़ीपर टहलते हुए हम दोनोंका परिचय हुआ और फिर हमारी घनिष्ठता हो गयी। उनमें औद्धत्य छू नहीं गया है। बड़े सरल हैं, मिलनसार हैं। घण्टों मेरे साथ बैठकर हिन्दी साहित्य या वैष्णव-धर्मपर चर्चा करते हैं। बड़ी शुद्ध हिन्दी बोलते हैं और उनका गम्भीर अध्ययन देखकर मुझे आश्चर्य होता है।

मैंने ही आज वैष्णव धर्मकी चर्चा आरम्भ की थी। उसी बीच में उन्होंने कहा 'वैष्णव'- 'सच्चा वैष्णव तो जीवनमें मैंने एक ही देखा है? आज समझता हूँ, पश्चात्ताप करता हूँ। लेकिन उस समय मोहान्ध हो गया था।' हमारी चर्चाका विषय बदल गया।

'अफ्रीकाके बोअर युद्धमें मैं एक कर्नल था। वहीं मानवकी नृशंसताका नंगा चित्र देखनेको मिला। घृणा हो गयी। भारतके सम्बन्धमें बहुत कुछ पढ़ रखा था। यहाँ आ गया और आगरेमें कर ली प्रोफेसरी। यहाँ आनेसे पहलेतक मैं वहीं था।' साहबने अपना संक्षिप्त परिचय दिया।

'मेरे बँगलेके सामने फूलोंका छोटा-सा बगीचा था। जैसा कि तुम यहाँ देख रहे हो। फूलोंसे सदा मुझे प्रेम रहा है। उन्हींके लिये एक माली रहता था। वह बुड्डा था और अकेला ही था। बँगलेके कोनेमें उसकी कोठरी थी। खुरपी, फावड़ा, फुहारा, बाल्टियाँ, बड़ी कैंची आदि बगीचेके कामका सामान उसीमें रहता था। बुड्ढेने एक कोना खाली कर लिया था। वहीं वह अपनी रोटियाँ बना लेता और चटाई डालकर सो भी जाता।' उस बुड्ढेडेके स्मरणसे साहबके नेत्र भर आये थे।

'एक कम्बल, फटी हुई दो धोतियाँ, दो अँगोछे और एक मिरजई-इतने ही कपड़े थे। एक तवा, एक लोटा, एक बटलोई और एक थाली-बर्तनोंके नामपर और कुछ नहीं था। एक चटाई उसकी

गृहस्थीमें और बढ़ गयी थी। बड़े सबेरे स्नान करके बँगलेके सामनेके मन्दिरमें दर्शन कर आता और फिर जुट जाता बगीचेके काममें। दिनमें एक ही बार दो बजेके लगभग रोटियाँ बनाता। उजाला रहनेतक उसकी खुरपी काम करती रहती और शाम होते ही लालटेन जलाकर फाटकपर बैठ जाता और वहींसे सामने मन्दिरकी रामायण सुनता। मेरे पास दरवान नहीं था, अतः मैंने उसे शामको कहीं न जाने के लिये कह दिया था।' साहब यह वाक्य कहते-कहते बहुत दुखी हो गये थे।

उन्होंने रूमालसे नेत्र पोंछ लिये और हमारी चर्चा उस दिन यहीं रुक गयी। मैं उन्हें और अधिक कष्ट देना नहीं चाहता था। उठकर चला आया।

(२)

'वेल ! तुम पौधोंको ठीक सींचता नहीं। हमारे पौधे सूख गये !' साहब अप्रसन्न थे आज ।

'सींचता तो हूँ हुजूर, परसों जो पत्थर पड़े, उन्हींसे...।' वह सरल सहज नम्रतासे कह रहा था।

'हम कुछ सुनने नहीं माँगता ! जुर्माना करेगा तुमको!' साहबने नोटबुक खोल ली और पेन उठाया 'चार रुपया जुर्माना !'

'जो हुजूरकी मर्जी !' वह बुड्डा सलाम करके चला गया। साहब स्तम्भित रह गये। इस झुर्री पड़े सफेद बालवाले मालीने उन्हें चकित कर दिया। 'एक रुपया जुर्मानेपर खानसामा दिनभर रोता है। हफ्तेभर उदास रहता है। महीनेभर माफी माँगता है। उसकी तनख्वाह पच्चीस है और यह बुड्डा आठ पाता है! न रोया, न प्रार्थना की और न दुखी हुआ ! चार रुपयेमें क्या खायेगा वह ? सामने मन्दिरमें जो वह हर महीने पूजा करता है, कैसे करेगा?' ऐसा नौकर साहबने देखा नहीं था।

'माली!' साहबने पुकारा।

'हुजूर!' लौट आया वह।

'हम तुमको माफ करता है! अच्छा काम करनेपर तुमको इनाम मिलेगा!' अपने-आप साहब द्रवित हुए।

'हुजूरकी मर्जी!' चला गया वह सलाम करके।

'न खुश हुआ और न कृतज्ञता प्रकट की! कैसा मनहूस आदमी है!' साहबको पश्चात्ताप हो रहा था बुड्डेको क्षमा देनेपर। उन्होंने उसे तंग करनेका पूरा निश्चय कर लिया।

जब मनुष्य क्रोध करता है तो अन्धा हो जाता है। उसकी सहज वृत्तियाँ अन्धकारमें पड़ जाती हैं। वह नीचताके गड्डेमें गिरता है और गिरता चला जाता है। साहब नीचतापर उतर आया था। उसने खानसामासे कहा 'चुपकेसे बुड्डेका कम्बल उठा लाओ!'

'माघकी रात्रि, परसों ओले पड़ चुके हैं। आज भी बदली रही है। बुड्डा शामको खूब चिल्लायेगा!' कोई दूसरी बात साहबके मनमें नहीं थी।

दस बजे रातको साहब चौंके। खानसामा पुकारनेपर आया, उसने रिपोर्ट दी 'माली न तो बड़बड़ाया और न उसने गालियाँ दीं!' केवल इतना ही कहा, 'किसी बेचारेकी ठण्डी रात सुखसे कटेगी! अच्छा हुआ!' अब वह सूखी घास बगीचेसे ले आया है, उसीका ढेर बनाकर उसमें पड़ा है!'

'कम्बल दे आओ! मेरा नाम मत लेना !' साहबने अभी दया अवश्य दिखलायी, पर पराजय नहीं स्वीकार की। इसी जिद्दके मारे तो वे उस वर्ष गर्मियोंकी छुट्टीमें नैनीताल नहीं गये। ज्येष्ठकी कड़ी दोपहरीमें बगीचेकी सघन छायामें बैठकर बुड्डेसे ठीक निर्जला एकादशीको पूरे दिन घास छिलवाया उन्होंने। वह एक बार असमर्थता बतलाता या छुट्टी चाहता तो प्रसन्न हो जाते; पर वह पूरा पत्थर है। चुपचाप काम करता गया।

खानसामाने शामको बुड्ढेसे कहा- 'साहब पूरा जल्लाद है। व्रतके दिन भी...।' साहब सुन रहे थे।

'छिः ! मालिककी निन्दा करते हो? काम नहीं लेंगे तो क्या मुख देखनेको रखा है! वैसे बड़े दयालु हैं।' साहब सुन नहीं सके। बँगलेमें आकर आरामकुर्सीपर धम्मसे बैठ गये।

'प्रभु मुझे क्षमा कर!' मिस्टर जेम्स बच्चोंकी तरह फूट-फूटकर रोने लगे। 'भाई गोविन्द ! मैं यहाँ प्रायश्चित्त करने आया हूँ। सुना है प्रभु दयालु हैं, माफ कर देंगे! नहीं-नहीं। वे केवल अपने अपराधीको क्षमा करते हैं! अपने भक्तोंको कष्ट देनेवालेको वे भी क्षमा नहीं करते! उफ दण्ड भी तो नहीं मिलता ! यह भीतरकी ज्वाला सही नहीं जाती!' सचमुच बहुत कठोर दण्ड मिला है उन्हें, जीवनभर भीतर-ही-भीतर जलते रहनेका।

'मुझसे पूछकर ही गया था वह! मालियोंकी पंचायत थी और उसका वह चौधरी था।' साहब कह रहे थे, 'मेरा अहंकार हारा नहीं था। मैंने खानसामाको समझाकर भेज दिया। इतनी नीचता में खुद नहीं कर सकता था। आधे घण्टेमें वह मेरे पास आ गया। खानसामाका अभियोग था कि मालीने उसके कोटकी जेबसे पैसे चुराये हैं। प्रमाण न मिलनेसे मैंने खानसामाको डाँटा।' साहबका स्वर गद्‌गद हो गया था।

भरी पंचायतमें खानसामाने उसे गन्दी गालियाँ दी थीं और थप्पड़ लगाया था चोर कहकर; लेकिन मेरे पूछनेपर उसने कहा, 'मुझे कोई शिकायत नहीं! हुकुम हो तो पंचायतका काम पूरा कर आऊँ !' सुना मालियोंमें बड़ी उत्तेजना थी। वे खानसामाकी खूब मरम्मत करना चाहते थे। बुड्ढेने उन्हें समझाकर शान्त किया 'बेचारेके पैसे खो गये ! मुझपर सन्देह न होता तो वह ऐसा क्यों करता? हानिसे दुखी है, भूल हो गयी!' मैं सुनकर ठक् रह गया और मैं सोच रहा था कि ईर्ष्या मनुष्यको कितना नीच बना सकती है।

'मैंने दूसरा माली रख लिया। बुड्डेको केवल निगरानीका काम दे दिया और वेतन दुगुना कर दिया। कोई खुशी नहीं दिखायी दी उसके चेहरेपर। दूसरे दिन वह ज्यों-का-त्यों काममें जुटा था और नया माली जो उसका असिस्टेण्ट रखा गया था, बैठा हुआ चिलम पी रहा था।

अन्ततः एक ही महीनेमें नये मालीको मुझे निकालना पड़ा। बुड्ढेने कभी उसकी शिकायत नहीं की। उसे न निकालनेकी प्रार्थना करने भी आया।

वह वही आठ रुपये लेनेको तैयार था; पर मैंने किसी तरह स्वीकार नहीं किया। बुड्डा अब प्रत्येक पूर्णिमाको सत्यनारायणकी कथा सुनने लगा था। मैं जानता था कि वेतनके बढ़े रुपये प्रसाद और दक्षिणामें दे आता है वह। मुझसे पूछकर पूर्णिमाको सामनेके मन्दिरमें कथाकी व्यवस्था करके सुनने चला जाता था!' साहबको बुड्डेपर श्रद्धा थी।

(४)

'उस दिन पता नहीं मुझे क्या हो गया था! मुझे कौन-सा शैतान दबाये बैठा था! मैंने उसे आज्ञा नहीं दी। तुम्हारी रामनवमी ! बुड्ढेको दो दिनसे रात्रिमें ज्वर आ रहा था। बगीचेका काम वह बराबर करता था। आजका काम उसने निबटा दिया था। पौधे सींच दिये थे और उखड़नेयोग्य क्यारियाँ गोड़ दी थीं। रामजन्मके समय मन्दिरमें जाना चाहता था वह। आधे घण्टेके लिये जायगा। आरती हो जानेपर लौट आयेगा !' साहबने सूनी दृष्टि ऊपर उठायी।

'सबेरे बिल्लीने दूध गिरा दिया था। चाय देरसे मिली थी। आजका अखबार आया नहीं था। पैरमें सीढ़ीसे उतरते समय बूट फिसलनेसे मोच आ गयी। झल्लाया हुआ था। कह दिया- 'फाटकसे बाहर नहीं जा सकते! चुपचाप काम करो!' उसे प्रार्थना करना नहीं आता। चुपचाप सिर झुकाये चला गया।' साहबने आँखें पोंछी।

बन्दूकका शब्द हुआ। मैं बँगलेसे बाहर आ गया! 'कहाँ फायर हुआ ?' पूछते ही मनमें आ गया कि मन्दिरमें जन्मके समय धड़ाका किया गया है। 'माली!' अपने सामने फाटकके सामने टूलपर उसका बैठना मुझे बुरा लगा। उत्तर न पाकर मैं झपटा। उसे ढकेलकर ठोकर लगाना चाहता था। हाथ लगाते ही मैं चौंककर दो कदम पीछे हट गया। धक्केसे बुड्डा टूलसे लुढ़क गया था। वह माली कहाँ था? वह तो उसका शरीरभर था। साहब चीखकर मूर्छित हो गये।

मैं क्या करूँ ? साहबको होश तो आया, पर वे पूरे सावधान नहीं हुए। बड़बड़ाते रहते हैं 'वह सुख-दुःखसे ऊपर था। हानि-लाभ उसे छू नहीं सकते थे। मानापमानके सिरपर उसने पैर दिया था। कोई दुर्गुणी भी होता है, कोई उसकी हानि भी करता है, यह वह सोचतक नहीं सकता था। वह सच्चा वैष्णव था।' पागलोंकी भाँति पहाड़ोंमें घूमते रहते हैं। एक वैष्णवको सतानेका उन्होंने यह प्रायश्चित्त किया। अब उन्हें पागल किसने किया ? मैं न पूछता और न इतना बड़ा धक्का लगता उन्हें। मैं कौन-सा प्रायश्चित्त करूँ? दयामय, क्षमा कर!

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