नवधा भक्ति [१]- श्रवण (१)

Navadha Bhakti [1]- Hearing (1)

SPRITUALITY

आध्यात्मिक कहानियाँ, geeta press गोरखपुर

3/1/20251 min read

नवधा भक्ति [१]-

श्रवण

(१)

जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ॥ भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे ॥

'तुम दोनों क्या कह रहे थे ?'

'कुछ भी तो नहीं! यों ही हँसी कर रहे थे।'

'तुम छिपा रहे हो!'

'हाँ, छिपा ही रहे हैं! हम एक संतकी चर्चा कर रहे थे!' अन्तमें हम दोनों खूब जोरसे हँस पड़े, यह सफेद झूठ बोलकर ।

'अच्छा, मत बताओ !' मुझे बड़ा खेद होता ये शब्द सुनकर । मुख फेर लेता। जानता था कि वे छोटे-छोटे नेत्र भर आये होंगे।

आरम्भमें जब मैं यहाँ रहने लगा था, ये शब्द मुझे बहुत चकित करते थे। बहुत दुःखी होता था इनसे। बहुत देरतक समझाता था उनको। धीरे-धीरे अभ्यस्त होता गया। फिर मैंने भी उपेक्षा प्रारम्भ की। दूसरा कोई उपाय था भी नहीं।

पता नहीं, क्यों यह बात उनकी समझमें ही नहीं आती कि हमारी चर्चा सदा सन्तों और भगवान्‌को लेकर ही नहीं होती। हम अभी ऐसे साधु नहीं। हँसी-मजाक, मित्रवर्ग, आसपास और काम-काजके बहुत-से दूसरे विषय भी हैं हमारी चर्चाके लिये। उनके घरमें या अन्यत्र कहीं भी दो क्षणके लिये जानेपर हमने कोई बात की और उन्होंने दूरसे हिलते होठ देखे, प्रश्न प्रारम्भ हो गये।

मेरा घर तो न होनेके बराबर है। लगभग तीन वर्षसे अपने इन्हीं मित्रके घर रहता हूँ। अब तो इसे ही मैंने घर समझ लिया है। वे मेरे सुहृद की माता हैं- बस। उनकी हुलिया न दूँगा। मैं उन्हें माताजी कहता हूँ। उनका ध्यान मेरे ही मनमें रहने दीजिये। उससे आपका कुछ बनना-बिगड़ना है नहीं। हम दोनों मित्र प्रायः साथ ही रहते, खाते-पीते और कहीं बाहर जाना हुआ तो साथ ही जाते हैं।

माताजी नहीं चाहतीं कि हम घरसे कहीं दूर जायें। हम जब स्नानादि करने लगते हैं, उसी समय झटपट वे भी स्नान कर लेती हैं। साथ ही भोजन कर लेती हैं। ऐसा न हो कि हम भगवच्चर्चा करने लगें और वे उपस्थित न हो सकें ! इसका उन्हें बड़ा भय रहता है। दिनभर ही नहीं, रात्रिके दस-ग्यारह बजेतक बाहर दरवाजेपर ही बैठी रहती हैं। रात्रिमें जब हम नींद लेने लगते हैं, तब वे कहीं उठकर जाती हैं।

उन्हें कोई किसी कामसे घरमें बुलाये या उनसे कुछ पूछे, यह बहुत अखरता है। जहाँतक हो सकता है, टाल-मटोल कर जाती हैं। विवश होकर कभी उठना पड़ता है तो उस समय उनकी भाव-भंगी देखनेयोग्य होती है। मानो उनका प्रत्येक रोम कहता है- 'कहाँकी विपत्ति आयी।'

मेरा एक खड़ाऊँ लेकर वे बैठ जाती हैं। यही उनका आसन है। निकट ही मिल जाता है। कोई बाहरका आदमी आता दिखायी पड़ा तो प्रश्न हो जाता है-'कौन आ रहा है?' अर्थात् 'मुझे बैठे रहना चाहिये, घर चले जाना चाहिये या दालानमें ही हो रहनेसे काम चल जायगा ? मित्रोंमेंसे कोई हुआ तो वे प्रसन्न हो जायँगी; क्योंकि तब सत्संगकी आशा हो जाती है। कोई ऐसे भी हैं जो दुनियाभरकी बातें करेंगे और कुछ मध्यमें 'भजन कैसे हो ?' भी पूछ लेंगे। माताजी ऐसोंको जानती हैं। दालानमेंसे वे सुनती रहेंगी कान लगाये। कुछ आते हैं इधर-उधरकी हाँकनेवाले। तब वे घर चली जायेंगी। उनके कान या नेत्र सावधान रहेंगे। उनके जाते ही वे आ जायेंगी। 'कहाँका घनचक्कर आ गया था!' कहना नहीं होगा कि ऐसे लोगोंका आना उन्हें तनिक भी पसन्द नहीं।

चुपचाप बैठी रहती हैं। उन्हें न कुछ पूछना रहता और न कहना। कुछ पूछना या कहना हो भी तो संकोचके कारण सप्ताह बीत जाते हैं उसे मनमें ही। हमलोग इधर-उधरकी बातें करते रहेंगे और वे सिर झुकाये बैठी रहेंगी। जैसे ही भगवच्चर्चा या किसी साधु-संतका नाम आया, बोलनेवालेके मुखपर उनके नेत्र जम जायेंगे। मानो वे कह रही हों-' अब तुम ठीक कर रहे हो। व्यर्थकी बातोंमें न पड़कर प्रभुके गुणगानमें ही क्यों नहीं लगे रहते ?'

गीता, भागवत - इतना तो नियमतः चलता है। कुछ और भी रहता ही है। माताजीको दिनभर यों ही नहीं बैठे रहना पड़ता। उनकी परितृप्ति कहाँ है ? ऐसा नैष्ठिक श्रोता कोई मेरे देखनेमें नहीं आया। उन्हें कुछ-न-कुछ सुनते ही रहना चाहिये, चाहे वह दो सौ बार सुनी बात हो। उनके नेत्र और कान यही कहते मिलेंगे 'कितनी सुन्दर कथा है!' उनमें वही प्यास, वही उत्सुकता मैंने सदा देखी है, जो किसी रामायणीसे एक गूढ़ चौपाईका अर्थ पूछनेके पश्चात् किसी ग्रामीणमें होती है। केवल वह भगवान् या उनके भक्तोंकी चर्चा भर होनी चाहिये। रामायणकी चौपाइयाँ वह किसीके मुखसे उतनी ही सावधानीसे सुनती हैं, जितनी सावधानीसे अपने पुत्रके मुखसे भागवतके श्लोकार्थ।

XXX

2

'माताजी कहाँ हैं?'

'वृन्दावन गयी हैं। उन्हें गये तो आज एक महीना हो गया।'

मैं चौंका नहीं। जानता हूँ कि अब घरपर उनका मन लगता नहीं। उन्हें कुछ सुननेको यहाँ नहीं मिलता। मैं आज पूरे एक वर्षपर घर आया हूँ और मेरे मित्र बीचमें चार दिनके लिये आ चुके हैं। हम दोनोंने एक वर्ष पूर्व साथ ही प्रस्थान किया था। भाग्यने पृथक् कर दिया, पर घर कोई लौटा नहीं। अब वहाँ स्थिर रहनेकी कोई सम्भावना नहीं।

माताजी क्या करें ? इस नन्हेसे गाँवमें सब अपने-अपने धन्धेमें लगे रहते हैं। उन्हें कौन रामायण सुनायेगा ? वे कुछ पढ़ तो लेती हैं; अब दिनभर रामायण, भक्तमाल और ऐसी ही दूसरी पुस्तकोंके पीछे पड़ी रहती हैं। पर दृष्टि दुर्बल हो गयी है। थकावट आ जाती है नेत्रोंमें। पढ़नेमें उतना आनन्द भी तो नहीं आता, जितना सुननेमें आता है।

गंगाकिनारे दो मीलपर एक साधु रहते हैं। उन्हें घरसे आटा-दाल प्रायः भेज दिया जाता है। इस वृद्धावस्थामें भी माताजी प्रातः उत्तनी दूर स्नान करने जाती हैं। उन्होंने अपना साथ बना लिया है। कुछ और भी स्त्रियाँ स्नान करने जाती हैं। वहाँ साधु रामायण सुनाते हैं। वृद्ध हैं, पढ़े-लिखे नहीं; फिर भी किसी प्रकार रामायण पढ़ लेते हैं। अयोध्या, मिथिला, चित्रकूटकी कथाएँ या साधुओंके चमत्कार खूब सुनाते हैं। वहाँ बैठनेको बहुत थोड़ा समय है। साथकी स्त्रियाँ रुक नहीं सकतीं और अकेले आना इधर लोकाचारके विरुद्ध है। क्या हानि ? थोड़ा समय तो मिलता है।

किसी-न-किसी वृद्धाको माताजी प्रस्तुत कर लेती हैं साथके लिये। काशी, प्रयाग, वृन्दावनमें अब उनके महीनेभरसे अधिक रहनेमें भी असुविधा नहीं। कहीं कोई सम्बन्धी हैं, कहीं मैं और कहीं मेरे मित्र (उनके पुत्र)। वे अब घर रहना ही नहीं चाहतीं। घरपर न रहनेसे कोई हानि होती है, यह उनके मनसे जाने कबकी निकल गयी है।

मैंने एक बार उन्हें वृन्दावनमें देखा। प्रातः पाँच बजे वे पहुँच जाती थीं कीर्तनमें। दिनमें कोई प्रोग्राम उनसे छूटता नहीं। कोई प्रोग्राम न चल रहा हो तो कहीं दो-चारकी टोली बैठी अवश्य कुछ चर्चा कर रही होगी। माताजी ऐसी ही किसी टोलीके पास पीछे एक ओर सिकुड़ी मिल जायेंगी। उन्हें पता है कि किन-किन महात्माओंके पास सत्संग चलता रहता है.

उनको अपने कार्य तो कुछ रहते ही नहीं। कब स्नानादिसे वे छुट्टी पा लेती हैं, कुछ पता नहीं। सबसे कम समय लगता है उन्हें। सुनना जो रहता है। सुनना-बराबर सुनना ।

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'आज घरमें लड़ाई हो गयी दीखती है!' माताजी उदास थीं और मैं जानता हूँ कि भाभीसे उनकी पटती नहीं। आज अवश्य कुछ हो गया होगा।

'घरमें तो नहीं, मनमें लड़ाई हो गयी है!' मैं यह भी जानता हूँ कि माताजी अब बात-बातपर झुंझलातीं नहीं। वे अपनी ही समालोचना अधिक करने लगी हैं।

'भाभीने कुछ कहा क्या?' मेरा सन्तोष नहीं हुआ था।

उन्होंने कुछ नहीं कहा। यदि कह भी दें तो मुझे सुन लेना चाहिये ! घरका सारा काम करती हैं, यदि झुंझला जायँ तो क्या मुझे नहीं चुप रहना चाहिये ? मैंने देखा कि बात तो कुछ है।

'बात क्या हुई ?'

'बात तो कुछ नहीं; पर मेरे सिर क्यों दुर्वासा सवार रहते हैं?' क्रोधका उन्होंने यह नाम रख लिया है।

धीरे-धीरे पता लगा कि वे रामायणमें 'क्रोध पाप कर मूल' पढ़कर चौंकी हैं। इतना सुनना, इतना पढ़ना और उसपर भी मनन ! मैं कम आश्चर्यमें नहीं था। वैसे माताजी पहले भी जब कभी कुछ बड़े संकोचसे पूछती थीं तो उनका प्रश्न इतना गम्भीर होता था कि कभी-कभी मैं कह पड़ता 'आप तो इन्हीं बातोंका स्वप्न भी देखती होंगी।'

उन्हें सुननेसे तृप्ति नहीं, सुनने या पढ़नेसे अवकाश नहीं; फिर भी उसे वे हृदयमें रखती जाती हैं। उसपर मनन भी कर लेती हैं। आश्चर्य करनेकी कोई बात है नहीं। ऐसा न होता तो उनका वह क्षण-क्षणपर रुष्ट होनेवाला स्वभाव इतना गम्भीर और शान्त न बन गया होता। वे इतनी उदार और अतिथि सत्कारकी पक्षपातिनी न हो गयी होतीं।

'तूने क्या खाया है?' गाँवमें प्रायः गरीबोंके घर हैं। मजदूरोंके लड़कोंको दोनों समय भोजन कहाँ ? माताजी पूछ लेती हैं प्रायः और उस लड़केको कुछ-न-कुछ मिल भी जाता है। यह क्या देहातमें उसके लिये, जिसने सदासे काम लेना ही सीखा हो, छोटा परिवर्तन है ?

उनमें कितने परिवर्तन हो गये, सम्भवतः उन्हें स्वयं पता नहीं है। यह सब हो गया प्रयासके बिना ही, मैं ऐसा नहीं मानता। इतना सुनना और फिर उसे सोचना क्या छोटा प्रयास है ?

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(३)

'यह ढोल कहाँ बज रहा है?' मैं इस बार डेढ़ वर्षपर लौटा था।

'घरमें कीर्तन हो रहा है।' पता लग गया कि माताजीने लगभग छः महीनेसे यह कीर्तन प्रारम्भ कराया है। अपने-अपने घर सबको भोजनादि कराके स्त्रियाँ यहाँ एकत्र हो जाती हैं नौ-दस बजे और दो-तीन घण्टे रात्रिमें झाँझ ढोल बजाकर वे कीर्तन करती हैं।

'कल तो अखण्ड कीर्तन है। प्रत्येक पूर्णिमाको अष्ट प्रहरका अखण्ड होता है!' मुझे आशा नहीं थी कि इस दस घरके ग्राममें केवल स्त्रियाँ अखण्ड कीर्तन भी चला सकती हैं। मजदूरोंकी स्त्रियोंको इतना अवकाश नहीं और ब्राह्मणोंके कुल चार-पाँच घर हैं। पता लगा कि यहाँ ड्यूटीका प्रश्न ही नहीं। सब बैठ जाती हैं और बारी-बारीसे अपने घरोंमें रोटी बनाकर घरके लोगोंको खिला भी आती हैं। जब प्रत्येक बीस घण्टे बैठे तो अखण्ड कीर्तनमें क्या बाधा ?

'घरपर रहना तो पड़ता ही है। तुम दोनों तो पुरुष हो, पर झाड़कर छू हो गये !' माताजीने कुछ दुःखित होकर कहा। 'मुझे तो एकाध महीने ही कहीं रहनेको मिल पाता है। यहाँ भगवान्‌का नाम सुननेको मिल जाय, इसलिये यह किया है। थोड़ी देर रामायण भी होती है।'

मुझे किसी संतका एक दोहा स्मरण आ रहा था-

सुनिबेको फल गुनब है, गुनिबे को फल ग्यान। ग्वान को फल हरिनाम है, कह खुति संत पुरान ॥

ज्ञानकी बात तो मैं नहीं जानता, पर उस ज्ञानका फल यहाँ अवश्य मैं देख रहा हूँ। फलके पश्चात् पेड़ पानेकी आवश्यकता रह भी नहीं जाती।

* आपको कोई विचित्र अनुभव हुए हैं?' मैंने सहज ही पूछ लिया।

'मैं प्रायः स्वप्न देखती हूँ कि बहुत-से महात्मा जुटे हैं। कोई एक बड़े तेजस्वी महात्मा, सम्भवतः बीचकी चौकीपर बड़ी सुन्दर माला पहने बैठे हैं और कुछ उपदेश कर रहे हैं। भक्तोंकी भीड़ लगी है।' माताजीको बहुधा वे उपदेश भी स्मरण रहते थे।

'तो आप स्वप्नमें भी सत्संग ही करती हैं।' मैं हँस पड़ा। 'शायद मरनेके पश्चात् भी भगवान्‌को आपके लिये सत्संगकी व्यवस्था करनी पड़े !' मैंने व्यंग्य ही किया था।

'वे तुम दोनोंकी भाँति खिसक नहीं जायेंगे!' माताजीके नेत्र भर गये।

'दिनभर आप उनके पास एक खड़ाऊँपर बैठी उनकी ओर ताकती

रहेंगी कि वे कुछ सुनाते ही रहें तो वे भी ऊबकर खिसक जायँगे !' माताजीको मैं दुःखित नहीं करना चाहता था, पर बात बेढंगी निकल गयी। वे खड़ाऊँपरसे नीचे उतर गयीं और मेरी ओर भरे नेत्रोंसे देखने लगीं।

खड़ाऊँ उन्होंने मेरे सामने नीचे रख दी खाटके।

'उनके पास बहुत-से महात्मा हैं। आपको कुछ सुनानेके लिये आपके अखण्ड कीर्तनकी भाँति वे उनकी ड्यूटी बाँध देंगे!' मेरे लिये वह दृष्टि असह्य हो रही थी। मैंने देखा कि मेरे चातुर्यका प्रभाव पड़ा नहीं।

'अच्छा, कभी आपने भगवान्‌को भी देखा है?' मैं किसी भी प्रकार उनका ध्यान दूसरी ओर करना चाहता था। यह युक्ति काम दे गयी। 'तुमसे क्या छिपाना है।' एक बार उन्होंने नेत्र झुकाये, दो क्षण गम्भीर रहीं। बड़ा संकोच लगता था जैसे उन्हें। अन्तमें अपने-आप ही उन्होंने कुछ निश्चय करके कहा-' उस दिन यहाँ सुमन्त्रका लौटना और महाराज दशरथका वैकुण्ठवास पढ़ा गया था। रोते-रोते ही सो गयी थी।' रोना तो उनके लिये साधारण बात है। नेत्र तो भरे ही रहते हैं।

'पता नहीं कब नींद खुल गयी। नेत्र खोले नहीं, पर अच्छी प्रकार जग गयी थी, यह स्मरण है।' माताजी एक ही नींदमें बारहसे पाँच बजा देती हैं। बारहसे पहले सोतीं नहीं। कीर्तन जो होता रहता है। पाँच बजे उठ बैठती हैं। हो सकता है, उस दिन जल्दी सो गयी हों।

'ऐसा लगा कि कोई गोदमें सो रहा है। हाथोंसे टटोला। चिकना, सुकुमार-कोई डेढ़-दो वर्षका बालक-जैसा। नेत्र खोलनेकी याद नहीं रही। खूब टटोलकर देखा। कैसा स्पर्श था ? क्या कहूँ! हृदयसे लगा लिया और फिर नींद आ गयी।' माताजीके नेत्रोंसे झड़ी लग गयी।

'अच्छा, आप सावधानीसे सोयें! वे माताकी गोद छोड़ और कहीं न सोते होंगे!' मेरे नेत्र सूखे नहीं थे।

'ऐसे भाग्य कहाँ?' वे हिचकी ले रही थीं।

'आप मानें या न मानें; पर इस गोदको छोड़कर उन्हें कहीं भी अच्छी नींद आती न होगी।' माताजी तो यह माननेको तैयार नहीं थीं। आपकी क्या सम्मति है? क्या मैंने झूठ कहा था ?