नवधा भक्ति [४]- पाद-सेवन

Navadha Bhakti [4]- PADSEWAN

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3/13/20251 min read

नवधा भक्ति [४]-

पाद-सेवन

कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदय नहिं दूजा ॥ चरन राम तीरथ चलि जाहीं । राम बसह तिन्ह के मन माहीं ॥

गुणका परिचय तो साथ रहनेसे, अवसर मिलनेसे होता है। मानसनेत्रोंको प्रसन्न होनेमें समय लगता है। ये चर्मचक्षु तो चर्म ही देखते हैं। बाह्य ही पहले आकर्षित करता है। ब्रह्माने उसे बड़ी जल्दीमें बनाया होगा। सम्भवतः किसी दूसरे काममें लगे होंगे और उसे झटपट बिना देखे गढ़ दिया होगा। आँखें छोटी-छोटी भीतर घुसी, नाक कुछ चपटी, लम्बा मुख और बड़ा-सा सिर। हाथ-पैर प्रभृति कोई भी आकर्षक नहीं कहा जा सकता। इस ढाँचेपर कोई अच्छा रंग पोत देते तो भी कुशल थी। रंग पोतना ही भूल गये। फलतः वह सब रंगोंके अभावकी द्योतक कृष्णांगी थी।

एक सौभाग्य मिला था उसे। बड़े घरकी लड़की थी। उमाकान्तजीकी अपार सम्पत्तिकी स्वामिनी एकमात्र उनकी कन्या गौरी ही थी।

लड़कीका नामकरण शायद माता-पिताने उसके स्वरूपकी भावना दबा देनेके लिये किया था। सम्पत्तिके कारण वह नवीनचन्द्र बी०ए०की परिणीता हो गयी। न तो उसका फोटो मँगाया गया और न उसे कोई देखने ही गया। पिताकी ओरसे प्रस्ताव हुआ और पतिकुलने स्वीकार कर लिया। गाजे-बाजे, धूम-धाम और वेद-ध्वनिके बीच उसकी गाँठ जुड़ गयी।

ससुराल आते ही उसे निराशा और दुःख होना था। हुआ कुछ नहीं उसे। जो भी मुख देखने आयीं, उन्होंने मुख बना लिया। किसी-किसीने कुछ कह भी दिया। सासके उपहार छोटे हो गये। इन सबकी वह पुरानी अभ्यस्त है। बचपनमें मुहल्लेके छोटे बच्चे उसे 'काली कुत्ती राम राम !' किया करते थे। तब वह खीझती थी। अबतक सहेलियाँ उसे गौरी कहते ही मुसकरा पड़ती हैं। वह अब अभ्यस्त हो गयी है। यह सब अब उसे बुरा नहीं लगता। यहाँका व्यवहार भी उसके हृदयको छू नहीं सका।

उसकी माता एक प्रवीण माता हैं। उन्होंने लड़कीको समझाकर इस अपमानका रहस्य बता दिया है। वह जानती है कि चार दिनमें ये सब जो आज मुँह बना रही हैं, उसका मुँह देखा करेंगी। उसके गाँवमें यही हुआ और कोई कारण नहीं कि यहाँ भी न हो। उसे घरके काममें हाथ लगानेका अवसरभर मिलना चाहिये। जब वह सुई और रेशम लेकर बैठेगी, ये सब उसके हाथ जोड़ेंगी 'यह फूल काढ़ना हमें भी सिखा दो!' बीमारीमें उन्हें सेवाके लिये भी तो एक दक्ष व्यक्ति चाहिये। उसकी माताने अपनी लाड़लीके काले शरीरके अन्दर वह उज्ज्वलता भर दी है कि परिचय होनेके पश्चात् कोई उसका असम्मान नहीं कर सकता। उसके आगे सिर झुकाना ही पड़ता है।

'यह तो होना ही था!' उसने अपनेको स्वतः आश्वस्त कर लिया। 'जब परिचयमें आ जायेंगे, तब सब ठीक हो जायगा !' वह पहलेसे इसके लिये प्रस्तुत थी। कोई दुःख नहीं हुआ उसे। चुपचाप लेट गयी और पता नहीं कब कैसे रात्रि बीत गयी। जब उसने नेत्र खोले, पूर्वमें सूर्यभगवान् आनेकी सूचना दे रहे थे। बन्द किवाड़ोंमेंसे भी प्रकाश भीतर आ रहा था और लैम्प फीका जान पड़ने लगा था। वह हड़बड़ाकर उठ बैठी।

पता नहीं, कितनी आशा, कितनी उमंगें लिये नवीन उसके कमरेमें कल आया था। आवरण ही आकर्षक होता है। उसका लाया श्रृंगार-दान अब भी मेजपर पड़ा है। उसमें क्या-क्या है? वह अबतक देख नहीं सकी है। उसने तो पहले ही अपना मार्ग निश्चित कर लिया था। उपहारकी उसे आवश्यकता नहीं थी। अपने आराध्य चरणोंको उसने

अवगुण्ठनके अन्दरसे देखा, खूब भली प्रकार देखा और फिर उनपर घस्तक रख दिया। तबतक भी वह सिर झुकाये उन चरणोंको ही देख रही थी, जब उन्होंने दोनों हाथोंसे उठाकर उसे पलंगपर अपने पास बैठा लिया और धीरेसे उसका अवगुण्ठन उठा दिया। तब भी वह चरणोंको ही देख रही थी। जब वे चौंककर पीछे सरक गये, जैसे कोई अचानक सर्प देखकर चौंके। और तब भी वह चरणोंको ही देख रही थी, जब वे उठे और पीठ फेरकर द्वार खोलकर बाहर चले गये।

उसने उठकर द्वार बन्द कर लिया आधे घण्टे बाद। तबतक वह ध्यानस्थ रही। उसने आगे-पीछेसे चरणोंको भली प्रकार देख लिया था; क्योंकि अपने खटपट करनेवाले बूट वे सम्भवतः छोड़ आये थे। केवल एक चप्पल था पैरोंमें। अच्छी प्रकार उसने हृदयमें उन चरणोंको स्थापित कर लिया। प्रातः उसपर जो व्यंग्य-वर्षा हुई, उसने उसे कोई पीड़ा नहीं दी। नित्यकर्मसे निवृत्त होते ही उसने अपना कमरा बन्द कर लिया भीतरसे। वह तब खुला, जब पेंसिलने कागजपर चरण अच्छी प्रकार अंकित कर लिये।

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(२)

'बहू, तुम्हारे पिताका यह तीसरा बुलावा है। क्या लिख दिया जाय उन्हें ?' सासने अब उसकी महत्ता स्वीकार कर ली है। वे उसे भेजना चाहतीं नहीं, पर अपने नवीनके व्यवहारसे वे दुखी हैं। वह जाना चाहे तो जी बहला आये। यहाँ उसका मन कैसे लगेगा।

'मैं पिताजीको आनेके लिये पत्र लिख देती हूँ।' उसने उत्तर दिया।

घरके कामोंसे सबको छुट्टी हो गयी है। वह अकेली ही नौकरोंको सँभाल लेती है। नौकर भी उससे प्रसन्न हैं। किसीको गणेश और किसीको हनुमान्जीकी तस्वीरें दे दी हैं उसने। सासको तो उसके हाथों स्नान कराये जानेपर ही सुख मिलता है। उनके पूजनकी सामग्री भी वही सजाती है। उसने बड़ा सुन्दर चित्र शंकरजीका बना दिया है उनके लिये। घरके सभी चद्दरों, तकियों और मेजपोशोंपर उसके हाथकी छाप है। इतनेपर भी रात्रिमें वह तबतक सासके पैर दाबनेका अवकाश पा जाती है, जबतक उन्हें निद्रा न आ जाय।

उसकी सहेलियाँ यहाँ भी उसे घेरे रहती हैं। किसीको चित्र सीखना है और किसीको बेल-बूटे काढ़ने। कोई चोटी गूँथनेका वह अद्भुत ढंग जानना चाहती है और कोई इसराज बजाना। निराश वह किसीको करती नहीं। बड़ी-बूढ़ी स्त्रियाँ अब उसकी प्रशंसा करते नहीं थकतीं। उनका सिर दुखे तो 'बाम' लेकर वही तो पहुँचती है। लल्लूको खाँसी आनेपर गोलियाँ उसीसे लेनी पड़ती हैं। 'वह लक्ष्मी है-लक्ष्मी !'

सबकी खटपट और आदर-स्वागत करके भी वह घरके कामको समय पा जाती है और अपने निश्चित समयपर स्नानके पश्चात् कमरा बन्द करके उन पेंसिलसे बने चरणोंपर फूल चढ़ाकर कुछ करती रहती है आँखें बन्द करके मन-ही-मन। उसने पहले उनके चरणोंपर ही एक कोनेमें खड़े होकर दो फूल चढ़ा दिये थे। 'वे' घरमें भोजन करने आये थे। एक दिन कुछ न बोले। दूसरे दिन बिगड़ पड़े 'मुझे यह सब ढोंग पसन्द नहीं!' तबसे वह इन चित्रोंपर ही फूल चढ़ाती है।

सब प्रसन्न हुए, सन्तुष्ट हुए, पर देवता ? वह जानती है कि देवताको सन्तुष्ट करनेके लिये साधना चाहिये। अभी उसने इतनी साधना की नहीं है। समय आयेगा तब उसकी साधना पूर्ण हो जायगी और तब देवता भी....।

नवीन उसके प्रति रूखा है. वह उससे अलग-अलग रहना चाहता है। साथ ही डरता भी है कि कहीं वह पिताके घर रहने लगी तो सम्पत्ति हाथसे चली जायगी। फिर भी हृदय उस कुरूपको फिर देखना नहीं चाहता। इसीसे वह आजकल पढाईमें जुट गया है। एम०ए० करेगा। दिनभर यूनिवर्सिटीमें और रात्रिको पढ़ाईके कमरे में। ग्यारह बजेतक पुस्तकोंमें जुटा रहता है और वहीं सो रहता है। वैसे उसके कमरेके चित्र, तकियेके पुष्प, चद्दरके ऊपर बने पक्षी और मेजपोशपरका कमल किसीके करोंको चूम लेनेको उत्सुक करते हैं। नेत्रोंने जो देखा है-मन भड़क उठता है।

जानता है कि माँ उसे बहुत मानती हैं। यह भी जानता है कि वह जो नवीनसे छिपी रहती है, घरमें बूटकी ध्वनि पहुँचते ही कहीं दुबक जाती है, वह इधरके कष्टके ध्यानसे। 'कहीं उन्हें बुरा न लगे' यह सोचकर ही। दूसरी बार फिर उसे देखनेका अवसर नहीं आया। वह अवसर नहीं आने देना चाहता तो कैसे आता ? फिर भी उसे पिताके यहाँ भेजना पसन्द नहीं। इसीसे इस प्रकारका प्रश्न आनेपर वह माँपर छोड़ देता है।

उसके पिता आये। यहाँ न तो उन्हें भोजन करना था और न जल पीना। दामादके व्यवहारका पता नहीं कैसे उन्हें पता लग गया था। यह उन्होंने बातों-बातोंमें संकेतसे कह दिया। लड़कीसे मिलकर अकेले ही लौट गये थे। आये तो लिवाकर संग जानेके लिये। बड़ी देरतक पिता-पुत्री पता नहीं क्या-क्या बातें करते रहे। रूमालसे आँखें पोंछते वे वहाँसे निकले और सीधे मोटरमें चले गये।

'जहाँ उनके चरण पड़ते हैं, वह मेरा तीर्थ है। उसे छोड़कर मैं कहाँ जा सकती हूँ!' सासके पूछनेपर उसने छोटा-सा उत्तर दिया-पिताजी प्रसन्न ही होकर लौटे हैं।' सासने उसे हृदयसे लगा लिया। उसे अपने नवीनपर क्रोध आ रहा था। 'इस लक्ष्मीको वह कब पहचानेगा ?' उनके नेत्र भी सूखे नहीं थे।

'रोओ मत माँ।' उसने अंचलसे अश्नु पोंछ दिये सासके। 'मैं दुखी तो हूँ नहीं। दिनमें कम-से-कम दो बार तो अवश्य ही उनके चरणोंक दर्शन हो जाते हैं, मुझे और क्या चाहिये ? मैं तो उन्हें प्रणाम करके ही कृतार्थ हो जाती हूँ।' सचमुच उसके स्वरोंमें हर्ष ही था। उनमें कम्प या करुणाका नाम नहीं था। वृद्धा अपलक नयनोंसे उसके उस कुरूप मुखको देख रही थी। 'कितना सौन्दर्य है इसमें ! नवीन क्यों नहीं इसे देख पाता।' वह मन-ही-मन सोच रही थी। X X

(३)

'कल वे आ रहे हैं?' उसने अपने-आप ही कहा और कमरा बन्द कर लिया। जबसे नवीन विलायत गया है, उसपर विशेष कृपा हुई है। दूसरे महीनेसे सप्ताहमें एक पत्र अवश्य आता है माँके पास। माँका तो नामभर होता है। पत्र तो उसीके लिये लिखा जाता है। इधर तो रोज पत्र आ जाता है एक महीनेसे।

'कल शाम चार बजे तुम्हारे द्वारपर यह जन उपस्थित मिलेगा !' कितने विचित्र हैं। किस जहाजसे कहाँ उतरेंगे, सो कुछ नहीं। हवाई जहाजसे आते हों तो भी हवाई स्टेशन पहुँचनेका समय देना था। कोई कहीं लेने नहीं जा सकेगा। नवीनने अचानक घर पहुँचकर सबको-विशेषतः उसे चौंका देनेके विचारसे किसीको सूचना नहीं दी थी कि वह हवाई जहाजसे आ रहा है।

जबसे उसके 'वे' विलायत गये हैं, कमरेके बन्द रहनेका समय बढ़ता ही गया है। पहले चित्रित चरण केवल पुष्प और प्रणाम पाते थे, धीरे-धीरे धूप, दीप और नैवेद्य भी उन्हें प्राप्त हो गये। अब तो वे एक सुन्दर सिंहासनपर रेशमके बेल-बूटेदार आसनपर आसीन हैं। पूजाके सभी उपकरण उन्हें प्राप्त हो चुके हैं।

सखी-सहेलियोंकी संख्या घटने लगी। उन्हें अब कई बार चक्कर लगानेपर कहीं एकाध बातें सीखनेको मिल पाती हैं। धीरे-धीरे जब उसे समयाभाव हो गया तो सहेलियोंने आना भी बन्द कर दिया। आस-पासकी वृद्धाएँ उसे अभिमानिनी कहने लगीं। अब लल्लूके बीमार होनेके समाचारपर भी वह द्वार नहीं खोलती। केवल सासको उसकी चिन्ता है। वे घरके कामको न देखने या अपनी सेवा न करनेकी उलाहना नहीं देतीं। उन्हें यही शिकायत है कि 'बहू क्यों तेल नहीं लगाती, गहने नहीं पहनती, और सब न सही भरपेट खाती क्यों नहीं ? वह घुली क्यों जा रही है?' दिनभर पूजा और रात्रिभर पूजा उसे पसन्द नहीं।

सबेरे स्नान तो कर लेती है और कमरा बन्द हो जाता है। पहले नौकरोंके पुकारनेपर, किसी कामके होनेपर उठ आती थी। फिर केवल दोनों समय भोजनके लिये आने लगी और फिर शामका भोजन बन्द हो गया। भोजनके लिये भी नौकरानी न पुकारे तो कमरा न खुले। इधर एक महीनेसे तो सास जब स्वयं जाकर कई बार पुकारती है, तो द्वार खुलता है। वह भी इसलिये कि एक दिन द्वार नहीं खुला तो वे वृद्धा भी भूखी ही रह गयीं। अतः अब 'बेटी! मैं भी अब पड़ रहती हूँ!' कहनेपर द्वार खुल जाता है। दो-चार ग्रास खा ही लेती है और फिर कमरा बन्द।

'पृथ्वी खोदकर एक सुन्दर-श्याम जटिल तरुणने कुशासन बिछा लिया है। उसपर न तो मृगचर्म है और न वल्कल। घुटनोंके बल बैठा है वह हाथ जोड़े। कमरमें वल्कल है और कन्धेपर केवल यज्ञोपवीत ।

अत्यन्त दुर्बल है वह। नेत्रोंसे दो धाराएँ बह रही हैं। हाथ जोड़े वह कुछ जप रहा है। ओष्ठ हिल रहे हैं। सम्मुख एक मणिमण्डित स्वर्णसिंहासन है। रत्नजटित छत्रके नीचे और बहुमूल्य आस्तरणके ऊपर उस सिंहासनपर चन्दनकी दो पादुका हैं। पुष्पोंसे आच्छादित होनेके कारण कह नहीं सकते कि उनपर अँगुलियोंके चिह्न घिसकर बने हैं या नहीं। दोनों ओर धूपदानी सुगन्धित बादल निकाल रही हैं और रत्न-पुटिकाओंमें दीपक जल रहे हैं।' पता नहीं आज क्यों वह यह सब देख रही थी।

'तपस्वीने सिर झुकाया। यह क्या? पादुकाओंपर दो अरुण श्यामल चरण आ विराजे। ठीक उसी तपस्वीकी प्रतिमूर्ति मुसकराती खड़ी थी। वह सौन्दर्यघन मूर्ति प्रसन्न और कुछ पुष्ट थी।' उसने ऊपरतक देखकर चरणोंपर दृष्टि डाली। 'लाल-लाल फूल-से कोमल और नखोंके अपार प्रकाशमें अबीर बरसाते तलवे !' उसने भी मस्तक झुकाना चाहा।

'हैं, ये तो उसके परिचित वे आराध्य चरण हैं!' वह चौंकी। चरण बढ़ रहे थे और उनमें अपार विराट् मूर्त होता जा रहा था। पृथ्वी-पहाड़, नदी-समुद्र, मानव-पशु, नभ-नक्षत्र, असुर-देवता, पता नहीं-क्या-क्या उनमें वह देख रही थी। कुछ ठिकाना था उस अद्भुत अनन्त दृश्यका ?

घबराकर नेत्र खोल दिये। 'वही परिचित आराध्य चरण तो वे हैं!' सामनेसे तनिक हटकर चार-पाँच पद दूर खड़े नवीनचन्द्रके चरणोंको उसने देख लिया था। 'बड़े छली हो तुम !' वह उधर झपटी। आज उसकी साधना पूर्ण हो गयी सम्भवतः । देवताके प्रत्यक्ष चरण, नहीं तो, कैसे पा सकती ?

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(४)

उसने पत्नीकी कलाको इतना नहीं समझा था। आदर तो करता था. मुग्ध था पर इतना महत्त्व नहीं देता था। जहाजमें ही उसको पता लगा। वह आयरिश युवक, जिससे तीन दिनमें ही उसने मित्रता कर ली थी, इसके केबिनमें आकर चौंक गया। तकिये और चद्दरकी कारीगरी उसने इतनी सुन्दर नहीं देखी थी। फिर तो उसका केबिन प्रदर्शनी बन गया और वह जहाजमें एक प्रधान पुरुष हो गया। दुःख था-वह 'उसके' चित्रोंका एक अलबम नहीं साथ लाया।'

पता नहीं- कैसे यूरोपमें उससे पहले ही उसके तकिये और चद्दरका परिचय पहुँच गया। जहाजपर कइयोंने उनके फोटो लिये थे। संकोचके कारण वह उनपर अंकित 'गौरी' का परिचय नहीं देना चाहता था। बन्दरगाहोंपर संवाददाताओंने उससे अनेक प्रश्न किये और विवशतः उसे ट्रंकसे सब चद्दरों और लाये हुए तीनों चित्रोंका कई बार फोटो देना पड़ा। एक फ्रेंचने लौटनेतक उसका पीछा किया और अन्तमें एक चद्दर और तकियेकी एक खोली उसके हाथ उसे पाँच सौ पाउंडमें बेचनी ही पड़ी। यूरोपियन अपनी धुनमें पैसेका मूल्य ही नहीं समझते !

इन कलापूर्ण चित्रोंने उसे बहुत प्रसिद्ध कर दिया। वह केवल छात्र नहीं रह गया। उसे सब प्रकारकी सुविधाएँ सरल हो गयीं। पार्टियोंकी भरमार हो गयी उसके लिये। इस सम्मानकी वृद्धिके साथ-साथ पत्नीका सम्मान हृदयमें बढ़ा और अपनी कठोरतापर वह कई बार बच्चोंकी तरह रोया है अपने कमरेमें रात्रिको तकियेमें मुख छिपाकर। इस स्मृतिने उसे बहकने नहीं दिया। यों भी वह कठोर संयमी था; पर लालायित सौन्दर्य किसे लुब्ध नहीं करता। उसके लिये भीड़ थी। ऐसे प्रत्येक अवसरपर उसे छोटे-छोटे दो भरे नेत्र अपनी ओर देखते जान पड़ते। एक चिपटी नाकका करुणमुख साकार हो जाता और तब उसे रोनेकी इच्छा होती। किसी प्रकार पिण्ड छुड़ाकर भागता।

जहाजपरसे उसने कोई पत्र घर लिखा ही नहीं। लन्दन आकर भी कुछ दिन मौन रहा। 'क्या लिखे ?' समझमें नहीं आता था। घरपर उसने इतनी कठोरता दिखायी थी कि अब पत्र लिखनेका साहस नहीं होता था। केवल माँको लिखे और उसे कुछ न लिखे, यह तो और भी कठोरता होगी। अन्तमें उसने पत्र 'माँ' को लिखा। अपनी की गयी बर्बरताकी क्षमा माँगी। 'बहुत रूखा और कठोर व्यवहार करनेका उसे बहुत दुःख है।' माँने समझ लिया था कि यह सब किसके लिये है। क्योंकि उत्तरमें उसीका पत्र आ गया था।

'उस दिनको क्या वह भूल सकेगा ? पैदल जा रहा था। सड़क पार करनी थी। बड़ी तेजीसे निकला। इस उपनगरमें भी मोटरोंसे बचकर निकल जाना सरल नहीं है। किसी फलका छिलका था-पैर पड़ गया। फिसला और ....। कचूमर निकल गया होता। केवल एक इंच दूर अगला पहिया खड़ा था। मोटरोंकी पंक्ति रुक गयी थी। उसने उठकर ईश्वरको धन्यवाद देनेके बदले कुछ और ही सोचा और सिर झुका लिया। दो बूँदें सड़कके चिकने सीमेण्टपर गिर पड़ीं। एक काला हाथ, स्वर्णकंकणसे हीन, पर दो चूड़ियोंसे चमकता बढ़ा था और मोटर रुक गयी थी। उसने वह हाथ कभी देखा है, जो अभी अदृश्य हो गया।

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'मैं उसे पुकारते-पुकारते थक गयी हूँ!' उसने मातासे सुना 'कल प्रातःसे भीतर बन्द है और कोई उपाय दीखता नहीं! तुम्हारे आनेकी सूचना उसे मिल गयी थी और सबेरेसे मैंने और नौकरोंने उसे बहुत पुकारा है!' बुढ़िया रो रही थी।

'दरवाजा तोड़ना होगा!' उसके मस्तकपर माताके हाथ का तिलक लगा था। गलेमें फूलोंकी माला पडी थी। अभी सूट उतारे भी नहीं थे उसने। उसने ठीक द्वारपर आकर टैक्सी रोकी और दौडकर माताके चरणोंसे लिपट गया। माँने गले लगाया और झटपट बहूको समाचार भेजा। इतनेपर भी द्वार नहीं खुला तो वह पुत्रके साथ स्वयं आयी है। 'हाय, बहूको क्या हो गया?' इस प्रसन्नतामें भी दैवने उसे दुःख दिया।

नवीन चकराया। 'क्या हो गया है उसे ?' उसे जो कुछ माँने बताया, उसे वह ठीक समझ नहीं सका। बढ़ई बुलाया गया और किंवाड़ उसने जरा-सा चौखटे छीलकर, कब्जे निकालकर हटा दिये। सबने देखा-कमरेमें गौरी शान्त बैठी है। एक स्निग्ध प्रकाश है और सामने सिंहासनपर एक चित्र, जिसमें केवल दो चरण बने हैं, फूलोंसे पूजित। माँके पुकारनेका कोई प्रभाव नहीं हुआ। नवीन आगे बढ़ आया।

चौंककर वह दो कदम पीछे हट गया सम्मुख आते ही। एक दिन और वह हटा था इसी प्रकार कुरूप मुखको देखकर। 'यह सौन्दर्य-राशि ! यह दिव्य ज्योति!' वह साहस नहीं कर सकता था उसे छूनेका। देवीके इस अपार तेजमें जो सौन्दर्य था, उसीने उसे पीछे ठेल दिया था। इसके लिये वह प्रस्तुत नहीं था। वह आया था उस कुरूपको अपनाने-आज कहाँ गया वह ?

भाग जाना चाहता था वहाँसे। ऐसा कर नहीं सका। दो काली भुजाओंने झपटकर पैर कस लिये और चरणोंपर केशराशि बिखर उठी। गरम-गरम बिन्दु गिर रहे थे उनपर। वह भूल गया कि माता और सेवक भी पीछे खड़े हैं, और.....

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