नवधा भक्ति [५]- अर्चन
Navadha Bhakti [5]- Worship
SPRITUALITY


नवधा भक्ति [५]-
अर्चन
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा।
सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ। तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ ॥
'किसी जड़को पूजनेकी अपेक्षा तो चेतनको ही पूजना अच्छा है', गंगासिंहने तनिक आँखोंपर बल देते हुए कहा। 'फिर चाहे वह पशु हो या पक्षी। उसमें हृदय तो है ही, वह भावनासे प्रभावित होगा। लकड़ी-पत्थरपर सिर मारनेमें क्या रखा है।' पक्के आर्यसमाजीके और दूसरे विचार हो भी क्या सकते हैं।
'इस पद्धतिसे तो शून्यमें बड़बड़ाने या गुमसुम बैठनेकी अपेक्षा लकड़ी-पत्थर भी भले रहेंगे! वे कुछ हैं तो सही।' गणेशने ईंटका जवाब पत्थरसे दे दिया।
'इसीसे तो मैं कहता हूँ कि केवल विद्वानोंकी पूजा होनी चाहिये।' गंगासिंह अपने मार्गपर ही थे। 'पूजाका अर्थ सेवा-सम्मान।' उन्होंने हँसती दृष्टिसे देखा।
'फिर आप रोज एकान्तमें क्यों घण्टेभर आँखें बन्द करते हैं?'
गणेशको पता है कि गंगासिंह नित्य प्रातः सायं एकान्तमें ध्यान करते हैं। सदाचारी और सच्चे आदमी हैं। केवल व्यर्थमें किसीको भी छेड़कर उससे विवाद करना और शास्त्रार्थका चैलेंज देते फिरनेका रोग है। वैसे शास्त्र तो दूर, वे संस्कृत भी नहीं जानते। अँगरेजीमें ही उन्होंने पुराणोंका परिचय पढ़ा है।
'वह तो मनको एकाग्र करनेका उपाय है। एक प्रकारका मानसिक व्यायाम।' बड़ी सीधी तरहसे गंगासिंहने कह दिया। kof
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'आपका मन एकाग्र होता है?' गणेशने पूछ ही लिया।
'बहुत प्रयत्न करता हूँ, बहुत हठ करता हूँ; पर....।' गंगासिंहने सिर झुका लिया। उनके मुखपर एक वेदनाको छाप थी।
'एक बार मेरा कहा मानेंगे ?' गणेशने पूछा।
'यदि माननेयोग्य होगा।' नेत्र कह रहे थे, 'मान लेंगे; पर वाणी तो 'शास्त्रार्थ' में सधी हुई थी, उसने नपे-तुले शब्द ही प्रयुक्त किये।'
'आप प्रणवको तो मानते ही हैं, उसीका माला लेकर निश्चित संख्यामें जप करें।' गणेशको पता नहीं था कि 'तज्जपस्तदर्थभावनम् ' का प्रयोग पहलेसे हो रहा है, पर उस बीजमें अंकुर नहीं आ रहे हैं।
'सो तो करता ही हूँ!' स्वरमें निराशा थी। 'माला और रख लेनेमें कोई आपत्ति है नहीं।' नेत्रोंने कह दिया कि 'हमें इस साधनकी सफलतापर सन्देह है।'
'एक चित्र रख लें, जो आपको सबसे अधिक आकर्षक जान पड़े !' गणेश अब खुलना चाहते थे।
'मूर्ति-पूजा मुझसे न होगी', गंगासिंहने छूटते ही कहा। 'यह सब आप अपने लिये ही रखिये।' हँस पड़े वे।
'मूर्ति-पूजा नहीं, आदर्श पुरुषका ध्यान।' गणेशने जान-बूझकर चाल चली। 'योगदर्शनमें श्रेष्ठ योगियोंके ध्यानसे मन प्रभावित होता है, यह लिखा है और आप श्रीकृष्णको योगिराज तो मानते ही हैं!'
नेत्रोंमें एक हास्य था।
'बात तो ठीक-सी है। आदर्श पुरुषका ध्यान करते ही उसके आदर्श मनमें उत्थित होते हैं और इससे भावना प्रभावित होती है!' गंगासिंहने कुछ सोचते हुए कहा। 'विचार करूँगा!' मूर्ति-पूजापर अपना ही छेड़ा शास्त्रार्थ वे कबके भूल चुके थे।
'शुभस्य शीघ्रम्'- गणेशको स्वयं शीघ्रता थी। किसी प्रकार यह आर्यसमाजी मूतिपूजक तो बने । 'चलिये, बाजार चलें। टहलना भी हो जायगा और कोई बढिया चित्र भी लेते आयेंगे। न भी आपके काम आया तो कमरेमें लगा रहेगा।' उसे पूरी आशा थी कि आ जानेपर कमरेमें लगानेका अवसर नहीं मिलेगा उसे।
किसी प्रकारकी कंजूसी नहीं की गयी। पाँच रुपयेमें एक बड़ा-सा चित्र लिया गया। बड़े सुन्दर फ्रेममें मढ़ा था। गंगासिंहकी रुचिकी प्रशंसा करनी होगी। उन्होंने कितना सुन्दर चित्र चुना है। एक पहाड़ी झरना है। गोल-गोल पत्थर पानीमें पड़े हैं। एक ओर ऊपरसे गिरकर पत्थरोंपरसे वह उछलता, दुग्धोज्ज्वल लहरें बनाता भागा जा रहा है। पीछे कुछ दूर धुँधली वनावली और उसके पीछे शिखर हैं। सान्ध्य अरुणिमा दृश्यके प्रत्येक स्थलपर प्रतिबिम्बित है। किनारे एक पत्थरपर दोनों हाथोंमें एक मुड़े हुए पैरको लिये गोपाल बैठा है। नंगे घुटनेका उभार खूब आया है। उत्तरीय खिसक गया है, वंशी दोनों हाथोंमें घुटनेसे नीचेके भागसे सटी है। गलेमें एक पुष्पमाला है। मस्तकके केशोंमें जटा-सी बनाकर दो मयूरपिच्छ खोंस लिये हैं। दूसरा चरण सीधा पत्थरसे नीचे लहरियोंद्वारा प्रक्षालित हो रहा है। ऊपर नेत्र उठाये कुछ सोच रहा है वह नित्य सुन्दर। बहुत ही सादा एवं स्वाभाविक चित्र पसन्द किया है गंगासिंहने।
पूजाके कमरेमें जहाँ वे चौकीपर बैठते हैं, सामने दूसरी चौकी रखी गयी। इतनी ऊँची उसे ईंटोंके सहारे कर लिया गया कि आसनपर सीधे बैठनेपर बिना गर्दन झुकाये दृष्टि चित्रपर ही पड़े। नंगी चौकीपर चित्र अच्छा नहीं लगता था, अतः नीचे एक नीले रंगका सुन्दर मखमल डाल दिया गया।
दूसरे दिन आसनपर बैठते ही स्मरण हुआ, धूप-बत्ती जला दी जाय तो ध्यानके समय वायु शुद्ध मिले। चित्रके दोनों ओर धूपदानी रख दी गयीं।
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'ओहो! आज तो श्यामसुन्दर खूब सजे हैं!' गंगासिंह झेंप गये। पड़ोसी होनेके कारण गणेशका उनके घरमें अबाध प्रवेश था। वैसे घरमें वृद्धा माताको छोड़कर कोई था भी तो नहीं। जबसे गणेश यह चित्र लिवा लाये हैं, माता उन्हें बहुत मानने लगी हैं। उन्हें अपने 'गंगा' की 'नास्तिकता' बहुत अखरती थी।
'तुम माताको तो जानते ही हो!' गंगासिंहने सफाई दी। 'वे दीपक जला जाती हैं, चन्दन लगाती हैं और यह नैवेद्य....' एक दोनेमें लड्डू रखे थे।
'श्यामसुन्दर हैं पक्के चटोरे ! आते ही तुम्हारे यहाँ भी इन्होंने खाने-पीनेका डौल-डाल कर लिया है।' हँसते-हँसते गणेशने कहा।
'उनकी भावनाको मैं चोट नहीं पहुँचाना चाहता।' गंगासिंहने गम्भीरतासे कहा, 'अन्यथा यह खटराग मुझे पसन्द नहीं।' उनमें थोड़ी झुंझलाहट थी।
'एक चित्रमें आप योगिराज श्रीकृष्णकी भावना करके लाभउठाना चाहें, तब तो कोई अपराध नहीं; और' गणेशने मुसकराते हुए कहा-'माँ जगदाधार श्रीकृष्णकी भावना करें तो अपराध हो गया ?'
इस स्वरमें एक छिपा हर्ष था।
'मैं तो चित्रको केवल स्मरण करनेके लिये निमित्त मानता हूँ।' गंगासिंहने स्पष्टीकरण किया। वे जानते थे कि अब शास्त्रार्थ होनेवाला है।
'हम मूर्ति-पूजक भी मूर्तिको प्रतीक ही कहते हैं', गणेशने हँसते
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हुए कहा। 'चित्र या मूर्तिके नष्ट होनेपर हमारे आराध्य नष्ट नहीं होते हम दूसरा प्रतीक वहीं ला रखते हैं।' उसने आज ठीक अवसर देखा था।
'उस निराकारका प्रतीक कैसा ?' गंगासिंहने प्रश्न गम्भीरतासे किया। 'मैं तो महापुरुषोंके प्रतीकको समझ सकता हूँ !' अभी वे पूरा तर्क सुन लेना चाहते थे।
'वह निराकार है, इसीलिये तो चाहे जिस आकारका उसका अपनी भावनानुसार प्रतीक हो सकता है।' गणेश भी गम्भीर हो गया। 'महापुरुषोंका प्रतीक तो ऐसा हो नहीं सकता। क्या आप कह सकते हैं कि श्रीकृष्ण ऐसे ही थे?' उसने चित्रकी ओर संकेत किया।
'इससे हृदयमें श्रीकृष्णकी भावना होती है!' गंगासिंहके तर्क सावधान हो चुके थे। 'इससे कोई मतलब नहीं कि वे ऐसे थे या नहीं। उनका कहना ठीक था।
'हमारे प्रतीक भी हृदयमें अखिलेशकी भावना उत्पन्न करते हैं। इससे कोई मतलब नहीं कि वह ऐसा है या नहीं!' शब्द-शब्द उसने दुहरा दिया। 'जब एक जीवका जो लोकान्तरको जा सकता है, चाहे वह महापुरुष ही क्यों न हो, प्रतीक भावोद्रेक कर सकता है तो जगदीश तो सर्वव्यापीके नाते उस प्रतीकमें है भी।' गणेश गम्भीरतर हो चला।
'इसकी आवश्यकता ?' गंगासिंहने रोककर पूछा। 'प्रतीक उसके व्यापक रूपकी भावनाका बाधक भी तो बनता है!' वे कुछ सोच रहे थे।
'मन निराकारकी भावना कर नहीं सकता। मैं दो-चार समर्थ अपवादोंकी बात नहीं कह रहा हूँ।' गणेशका उत्तर स्पष्ट था। 'उसने सीमित साकारकी भावनाका अभ्यास बना रखा है। भावनाको उद्दीप्त करके प्रतीक उसे एकाग्र करता है। यह प्रतीक कोई चेतन होगा तो उसमें भावना पूर्णतः प्रतिफलित न होगी। उसकी अपनी भावनाएँ, चेष्टाएँ उसमें बाधक बनेंगी। मन उसके गुण-दोषकी विवेचना करना चाहेगा। इसीसे प्रतीक भावनाहीन पदार्थका होता है। उसमें अपनी भावना पूर्णतः प्रतिफलित होती है। मन्दिरोंके सिंहासनपर इसीसे विद्वान् नहीं बैठाये जा सकते!' उसने गंगासिंहके बहुत पुराने तर्कका आज उत्तर दिया।
'इसे मान भी लें तो यह प्रतीककी पूजा-अर्चा क्यों?' पता नहीं क्यों आज गंगासिंहका तर्क शिथिल होता जा रहा था।
'इसलिये कि स्थूलके द्वारा ही सूक्ष्मका परितोष होता है।' उसने और स्पष्ट किया- 'आपको तुष्ट करनेके लिये आपके शरीरकी सेवाके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं। जीवको कोई भी भोजनादिका भाग नहीं मिलता, पर इस स्थूल शरीरको मिलनेसे वह तुष्ट होता है; और शरीर उसका नित्य साथी तो है नहीं, एक प्रकारका प्रतीक है। ऐसा प्रतीक- जिसमें वह रहता है। मन्दिरके प्रतीकमें क्या तुम्हारा सर्वव्यापी ईश्वर रहता नहीं?' वह रुका नहीं, जबतक बोल नहीं गया।
गंगासिंह विवाद नहीं करना चाहते थे। आज वे समझनेको प्रस्तुत थे 'शास्त्रार्थ' छोड़कर। इतना समझनेके लिये समयकी आवश्यकता थी। सिर झुकाकर उन्होंने कुछ सोचा।
'तुम दोनों व्याख्यान ही दोगे या नीचे भी आओगे।' माँने नीचे सीढ़ीके पाससे पुकारा। 'दूध ठंडा हुआ जा रहा है।' चायसे गंगासिंहको परहेज है। सबेरे गरम दूध लेते हैं, सन्ध्यासे निवृत्त होकर। आज गणेशसे बातोंमें लगनेसे देर हो रही थी। दोनों नीचे उतर आये।
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हैं!' सोतेसे चौंककर उठे वे । 'ओह, कम्बल खिसक गया था। रूईके कपडोंका उपयोग न करनेके कारण दो कम्बल ओढ़ने पह हैं। कडाकेकी सर्दी पड़ रही है। सोते समय एक ऊपरका कम्बल खिसक जानेसे सर्दी लगी और नींद टूट गयी। दोनों कम्बल फिल्मे ठीक किये और लेट गये।
'उफ, कितनी सर्दी है!' दोनों कम्बलोंके भीतर भी जैसे अंग काँप रहे थे। टूटी हई निद्रा तुरंत नहीं आया करती। 'जिनके पास कुछ भी ओढनेको नहीं, वे दीन कैसे रात्रि काटते होंगे!' कल्पना अपना काम कर रही थी। सहसा कुछ स्मरण हुआ। दोनों कम्बल फेंककर खड़े हो गये। स्विच दबाकर प्रकाश किया और धोती लेकर सीधे स्नान-गृहमें घुस गये।
आर्यसमाजसे कबका त्यागपत्र दिया जा चुका है। अब पहलेके गंगासिंह नहीं रहे हैं। तिलक लगाये और कण्ठी पहने उनको देखकर पहचानना कठिन हो जाता है। अब वे पक्के पुजारी हो गये हैं। शौच जानेपर अब स्नान अनिवार्य हो गया है और पूजन-समयके लिये रेशमी धोती और ऊनी चादर आ गयी है।
यह सब एक दिनमें नहीं हो गया। पहले उन्होंने धूपके साथ दीप और चन्दन-नैवेद्य चढ़ाना प्रारम्भ किया। पुष्प एवं माला तो सुन्दर लगनेकी दृष्टिसे पहले भी चढ़ाते थे। केवल दृष्टिकोण बदल जानेसे इतना हुआ कि माला दो-तीन दिनतक नहीं चढ़ी रहती। शामको उतार दी जाती है। पूजन दोनों समय होने लगा और उन्होंने वैष्णव-साहित्यका अध्ययन भी प्रारम्भ किया।
एक दिन एक बड़े सीधे, सरल सन्त आये। उनके तेज, बाल-स्वभाव और सहज शान्त स्वरूपने मुग्ध कर दिया। सन्तने गुरु की आवश्यकता बतलायी और गंगासिंहने उन्हींके श्रीचरणोंमें अपनेको निवेदित कर दिया। बहुत आगा-पीछा करनेके पश्चात् यह कण्ठी-तिलक उन सन्तसे प्राप्त हुआ था।
पूजनमें खूब मन लग जाता है। समय भी पर्याप्त लग जाता है। लगभग पूरा दिन पूजनकी सामग्री जुटाने या मँगानेमें लगता है। वह सामग्री मँगाना या जुटाना भी तो पूजन ही है! उसके जुटाते समय भी तो वह जिसके लिये प्रस्तुत की जा रही है, उसका स्मरण रहता है। सभी पूजनोंका उद्देश्य उसका स्मरण ही तो है।
पर्वोके समय कार्य बढ़ जाता है। चिन्ता बढ़ जाती है और साथ ही चिन्तन भी बढ़ जाता है। यह बात गंगासिंहने देख ली थी कि उत्सवकी तैयारी में लगनेपर रात्रिमें भी कभी मन्दिर सजाते अपनेको पाते हैं और कभी भगवान्के लिये बाजारमें वस्त्र खरीदते। हिन्दुओंमें पाँकी कमी तो है नहीं। प्रत्येक दिन कोई-न-कोई पर्व पड़ता है और किसी-किसी दिन तो एक दर्जन पर्व इकट्ठे पड़ जाते हैं। गंगासिंह भी महीनेमें दो पर्व मना ही लेते हैं। अवतारोंकी जयन्तियाँ बड़ी धूम-धामसे मनायी जाती हैं।
पूजनसे अब भी ध्यानको वे श्रेष्ठ मानते हैं और मूर्ति अब भी प्रतीक ही है उनकी दृष्टिमें। यथाशक्य नेत्र बन्द करके निराधार मन रखना चाहते हैं; वह नहीं होता तो प्रतीक मूर्तिका चिन्तन करते हैं। मन तो चंचल है।
जब वह मूर्ति-चिन्तनसे भागे तो लीलाचिन्तन; और वहाँसे भी भागे तो माला उठाकर जप। जपके पश्चात् पाठका नम्बर आता है और उसके उपरान्त पूजनका। जब मन किसी प्रकार न माने तो पूजन-सामग्री जुटानेमें लग जाना चाहिये। इसी समयके लिये उत्सव बनाये गये हैं। उत्सव करानेकी शक्ति न हो या इच्छा हो प्रबल तो तीर्थयात्रा भी की जा सकती है।
चलता रहा यह क्रम पर्याप्त समयतक। अवश्य ही ध्यान का समय बढ़ता गया; पर साथ ही पूजानुराग एवं सामग्री-सम्भार भी घटनेके बदले बढ़ता जा रहा था। प्रसादकी पवित्रता और महत्ता पूर्णतः नहीं तो कुछ तो समझमें आ ही गयी थी। गुरु तो सचमुच देवता ही थे। उन्हें साधारण मानव एक मूर्ख भी नहीं कह सकता था।
माता बहुत प्रसन्न थी। पुत्रकी भक्तिसे उसका हृदय पुलकित हो उठा था। अब वह नैवेद्य बनाकर सन्तोष कर लेती थी। भगवान्को जाकर प्रणाम कर आती थी। जब भी उसके 'गंगा' ने उससे पूछा 'माँ ! तू आज इस पर्वपर पूजा न करेगी ?' उसने हँसकर कह दिया 'तू तो करता ही है। भगवान् तेरी माँ होनेके नाते मुझे भूलेंगे नहीं!' वह गद्गद हो उठती। गंगासिंह भी आग्रह नहीं कर पाते थे। सच्ची बात तो यह है कि इस वृद्धावस्थामें नैवेद्य बनाने, स्वतः माला गूँथने आदिसे माताको अवकाश ही नहीं मिलता था। वे पूजनका काम नौकरोंसे करानेको प्रस्तुत नहीं होती थीं।
माँ-बेटेके लिये कोई कमी थी नहीं। पिताजी बैंकमें जो छोड़ गये थे, उसका सूद ही पर्याप्त था। गंगासिंहने माँ और परिजन-प्रियजनके आग्रहको बन्द कानों सुना था शादीके विषयमें। प्रारम्भसे उन्हें आध्यात्मिक चस्का था और उसीसे आर्यसमाजमें गये थे। कॉलेजमें ही आर्यसमाजी हो गये। कोई व्यसन था नहीं उन्हें।
अब व्यय बढ़ गया है। उत्सवोंका काम बैंकके सूदसे नहीं चलता। कोई चिन्ता नहीं है। जबतक है, कंजूसी उनके बसकी नहीं। यदि समाप्त ही हो गया तो वह विश्वम्भरदेव क्या स्वजनोंकी उपेक्षा कर देगा ? बैंककी मूल रकमके घटनेकी कोई चिन्ता नहीं थी।
'बिना स्नानके कैसे मन्दिरमें जाऊँ !' स्नान घरमें नल बन्द हो चुका था और वे जाड़ोंमें गरम पानीसे स्नान करनेके अभ्यस्त हैं। नौकरको जगाकर पानी गरम करनेको कहा जायगा। 'बड़ी देर होगी! मुझे तो इतनी देरमें ही थरथरी चढ़ रही है और प्रभु....!' उनसे विलम्ब किया नहीं जा सकेगा। बाल्टीमें भी पानी नहीं था। पीनेका मिट्टीका घड़ा अवश्य भरा था। उन्होंने घड़ा सिरपर उँडेल लिया।
हाथ रेशमी धोती भी ठिकानेसे पहना सकनेमें असमर्थ हो गये। दाँत परस्पर टक्करें लेने लगे। रोमोंने चौंककर सिर सीधे कर लिये और पैर अपने मनसे पृथ्वीपर पड़नेका उपक्रम करने लगे। एक-एक मिनट असह्य था। उन्होंने धोती लपेट ली। शरीर पोंछनेमें भी देर हो जाती। भगे वहाँसे।
ऊनी वस्त्रोंकी पेटीमें नवीन दुशाला पड़ा था। कल ही वे खरीद लाये हैं। एक सम्बन्धीने मँगाया है। 'उन्हें दूसरा भेज दिया जायगा।' दुशालेको आठके बदले उन्होंने दो तहोंमें फैला लिया। जल्दीसे मन्दिरमें जाकर चित्रपटके ऊपर ढक दिया उसे और घुटनोंके बल बैठ गये। आज वे भूल गये थे कि वह तो प्रतीक है। 'भगवान्को अबतक ठंड लग रही थी!' उनके हृदयमें कितना दुःख था-कौन कहे।
'क्षमा करो, दयामय!' वे हिचकने लगे। खुलकर रो भी नहीं सकते थे। 'प्रभुकी निद्रामें व्याघात होगा!' पृथ्वीपर सिर पटक दिया उन्होंने। 'यहाँसे जाकर कमरेमें रोना ही ठीक है!' उन्होंने सिर उठाया। 'कमरेमें तो सोते समयका मन्द प्रकाश बल्ब जल रहा था!' जैसे कई सहस्त्र पावर बल्बका प्रकाश कमरेमें छिटक रहा हो! चित्रपटपरसे दुशाला और नीचेका कौशेय वस्त्र भी खिसक गया था। वह नटखट घुटना पकड़े बैठा तो था, पर गम्भीर दृष्टिसे ऊपर नहीं देख रहा था। मन्द-मन्द हँसता हुआ अपने पुजारीपर अमृत-वृष्टि कर रहा था! प्रतीक ही तो अर्चावतार है!
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