नवधा भक्ति (9) आत्मनिवेदन
Navdha Bhakti (9) Self-reflection
SPRITUALITY


नवधा भक्ति (9) आत्मनिवेदन
जाति पाँति धन् धरम बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई ॥ सब तजि तुम्हहिं रहइ उर लाई। तेहि के हृदय रहहु रघुराई ॥
'वे आँखें हाँ, वे आँखें कितनी भाग्यशालिनी हैं, जिन्होंने एक बार उस अपार छवि-सुधा-पारावारको देखा है!' एक विशाल सौधको उत्तुंग अट्टालिकापर दो अद्भुत सीप मुक्ता-वृष्टि कर रहे थे।
वह भी तो ब्राह्मणकुमारी है! कुमारी होनेका ही उसे यह दण्ड मिला है। लगभग सभी ब्राह्मण मथुरासे सपत्नीक गुपचुप वनमें चले गये थे। कंसको पता लग जाता तो पता नहीं क्या होता? ऐसा कुछ हुआ नहीं। आजकल महाराज बहुत सशंक रहते हैं। अपने कल्याण-चिरजीवनकी उन्हें बहुत चिन्ता लगी रहती है। 'आपके चिरजीवनके लिये हमलोग आज्ञा हो तो एक यज्ञ कर डालें।' प्रस्ताव करते ही आज्ञा मिल गयी थी।
भूमि शोधी गयी और नगरसे दूर- वनप्रान्तमें यज्ञ-मण्डप बना। जो भी सहायता माँगी गयी, महाराजने दे दी! पता नहीं क्यों उदारता उमड़ पड़ी थी। अभागे थे वृद्ध, रोगी, बालक और कुमारिकाएँ! ब्राह्मणोंके घरमें जन्म लेनेपर भी उन्हें मथुरामें ही रहना पड़ा। करते भी क्या वे जा करके ?
उसे यज्ञ देखनेकी कोई लालसा थी नहीं। उस दिन उसे कोई दुःख नहीं हुआ था, जब उसकी माता और भावजें आभूषणोंसे सज्जित होकर घरसे गयी थीं। उसने उत्साहपूर्वक उन्हें बिदा किया था और घरका भार सँभाल लिया था। यों भी घरमें उसीका आधिपत्य है। पिता-माताकी सबसे छोटी सन्तान होनेके कारण वह उन्हें तो अत्यधिक प्रिय है ही,
भाई भी छोटी बहनका बहुत आदर करते हैं। सेवक सेविकाओंको उसकी आज्ञा सर्वप्रथम माननी पडती है।
आज वह अत्यधिक उदास है। किसीके पूछनेपर उसने कुछ बताया नहीं। उसे बोलना पसन्द ही नहीं। सबसे पिण्ड छुड़ाकर वह यहाँ अकेलेमें आ बैठी है और झरोखेसे निकलकर वायुमण्डलमें कुण्डलियाँ बनाते-बढते अगर धूम्रको चुपचाप देख रही है। उसका भी तो हृदय उसी प्रकार दग्ध हो रहा है। भीतर भी तो धाँकी कुण्डलियाँ उठ रही हैं।
जब यज्ञसे प्रातः पिताजी आते दिखायी पड़े थे, उसने सोल्लास आरती सजायी थी। भाइयोंके सिरपर तिलक किया था और लाजा फेंका था उनके ऊपर। उसके पैर पृथ्वीपर पड़ते ही नहीं थे। इधर-से-उधर फुदकती फिरती थी। भाभियोंको छेड़कर उसने यज्ञशालाके वृत्त पूछे थे और सबने इकट्ठे बैठकर ही उसे सब सुनाया था। कोई भी ऐसी बात तो तबसे हुई नहीं, फिर क्यों वह इस समय इतनी उदास है ?
संगके सब साथी कोई बड़ा भारी लाभ उठा लें और हम वंचित हो जायँ-कितना कष्ट होता है? सम्भवतः इतना कष्ट तब न होता, यदि सभी वंचित रह जाते। आज उसमें यह ईर्ष्या भी नहीं रह गयी है! ईर्ष्या तो हृदयमें तब हो, जब वहाँ ईर्ष्याके लिये स्थान हो। वहाँ तो दाहने एकाधिपत्य कर लिया है।
तब वह पाँच ही वर्षकी थी। उसने सुना था कि गोकुलमें नन्दके लालाने पूतनाको मार डाला है। आज उस बातको कई वर्ष बीत गये। उसे तो कल-जैसी घटना लगती है। दोनों हाथोंसे तालियाँ बजाती सारे घरमें नाचती फिरी थी। उसने एक बार पूतनाको देखा था। उस राक्षसीको देखकर वह डर गयी थी। वह उससे घृणा करती थी। उसके बसका होता तो गोकुल भाग जाती और उस नन्हें नन्दलालको गोदमें उठा लेती। महाराजका भय दिखाकर माताने उसे बहुत डाँटा था.
आजतक उसने उस नन्दकुमारको देखा नहीं है। सुना बहुत है उसके सम्बन्धमें। माँ. भाभियाँ और सहेलियाँ भी उसीके रंग-रूप एवं गुणोंकी दिन-रात चर्चा करती हैं। वह सुनती है, छेड़-छेड़कर सुनती है। उसके छोटेसे पवित्र हृदयसे उस चीरचोरने चुपकेसे आसन जमा लिया है। एक ही साध है उसके जीवनमें- एक बार उसे देख पाती था।
'माँ उसे देख आयी हैं। भाभियाँ उसे अपने पकवान्के थाल भेंट कर आयी हैं!' 'यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः' पिताजी ही तो कहते हैं। मैं अभागिनी हूँ! मुझपर उसकी दया नहीं है। वह सर्वज्ञ है। सुनती हूँ-बहुत उदार है! मेरा दुर्भाग्य। कोई मार्ग दिखलायी पड़ता नहीं था। नीचेसे माँ पुकार रही थीं 'हेमा!' उसने नेत्र पोंछ डाले। सीढ़ियोंपर किसीकी पदध्वनि सुनायी पड़ने लगी थी।
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(२)
'तू कौन है बेटी ?' बहुत देरतक तो मैयाने बिना पहचाने ही गोदमें दबा रखा था। आज जानने-पहचाननेकी शक्ति उनमें थी नहीं। उनकी दोनों आँखोंको क्रूर अक्रूर आज ही मथुरा ले भागा था। बहुत देर मूच्छित रहनेके पश्चात् उन्होंने अपने आसपास मूच्छित या अर्धमूच्छित बालिकाओंको गोदमें लेना प्रारम्भ कर दिया था।
'हाय !' उनसे कुछ छिपा नहीं था। आज इनमें कन्हैया ही उन्हें दीखता था। वही तो उनके हृदयमें छिपा हुआ भी भाग गया है। वे स्वयं रोती जाती थीं। कभी किसीका मुख पोछतीं और कभी किसीको पुचकारतीं। आज श्यामसुन्दरके साथ इनकी लज्जा भी चली गयी थी। वे मैयाके पैरोंको पकड़कर हृदयसे दबा लेतीं या उनपर मस्तक रगड़तीं। हू-हू करके रोनेकी शक्ति भी नष्ट हो गयी थी। मूर्च्छा और सूखे-सूने नेत्र। अश्नु सूख चुके थे।
उनमेंसे एकको गोदमें उठाकर मुख पोंछते समय मैयाको लगा कि 'इसे कभी पहले नहीं देखा है। अपने व्रजकी तो है नहीं।'
अहीरकन्या-जैसी लगती भी नहीं थी। एक बार देखा, दो बार देखा, मनको सन्तोष नहीं हुआ। अन्तमें बड़े स्नेहसे मैयाने पूछा।
'तुम्हारे घरकी दासी!' वह कुछ कह नहीं सकी। उसने गोदसे उतरकर दोनों चरण हृदयसे कसकर दबाये और मूच्छित हो गयी। मैयाने खींचकर फिर गोदमें ले लिया। वे उसका मुख अंचलसे पोंछने लगीं। पूछा नहीं उन्होंने उससे कुछ। पूछें भी क्या ? अब पूछनेका समय निकल गया था। उन्हें क्या पता नहीं था कि उनके चित्तचोर लालाने पता नहीं किसको किसको अधमरा किया है।
शोकके दिन तो क्या क्षण भी युग हो जाते हैं। युग हों या कल्प, बिताना तो पड़ता ही है। दिन बीत गया। शाम हुई और अँधेरी रात्रि आयी ! सबके माता-पिता किसी प्रकार अपने बच्चोंको नन्दभवनसे ले गये। वे स्वयं भी क्या कम विक्षिप्त थे। सब गये; पर वह वैसे ही मैयाके चरणोंमें बैठी रही। उसे लिवाकर ले जाने कोई आया नहीं।
'तू घर नहीं जायगी लल्ली ?' उसने कोई उत्तर नहीं दिया। सूने नेत्रोंसे टुकुर-टुकुर मैयाका मुख देखती रही। मैयाने भी उससे फिर कुछ कहा नहीं। गोदमें उठा लिया और अपने साथ, अपने ही पलंगपर लिटा लिया। निद्रा तो किसे आती थी ? शब्द भी किसीको कुछ मिलते नहीं थे।
ब्राह्ममुहूर्तमें ही वह उठ बैठी। पता नहीं, रात्रि-भरमें ही उसका शोक कहाँ चला गया था। उसने घरमें झाडू दिया, कलके बर्तन साफ किये और दधि मथने लग गयी। अभ्यासवश मैया उठी और गयी दधिपात्रके समीप। 'हाय, अब किसके लिये मक्खन निकालनेकी शीघ्रता है।' गिर पडी वह। उसने मथानी छोडी और झपटकर संभाल लिया।
बाबा ने मना किया और मैया तो मना करती ही रहती हैं। वह दासियोंका अधिकांश काम कर डालती है। 'मैं भी तो एक दासी हो हैं!' किसीके मना करनेपर उसका सधा हुआ उत्तर है। कोई क्या समझावे, इस पगलीको ?
पहले दिनके पश्चात् किसीने उसे विक्षिप्त या उदास नहीं देखा है। वह दूसरोंको समझाती है, धैर्य देती है और अपनी शक्तिभर प्रसन्न करनेकी चेष्टा करती है। मैया उसे पुत्रवधू ही मानती हैं। वृषभानुनन्दिनी उसे बहन कहकर पुकारती हैं। उसके आनेमें देर हो तो बार-बार पूछने लगती हैं। जैसे वह उनकी अनुजा ही हो। वह भी मैयाकी और उनको सेवामें जुटी ही रहती है।
कोई नहीं जानता कि वह कौन है, किस जातिकी है, कहाँकी है। उसने तो अपना नाम भी नहीं बतलाया। मैया उसे लल्ली कहती हैं और श्रीकिशोरीजी मधु ! यह दूसरा नाम ही सखियोंमें प्रसिद्ध हो गया है। उससे पूछनेपर तो वह इतनी वेदनाभरी सूनी दृष्टिसे देखकर उसास लेती है कि पूछनेवालेको पश्चात्ताप करना पड़ता है, उसे कष्ट पहुँचानेके लिये। अब पूछाताछी बन्द हो चुकी है।
श्यामसुन्दरकी कथाएँ ही तो सबकी प्राणरक्षिका हैं। उन्हींको कह-सुनकर तो किसी प्रकार दिन कटता है। वह केवल सुनती है। कुछ कहती कभी नहीं। अवश्य ही पूछ लेती है। नटनागरकी विहारस्थलियोंसे वह परिचित नहीं है। वह सखियोंसे बड़ा अनुरोध करके उन्हें देखती है। वहाँकी धूलिमें तो सभी लोटती हैं।
व्रजकी तो वह नहीं ही है। उसे सम्भवतः नट-नागरके सामीप्यका भी कभी सौभाग्य मिला नहीं है। उसकी जिज्ञासा और चेष्टाओंसे सबने अनुमान कर लिया है। पूछे कौन? अब तो वह रात-दिन मैया की ही सेवा में रहती है।
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(३)
'हरित-भरित पुष्पित कुंजोंके मध्यमें, सघन तमालके नीचे, एक सखाके कनेपर भुजा फैलाये और दूसरेमें लीला कमल घुमाते ! धातुओंसे चित्रित सवाँग!' मन-ही-मन उसने उस पीताम्बर-परिवेष्टित स्वजलधर श्याम छटाकी कल्पना की। भाभियोंने यही स्वरूप उसे बतलाया था। मन-ही-मन उसे वह साकार कर रही थी।
'सौन्दर्य-सौकुमार्यका घनीभाव, माधुर्यकी मूर्ति, मानो विश्वकी सम्पूर्ण सुषमा उसकी छटाकी एक किरण उधार लेकर बनायी गयी हैं!' माताने न जाने क्या-क्या कह दिया था। वही वर्णन तो उसे आज विष हो रहा है।
उसे कोई रोग नहीं था। वैद्य आये और लौट गये। पिता चिन्तित थे कि उनकी हेमा क्यों गली जा रही है। वह सौन्दर्य-प्रतिमा पीली पड़ गयी थी। नेत्रोंके नीचे कालिमा दिखायी देने लगी थी। वैसे उसकी बड़ी-बड़ी कर्णोंसे सलाह करती आँखें उस कालिमासे भी भूषित ही हुई। शरीरमें नसें चमकने लगीं। उसका अल्हड़पन और चांचल्य तो कबका विदा हो चुका था। कष्ट कुछ बताती नहीं थी। पूछनेपर हँसकर भाग जाती थी। उसे एकान्त प्रिय हो गया है। ऊपर अट्टालिकाकी छतपर या कमरेको बन्द करके गुमसुम पड़ी रहती है। भाभियोंको चिढ़ाना और सहेलियोंसे मिलना बन्द हो गया है। कोई कुछ कहता है तो रो पड़ती है। बात-बातमें बिगड़ पड़ती है। बहुत चिड़चिड़ी हो गयी है।
उसे स्वयं भी दुःख था कि उसके कारण सारे परिवारको कष्ट हो रहा है। पिताकी लाड़िली होनेके कारण ही अबतक विवाह नहीं हुआ था। अब उसकी उदासीने उन्हें चौंका दिया था और उन्होंने रात-दिन एक करके उसके लिये वर निश्चित कर लिया था। जबसे उसने सुना कि उसका विवाह होना निश्चित हो गया है और भी उदास रहने लगी.
रात्रि ढल चुकी थी। चारों ओर सन्नाटा था। कभी-कभी उलूककी कठोर-ध्वनि उसे भेदन करके हृदयको कम्पित कर जाते थी। आजकल मथ्रामें बड़े अपशकुन हो रहे हैं। अभी-अभी पड़ोसके घरमें बिल्ली रो रही थी। एक दासी बडे जोरसे खरटि ले रही है। सभी घोर निद्रामें मग्न हैं।
धीरेसे वह उठी। आभूषण कभीके छोड़ चुकी है। हाथमेंसे स्वर्णकंकण भी उतार दिये। सिरहाने छिपायी सादी साड़ी पहनकर उसने बहुमूल्य साड़ी उतार दी। 'माता-पिता, अपनी इस अभागिनी बच्चीको क्षमा करना!' हाथ जोड़कर उसने वहीं सिर झुकाकर नेत्रोंके जलसे पृथ्वीका अभिषेक किया। धीरेसे द्वार खोलकर राजपथपर आ रही। आकाशमें भगवान् निशिनाथ उसे पथ दिखला रहे थे।
'प्रहरी !' मनमें आतंक उठा। एक गलीमें दुबक रही। नगरद्वार जब ब्राह्ममुहूर्तमें खुला, वह निकल गयी। किसीने उससे कुछ पूछा नहीं। बाहर एक भगवान् शंकरका मन्दिर है और वहाँ प्रायः नगरके नर-नारी बड़े अँधेरे पहुँच जाते हैं। कालिन्दी किनारे ही नित्यकर्म और स्नान भी वे करते हैं। अतः द्वारपालोंको पूछनेका कोई अवसर नहीं मिला।
उसने राजमार्ग छोड़ दिया और वनमें होकर चलने लगी। पशु एवं राक्षसोंकी अपेक्षा उसे आज मनुष्योंसे ही अधिक भय लग रहा था। भूलते-भटकते बहुत देर हो गयी। अन्यथा उसके हिसाबसे वह घरसे गोचारणको निकलते उन्हें देखना चाहती थी। सूर्य मार्गमें ही उदित हो गये। बहुत देर हो गयी। मार्ग वह भूल ही गयी।
वृन्दावनकी सीमामें पहुँचते ही हृदय धक्से हो गया। लता, वृक्ष सब श्रीहीन थे। मानो वे रो रहे थे। पशु-पक्षियोंका कहीं नाम नहीं था। पैर मन-मन भरके हो गये। आगे बढनेके बदले पीछे लौटनेको १५१ हृदय कहता था। देखा, वनके किनारे पशुओंका ठट्ट लगा है। सब चित्र-जैसे मूच्छित खड़े हैं।
'हाय रे दुर्भाग्य ! आज ही वे मथुरा चले गये।' उसकी क्या दशा हई. यह वर्णन मेरी शक्तिके बाहर है। आप भी कल्पनाको कष्ट न दें- यही ठीक है। वह विक्षिप्ता कुछ देख-सुन नहीं सकी। सीधे नन्दभवनमें घुसी चली गयी। आज वहाँ कौन किसको रोकता ? लाल तो चला गया, पेटीकी रखवाली कौन करे ?
'कैसे मथुरा लौट जायगी वह ? मैयाको, इन प्रेम-मूर्तियोंको और श्री....। क्या अधिकार है उसे उनके समीप जानेका ? वह तो इनकी तुच्छ दासी होने योग्य भी नहीं ?' नहीं लौटी वह। लौटनेकी बात भी उसके मनमें नहीं आयी।
XXX
(४)
'मैया! हेमा कहाँ है ?' अन्तमें पूछना ही पड़ा चलते समय। सोचा था कि माँके समीप मिल जायगी। उलाहना देगी और स्वागत करेगी। वहाँ दिखायी नहीं पड़ी तो सोचा कि श्रीजीके समीप होगी। वह कभी भी दिखायी नहीं पड़ी। कहीं उसे वृन्दावन ही तो नहीं छोड़ आये? कहीं उसने शरीर तो नहीं।
'हेमा कौन बेटा ?' मैयाने तो यह नाम कभी सुना नहीं है। 'ओह, तू लल्लीको तो नहीं पूछता ?' उन्होंने तनिक सोचकर पूछा।
'हाँ, वही !' सिर झुकाकर धीरेसे कह दिया गया। मैयाके सम्मुख बड़ी लज्जा लग रही थी।
'तो उसका नाम हेमा है?' मैयाने कहा- वे आजतक उसका नाम भी नहीं जानती थीं। 'लल्ली ! ओ लल्ली ! अरी, कहाँ छिप गयी तू ? बड़ी विचित्र लड़की है। जब उद्धवको तूने भेजा था, तब भी वह छिपी-छिपी फिरती थी। दाऊके जानेपर उसने बस, चुपसे दो कमलके फूल उसके पैरोंपर दूरसे फेंक दिये और भाग गयी। एक महीने वह व्रजमें रहा, पर इस लडकीने कभी उसे मुख नहीं दिखाया। जब वह चलने लगा और रथपर बैठ गया, तो जाने कहाँसे आयी और फिर दो फूल दूरसे उसके पैरोंपर डालकर छिप गयी ! आज तू आया है. तो फिर छिप गयी है!' मैया उसे ढूँढ़ने चलीं।
'अभी तो बगलके कमरेमें बैठे-बैठे सब सुन रही थीं। तुमने पुकारा तो भाग गयीं!' एक दासीने कहा।
'उसे रहने दे मैया !' बड़े निराशाभरे स्वरमें श्यामसुन्दरने कहा और मैयाके चरणस्पर्श करके, उसकी शीतल गोदका स्पर्श पाकर, उसके स्नेहाश्रुसे अलकोंको सींचकर, उस पट-भवनसे बाहर चले। बहुत दिनके पश्चात् आज प्रभासमें यह स्वजनसमागम हुआ था। हृदयोंकी बातें अश्रुओंके प्रवाहमें प्रवाहित हो गयी थीं। सबको सन्तोष एवं उपदेश देकर अपने शिविरके लिये विदा हो चुके थे। निश्चय हो चुका था कि सायंकालसे पूर्व ही व्रजका यह शिविर भी द्वारिकाके शिविरमें ही पहुँच जायगा।
किसीने आकर एक अंजलि सुरभि श्रीचरणोंमें बिखेर दी और उन्हींपर सिर रख दिया। वह पृथ्वीमें पूरी तरह लेटी हुई थी और उसने दोनों भुजाओंमें चरणोंको बाँध लिया था। बाबाको लेकर बड़े भैया आगे बढ़ गये थे और उनका रथ चल चुका था। उद्धव ठिठककर खड़े रह गये पीछे ही। दारुक रथपर बैठा सम्मुख ही प्रतीक्षा कर रहा था।
'उठो हेमा !' दोनों आजानुबाहु झुक गये। वह पहले ही उठ गयी और अंजलि बाँधकर चरणोंके समीप घुटनोंके सहारे बैठे गयी। 'तुम क्या करती हो ? तुम तो...!' वे सम्भवतः बहुत कुछ कहनेवाले थे ! यह
'सो कुछ नहीं ! मैं तो मैयाकी क्षुद्र दासी हूँ! परिचय देकर मेरा वह अधिकार भी मत छीनो !' उसने कपोलोंपर दो धाराएँ बहाते हुए कहा 'अब तो मैं अहीरिन भी नहीं, दासी हैं। अपना धर्म मुझे अच्छी प्रकार स्मरण है!' उसने अभी दो घडी पहलेकी ज्ञान-गोष्ठी आड़मेंसे सुन ली थी। पता नहीं, उसके हृदयमें भी उससे कुछ मिला था या नहीं।
'मैं तुम्हें बहुत ढूँढ़ता रहा।' श्यामसुन्दरने कहा 'आओ, शिविर चलो ! अब तुम्हें वृन्दावन नहीं लौटना होगा!' उद्धवने सोचा कि एक महारानी और बढ़ गयीं।
'मैंने तुम्हारे दर्शन कर लिये!' उसका रोम-रोम पुलकित हो रहा था। 'जन्म-जन्मकी, युग-युगकी साध पूरी हो गयी! मुझे न तो द्वारिका जाना है और न शिविर !' उद्धवके आश्चर्यका ठिकाना नहीं था। श्यामसुन्दरसे इस प्रकार कहनेवाली स्त्रीकी कल्पना भी वे नहीं कर सकते थे। स्मरण हुआ-वह व्रजके शिविरकी है। प्रणाम कर लिया। उस प्रेमभूमिमें पहुँचकर सब असम्भव सम्भव हो जाते हैं।
तो तुम मेरे साथ न चलोगी ?' श्यामसुन्दरने पूछा।
'तुम्हारे साथ !' मुसकरायी वह। पता नहीं कितने वर्षोंके बाद उसके मुखपर वह मुसकान आयी थी। 'तुम्हारे ही साथ तो हूँ! तुम चाहो भी तो क्या इस हृदयसे भागकर साथ छुड़ा सकोगे ? किंतु मैयाकी सेवा और श्रीकिशोरीजीकी चरणधूलिसे पृथक् यह दासी कहीं भी रहना चाहती नहीं!' उसने जल्दीसे फिर चरणोंपर मस्तक रखा और उठकर शिविरद्वारमें चली गयी।
बड़ी देरतक वहीं खड़े-खड़े श्यामसुन्दर उस द्वारकी ओर देखते रहे। उद्धवने हाथ पकड़कर रथपर बैठनेका आग्रह किया। रथपर बैठ गये। वे गये किधर ? द्वारकाके शिविरकी ओर या उस व्रजके शिविरके फाटकके भीतर ?
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