हम चाहे कैसे भी क्यों न हों; भगवान्‌ की कृपा, भगवान्‌ का सौहार्द हमें छोड़ ही नहीं सकता- प्रथम माला

No matter how we are, God's grace and God's kindness can never leave us

SPRITUALITY

आदरणीय परम पूज्य श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी की लाभदायक पुस्तक 'सत्संग के बिखरे मोती '

10/20/20241 min read

हम चाहे कैसे भी क्यों न हों; भगवान्‌की कृपा, भगवान्‌ का सौहार्द हमें छोड़ ही नहीं सकता

आदरणीय परम पूज्य श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी की लाभदायक पुस्तक 'सत्संग के बिखरे मोती '


५०-हम चाहे कैसे भी क्यों न हों; भगवान्‌की कृपा, भगवान्‌का सौहार्द हमें छोड़ ही नहीं सकता। वह सबको अपनाता है- यह अनिवार्य है।

५१-बिलकुल यही बात है। कठिन-से-कठिन परिस्थितिमें भी यही मानना चाहिये कि भगवान्‌की कृपा हमपर है और हमारे ही ऊपर है तथा वह अनन्त है।

५२-नित्य परिवर्तनशीलता संसारका स्वरूप है। यह प्रतिक्षण बदलता ही रहता है। सारे जगत्में, व्यक्तिमें, समाजमें दिन-रात बनना- बिगड़ना चल रहा है। इसीका असर हमारे मनपर होता है। एक-सी स्थिति कभी रहती नहीं और मन अनुकूल-प्रतिकूल संकल्पोंको लेकर दुःखी-सुखी होता रहता है। जगत्के इसी स्वरूपमें पड़े पड़े हम मर जाते हैं, जीवन व्यर्थ हो जाता है।

५३-मनमानी चीज सदा मिलती नहीं। कभी मिल जाती है, कभी नहीं मिलती। मिलनेपर सदा टिकती नहीं।

५४-पुत्र-धनकी प्राप्ति हुई, मनमें मान लेते हैं कि हमारे मनकी हुई। थोड़ी-सी सफलता हुई, थोड़ा-सा आनन्द आया, फिर वही प्रतिकूलता और वही दुःख। साथ-साथ विषयासक्तिके कारण पाप भी होते रहेंगे। इस प्रकार जीवनभर विषाद, शोक, पापकी कमाई ही साथ लगती रहेगी।

५५-मनुष्य आया था उन्नति करनेके लिये, मनुष्य-जीवन प्राप्त हुआ था भगवत्प्राप्तिके लिये; पर वह अपने इस वास्तविक लक्ष्यको भूल गया, विषयोंमें पड़कर कमाने लग गया पाप। गम्भीरतासे विचारो तो पता लगेगा कि जीवनका उद्देश्य यह कदापि नहीं है।

५६-महात्माओंने यह बात सबके लिये तै कर रखी है कि जीवनका लक्ष्य भगवत्प्राप्ति है, पर मनुष्य इसको भूल गया। उसी भूलका परिणाम है-वर्तमानका महान् संहार।

५७-विषयासक्ति जब अत्यन्त बढ़ जाती है, तब दूसरेके भले-

बुरेकी परवा नहीं रहती। दूसरेकी दशा कैसे भी क्यों न हो, पर हमें

अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त होनी ही चाहिये। ५८-'विषयान् विषवत् त्यज' विषयको विष मानकर सर्वथा छोड़ दो।

५९-जिस प्रकार सोनेके घड़ेमें जहर भरा हो- 'बिषरस भरा कनक घट जैसे।' वैसे ही विषय ऊपरसे रमणीय प्रतीत होते हैं, भीतर इनमें दुःख-ही-दुःख है।