ऊपरसे चाहे जैसा वेष रखे, पर भीतर का पता एकान्त में लगता है

No matter what appearance one wears on the outside, the inner self is revealed only in solitude

SPRITUALITY

आदरणीय परम पूज्य श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी की लाभदायक पुस्तक 'सत्संग के बिखरे मोती '

2/5/20251 min read

45.जिसकी जैसी वृत्ति होती है; उसका वैसा स्वभाव होता है। वृत्ति स्वभावसे होती है और स्वभाव वृत्तिसे पहचाना जाता है। पहचान एकान्तमें होती है। ऊपरसे चाहे जैसा वेष रखे, पर भीतरका पता एकान्तमें लगता है। मनुष्यके स्वभावका-असलमें उसमें वैराग्य है या नहीं, उसे साधनाका उत्साह है या नहीं, इसका पता लगता है एकान्तमें।

४६-भगवान्‌में लग जाना यही सर्वोत्तम भाग्य है, बाकी तो सब कुछ अभाग्य ही है। बड़ी-से-बड़ी सम्पत्ति भी प्राप्त हो गयी, अधिकार भी प्राप्त हो गया, सम्मानका सेहरा भी बँध गया, पर यदि वे सब भगवान्‌के प्रतिकूल हैं, तो बड़ी अभाग्यता है। अतः जीवनमें जो सबसे बड़ी बात करनी है वह है 'जीवनकी गतिको भगवान्‌की ओर मोड़ देना।'

४७-भगवान्‌के नाम, रूप, लीला, गुणमें इतना माधुर्य है कि उसकी कोई सीमा नहीं। जीवके ये ही परम संबल हैं।

४८-भगवान्‌की सेवाके मार्गमें, जहाँ अपने पुरुषार्थकी कोई महत्ता ही नहीं, वासनाका मूल नष्ट हो जाता है।

४९-रहस्यके बिना भागवतमें कोई भी शब्द नहीं है। शुकदेवजी महाराज जो वर्णन करते हैं वह उनके प्रत्यक्ष अनुभवकी बात है।

५०-श्रीमद्भागवतको बिना पढ़े-समझे गोपीतत्त्वपर जो लिखने लगते हैं, वे बड़ा अनर्थ करते हैं।

५१-भगवान्के भोगमें बड़ा महत्त्व है, क्योंकि उसमें 'यह भगवान्‌का प्रसाद है' यह भाव आ गया। सैकड़ों, हजारों अश्वमेध या अग्निहोत्रका फल प्रसादसे प्राप्त होता है।

५२-लीलामयकी लीला-भंगिमा परम मनोहर और अत्यन्त गूढ़ है। ब्रह्मादिको भी उसका रहस्य नहीं मालूम होता है।

५३-मनुष्यमें शक्तियाँ स्वाभाविक नहीं, वे कर्म, खान-पान, वातावरण आदिसे बनती हैं। भगवान्‌में शक्तियाँ स्वाभाविक हैं, वे चिन्मय हैं। भगवान् सर्वशक्तियोंके मूल उत्स हैं। अनन्त ब्रह्माण्डोंमें जो बल है, वह आता है भगवान्से। सूर्य, चन्द्र, तारे आदि सब उन्हींके बलसे स्थिर हैं। बिजली-तूफान उन्हींके बलसे आते हैं। यह बल ऐसा नहीं कि क्रम-क्रमसे बढ़ता है, यह नित्य है। वे ही (ऐसे दिव्य अचिन्त्यानन्तशक्तिसम्पन्न) भगवान् यशोदाके प्रेम-समुद्रके अतलतलमें अपनी सारी शक्तियोंको डुबोकर वात्सल्यरसका आस्वादन करते हैं।

५४-जो सर्वथा अहिंसक है, उसको हिंसक पशु भी किसी प्रकार हानि नहीं पहुँचाते। हमारी हिंसावृत्ति ही हमारी हानिका कारण बनती है।

५५-कई लोगोंका अन्तःकरण स्वभावतः ही फिसलनेवाला होता है, उनमें थोड़े ही कारणसे आर्द्रता आ जाती है। वहाँ प्रेमांकुर हो ही, ऐसी बात नहीं। बहुत लोग तो जनताको दिखानेके लिये भी आँसू बहानेका अभ्यास करते हैं। इसका नाम प्रेम नहीं। असली भक्तके प्रेमाश्रुओंकी झलक भक्त और दर्शक दोनोंको कृतार्थ कर देती है।

५६-विश्वास होता है दो बातोंसे-

(१) विश्वासी पुरुषोंकी वाणीसे और विश्वासी पुरुषोंके आचरणोंसे।

(२) किसी भी प्रकार किये गये श्रीभगवान्‌के अनन्य स्मरणसे।

५७-सत्संग वह है, जिससे जीवनमें दो चीजें अवश्य पैदा हों-

(१) भगवान्में दृढ़ विश्वास और (२) दैवी सम्पत्तिकी प्राप्ति। जिससे ये दो वस्तुएँ प्राप्त हों, वह शास्त्र, वह तीर्थ, वह व्यक्ति, वह खान-पान सत्संग है।

५८-भजन वह है, जिससे अन्तःकरण पवित्र हो और भगवान्में अर्हतुकी प्रीति हो।

५९-मनुष्यके जीवनमें यदि कोई सम्पत्ति है, जो बटोरनी है, संग्रह करनी है, साथ ले जानी है तो वह है- ' भगवद्विश्वास !'

६०-यह स्वाभाविक है कि जहाँ जो चीज है, उसके सम्पर्कमें आनेसे वस्तु और पात्र दोनोंके अनुसार फल होता है। जितने भी आदमी हैं, जितने भी जीव हैं, वातावरणमें जितनी चीजें हैं, पात्र और वस्तुकी शक्तिके अनुसार परस्पर एक-दूसरेका एक-दूसरेपर असर पड़ता है। महापुरुषोंको देखने, स्पर्श करने, स्मरण करने आदिसे जो फल होता , वास्तवमें वह महापुरुषोंकी कोई विशेषता नहीं है, वह तो वस्तुका स्वाभाविक गुण है।

६१-जैसे रोगके परमाणु होते हैं, वैसे ही पाप-पुण्यके भी परमाणु रहते हैं, विचारोंके भी परमाणु रहते हैं। अतः जहाँ जिस प्रकारके मनुष्य रहते हैं, जिस प्रकारके कार्य होते हैं, जिस प्रकारकी चेष्टाएँ होती हैं, वहाँ उसी प्रकारके परमाणु बनते एवं फैलते हैं और वे बहुत समयतक रहते हैं। आकाश और वायुमें भी वस्तुओं और क्रियाओंके संस्कार रहते हैं। आसन और मालाओंका भेद इसी दृष्टिसे है। आसन और मालाका असर पड़ता है व्यवहार करनेवालेपर और व्यवहार करनेवालेका असर पड़ता है आसन और मालापर। तीर्थोकी रज, महात्माओंकी चरण-धूलि आदि केवल श्रद्धाकी चीज नहीं है। माना, श्रद्धासे काम होता है, किन्तु यहाँ उपर्युक्त नियम ही प्रधान है।

६२-जगत्का प्रपंच ऐसा है कि वह अँगुली पकड़ते ही पहुँचा पकड़ लेता है। जितना ही पुरुष जागतिक प्रपंचके अन्दर संलग्न होता है, उसमें प्रपंचके साथ-साथ उतना ही प्रपंचका दोष भी आ जाता है।

६३-जबतक बुरेमें बुरापन दीखता है और वह (बुरापन) हृदयमें शूल-सा चुभता रहता है, तबतक तो उसको निकालनेकी चेष्टा होती है; किन्तु जब बुरेमें अच्छी बुद्धि हो जाती है, तब फिर उससे बचना बहुत कठिन है।

६४-कर्ममेंसे बुराई निकालनेका एक ही उपाय है-' भगवत्समर्पणबुद्धि।'

६५-जहाँ लौकिक वस्तुओंकी इच्छा हुई, वहाँ ज्ञान ढक जाता है और पाप आ जाता है- यह नियम है।

६६-आचारका आधार है धर्म। जबतक धर्मका, ईश्वरका, लोक-परलोकका भय बना रहता है, तबतक तो मनुष्य आचारसे डिगने-पाप करनेसे भय करता है और उससे यथासाध्य बचता भी है, पर जहाँ यह भय निकला कि सब कुछ नष्ट हो जाता है।

६७-अभ्यासका (धीरे-धीरे अभ्यास करते रहनेसे उत्पन्न) स्मरण रूखा होता है और प्रेमका रसीला। वह करना पड़ता है और यह होता है तथा इसके किये बिना रहा नहीं जाता है।

६८- श्रद्धा तत्परताकी जननी है।

६९-सेवा बननेमें सम्बन्ध मनका है, न कि उपकरणोंका।

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७०-अभीष्टकी प्राप्तिमें जो सुख है उसको प्राप्त करनेके प्रयत्नमें भी वही सुख है। "भगवान्‌का सेवक भगवान्‌को साध्य नहीं बनाता, भगवान्‌की सेवा ही उसका साध्य है। सेवा सेवाके लिये होती है। सेवासे सेवाकी अभिवृद्धि होती है।..... भजनके फलस्वरूप भगवत्प्राप्ति होगी, मोक्षप्राप्ति होगी'- जहाँ ऐसा विचार है, वहाँ भजनमें गौणबुद्धि है, वहाँ भजन कीमत है, असली प्राप्य वस्तु नहीं।

७१-जहाँ सेवाभाव होता है, वहाँ सेवाका फल भी सेवा ही होता है। इसलिये सेवामें शिथिलता आदि बातें वहाँ नहीं आतीं। वहाँ तो सेवा न बननेमें ही दुःख होता है।

७२-साधनाकी कसौटी क्या है? 'साधनामें आगे बढ़ते रहनेमें आनन्द और लक्ष्यकी प्राप्तिके लिये तत्परता।'

७३-जगत्की सत्ताका मनसे निकल जाना ही पर-वैराग्य है।

७४-ऊपरसे मनुष्य जैसा दिखायी दे, उससे कहीं अच्छा मनमें होना चाहिये।

७५-मनुष्यकी उन्नति तब होती है, जब वह अपनेको देखता है, अपने दोषोंको देखता है, अपने रोगोंको देखता है तथा वे रोग, वे दोष उसके हृदयमें खलते हैं और वह उन्हें मिटानेके लिये प्रयत्न करता है।

७६-मनुष्यको यदि अपना सुधार करना है तो सुधार करनेमें लग जाना चाहिये और पल-पलमें अपने दोषोंको देख-देखकर उन्हें सुधारते रहना चाहिये।

७७-साधक उसीका नाम है, जो सावधान है, सावधान होकर अपने साधनमें लगा हुआ है और जो रात-दिन अपनेको भगवान्में संलग्न कर देनेके लिये प्रयत्नशील है।